Tuesday, August 30, 2022

आधी आबादी का जीवनपर्यन्त पूर्ण सहयोग, समर्थन और समर्पण / Lifelong cooperation, support and dedication of half the population


                   (अभिव्यक्ति


यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता: तात्पर्य है, जहां स्त्री की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में इंगित वह स्वर्णीम शब्द जिसमें कहा गया है कि, नारी नर की आत्मा का आधा भाग है। जीवन के सतत् सहचर्य पालन और जीवन के संचरण के लिए स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंधों को भारतीय दर्शन में अद्वितीय और पवित्र माना जाता है। विवाह संबंधों के विषय में सामाजिक परिदृश्य में यदि विवरणात्मक विचार करें तो,विवाह संबंध द्वारा सृजित परिवार मे नव जीवन यानी शीशू अपने समाज के आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज, धार्मिक तथा नैतिक विश्वासों एवं आदर्शों से परिचित होता है, उन्हें सीखता है तथा अपने को उन आदर्शों के अनुरूप साँचे मे ढ़ालता है। इस तरह नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अपने सांस्कृतिक दायित्व को ग्रहण करती है एवं उसके सातत्य को बनाये रखती है।
           परिवार के सृजन से लेकर पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलकर चलती नारी का जीवन विभिन्न परिस्थितियों से सामंजस्य बनाकर चलना होता है। जहाँ पिता के घर निकली डोली के साथ दो घरों की जिम्मेदारी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में नारी के कंधों पर रहती है। जहाँ संस्कार, संस्कृति और भूपर्पटी की तरह अदम्य स्नेह बनाकर परिवार का पोषण करती है। नारी के दृष्टिकोण में परिवार का हित सर्वोपरि होता है। जहाँ नारी अपने दायित्वों में शत्-प्रतिशत समर्पण परिवार, पति को देती है। वर्तमान दौर में वैवाहिक संबंधों के परिधियां निर्मित हो रही है। जहाँ सामाजिक बध्यताओं को पर कर अंतर्जातीय वैवाहिक संबंधों को मान्यता मिली तो है, लेकिन लोगों के सोच में ऐसे वैवाहिक संबंधों में कहीं ना कहीं संकीर्णता का बोध आज भी है। एक ओर जहाँ सामाजिक परिदृश्य में अरैंज मैरिज के सफलता के पीछे लोगों का दवाब देखने को मिलता है। जहाँ छूट-पूट विवादों की स्थिति में पारिवारिक, सामाजिक स्तर पर सुनता, सलाह का दौर निकल पड़ता है। वहीं प्रेम आधारित विवाह में दोषारोपण के अलावे शेष कुछ नहीं होता है। फलस्वरूप यह है विवाह संबंधों यदि स्त्री-पुरुष के बीच सामंजस्य की समीक्षा है। यदि सामंजस्य खरा है तो निश्चित ही यह संबंध टूटते नहीं है। यानी दोनो विवाह संबंध समांतर चलते हैं। इन संबंधों में सबसे बड़ी कुँजी है। एक दूसरे के प्रति भरोसा और इमानदारी से दायित्वों का निर्वाह करना है। 
           वर्तमान दौर में कुछ पति-पत्नी के बीच संबंधों पर हास्यास्पद चलचित्रों, चुटकुले, यहाँ तक की अतरिक्त वैवाहिक प्रेम संबंधों को लेकर तो जैसे बाढ़ सी आ गई है। वास्तव में यह भारतीय दर्शन में अस्वीकार्य है। पाश्चात्य के ओर से बहने वाली इन अशुद्धि-युक्त हवाओं के पीछे कहीं ना कहीं यौनाचार और उसकी आपूर्ति के लिए एक माध्यम के रूप में प्रचारित हो रहा है। जो भारतीय सामाजिक दर्शन के आघातवर्धनीय है। वास्तव में संबंधों की डोर इतनी भी कमजोर नहीं हो सकती है की कुछ भौतिक लोलुपता के फेर में मानसिक संबंधों के जुड़ाव को तोड़ा जा सकता है। संभवतः प्रेम और उसके अनुशासन के प्रति प्रदर्शन वाली संस्कृति के आकर्षण में युवा पीढ़ी के पैर फिसलने पर आमादा है। लेकिन वे भूल रहे हैं की फास्ट फूड की संस्कृति हमारे दैनिक जीवन की सोभा कभी नहीं बन सकती है। भोजन तो घर के चार दिवारी में सम्मान के साथ किया जाता है। और रोड़ के किनारे सिर्फ शौंक जीये जाते हैं अपनाएँ नहीं जाते हैं। बहरहाल, वर्तमान परिदृश्य में जहाँ नर-नारी के संबंधों के बीच संदेह का यदि बीजारोपण होता है तो निश्चय ही यह पूरे दाम्पत्य जीवनको खलल में रखती है।
        गृह क्लेश की स्थिति से निपटने के लिए एक-दूसरे को समझने की भावना, सम्मान और निरंतर विश्वास के स्वर प्रेम के लिए उर्वरक के समान है। वो कहते हैं ना ताली एक हाथ से नहीं बजती है। ठीक वैसे ही दाम्पत्य जीवन में अवरोध, टकराव, क्लेश, वैमनस्य इत्यादि के पीछे दोनों ओर से अप्रत्याशित आंतरिक क्रोध है। बहरहाल, वर्तमान स्थिति में पुरुष अपने आप को पुरुषप्रधानता के स्वैच्छिक प्रतिनिधि मानकर अपने फैसलों पर अडिगता प्रदर्शित करता है। वहीं वह यह भी सोंचता है की उसके द्वारा लिए जा रहे सभी फैसले सहीं है। यह मूर्खतापूर्ण विचार पुरुष को नारी के हृदय से च्युत कर देती है। जो नारी समर्पण और समर्थन के साथ पुरुष के जीवन में प्रवेश करती है। यदि उसके हृदय में पुरुष के कारण वेदना होती है तो यह किसी अक्षम्य पाप से कम नहीं है। नारी की समानता के लिए पुरुष भी उतने ही जिम्मेदार है जितनी महिलाओं में जागरूकता का है। वैवाहिक संबंध की पराकाष्ठा की कूँजी है एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना, निरंतर विश्वास और सदैव माधुर्यमय पारिवारिक महौल का होना। क्योंकि अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥ अर्थात्, सभी देवताओं से उत्पन्न हुआ और तीनों लोकों में व्याप्त वह अतुल्य तेज जब एकत्रित हुआ तब वह नारी बना। नारी की भूत वर्तमान और कल है। क्योंकि, 'नारी माता अस्ति नारी कन्या अस्ति नारी भगिनी अस्ति।' इससे बड़ा उदाहरण नहीं की नारी ही, माँ है, बेटी है और बहन है| नारी ही सबकुछ है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान / Don't ask caste of a monk, ask for knowledge




                      (अभिव्यक्ति
भारतीय राजनीति में जातिगत समीकरणों की पर चुनावी पासे पटल दिये जाते हैं। कभी ऊँची-कभी निचे जाति के सघर्ष में आहुतियां केवल मानवता की चढ़ाई जाती है। इस संघर्ष के उद्देशिका में केवल उच्च-पदासीन लोगों को मनोरथ साध्य हो जाते हैं। वास्तव में वर्तमान भारतीय समाज जातीय सामाजिक इकाइयों से गठित और विभक्त है। श्रम-विभाजन प्रकृति आनुवंशिक समूह भारतीय ग्राम की कृषि केंद्रित व्यवस्था की विशेषता रही है। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में श्रमविभाजन संबंधी विशेषीकरण जीवन के सभी अंगों में अनुस्यूत है और आर्थिक कार्यों का ताना बाना इन्हीं आनुवंशिक समूहों से बनता है। वहीं जाति के निर्धारित, निर्माण में एक विशेष रीति, परम्परा, टोटम, धार्मिक मान्यता और नियमावली के पालन करने वाले एक मनुष्यों के समूह की कल्पना जाति के रूप में हुई। वहीं जीव विज्ञान की अवधारणा में जाति को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है, 'जीवों या प्राणी के जीव वैज्ञानिक वर्गीकरण में सबसे प्राथम्य और निचली श्रेणी होती है। जीववैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है। जो एक दुसरे के साथ सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हो और जिनकी सन्तान स्वयं आगे सन्तान जनने की क्षमता रखती हो।' लेकिन सामाजिक स्तर पर जाति की अवधारणा वंशानुगत किसी पेशे के चयन के स्वरूप हुआ। यानी इन जातियों के अंदर निर्धारित एक समान जाति वाले व्यक्तियों का समाज स्थापना हुई। जो वंशानुगत सदस्यता, अन्तर्विवाह, निश्चित व्यवसाय, तथा जाति समितियां, जबकि व्यवस्था के रुप में जाति की विशेषताएं हैं। श्रेणीक्रम, खानपान पर प्रतिबन्ध, तथा शारीरिक व सामाजिक दूरियों पर प्रतिबन्ध इत्यादि पहल होते हैं। जो जाति के प्रति लोगों में विश्वास और सांमजस्य स्थापित करने, पालन करने की विवशता का निर्माण होता है। भारतवर्ष में मौजूदा आबादी पांच प्रकार के प्राचीन आबादी से मिलकर निर्धारित हुई है। जो आपस में घुल मिलकर कर रहते थे और हजारों साल से क्रॉस ब्रिडिंग कर रहे थे। भारत में कठोर जाति प्रथा का सूत्रपात् 1,575 वर्षों पहले हुआ। 
              जाति व्यवस्था या जातिवाद, एक जाति के लोगों या सजातीय लोगों की वह भावना है, जो अपनी जाति विशेष के हितों की रक्षा के लिए अन्य जातियों के हितों की अवहेलना भी स्वीकार्य करती है। इस भावना के आधार पर एक जाति के लोग अपने स्वार्थ के लिए, अपने लाभ के लिए या अपनी जाति श्रेष्ठता के लिए अन्य जाति या दूसरे जाति के लोगों को नीचा दिखाने के लिए किसी भी स्तर पर वाद-विवाद और आपसी वैमनष्यता को जन्म देते हैं। 
            निःसंदेह जातिवाद एक सामाजिक कुरीति है। विडंबना यह भी  है कि देश को स्वतंत्र हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश के नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है। लेकिन विरोधाभास है कि सरकारी औहादे के लिए आवेदन या चयन की प्रक्रिया के वक्त जाति को प्रमुखता दी जाती है।
            बहरहाल, बहुत से सुधारों के उपरांत जातिवाद के अवधारणा प्रभाव खत्म नहीं हुआ है। जातिवाद के अवरोधकों के स्वर इतने तेज हुए हैं की आज भी जातिवाद के स्वर कहीं ना किसी गलीकुचे में प्रदर्शित होते हैं। कबीर दास जी जीवन पर्यंत कहते रह गए, 'जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान|' लेकिन आज भी जातिवाद पर संघर्षों के मेघ बेवजह टकराव की बारिश करते हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़

घरेलू हिंसा की आग में जलती नारी की स्थिति / Status of woman burning in the fire of domestic violence




                       (अभिव्यक्ति

संबंधों के प्रगाढ़ता की आधारशिला विश्वास और ईमानदारी के गठबंधन से संभव होता है। और जब बात विवाह संबंधों की हो, तो पति-पत्नि के बीच के रिश्तों की गहराई विशेषता यह होती है की दोनों में प्रेम एवं एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना होती है। वर्तमान परिदृश्य में वैवाहिक संबंधों में पारदर्शिता से कहीं अधिक प्रत्यास्थता का बोध होने लगा है। सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में विभिन्न प्रकार के डोपिंग, परिवर्तन, अंतर्संग्रहण की प्रक्रिया से पारिवारिक संबंधों में कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं। जहाँ संयुक्त से एकल परिवार की भूमिका के इर्द गिर्द जीवन के भौतिक सुख के प्रति लोलुपता और विलाशता की चाह ने मनुष्य को संबंधों में फायदों के तलाश करने की अभिवृत्ति बढ़ा दी है। संभवतः इसी कारणों में वैवाहिक संबंध के गठबंधन के अवसर पर उपहार या दहेज के पर रिश्तों के मोल भाव का समीकरण तैयार कर लिया जाता है। एक ओर जहाँ दहेज प्रथा को हम कानूनी दायरे में जकड़ कर खत्म करने की बात करते हैं। वहीं दूसरी ओर बेटी के लिए उपहार कह कर इसी प्रथा के बबुल को पानी देने का प्रयास कर रहे हैं। 
          अधिकांश घरों में विवाह के उपरांत विवादास्पद स्थितियों में नारी हिंसा, घरेलू प्रताड़ना इत्यादि के मामलों में धन, वस्तू या दहेज के नाम पर विवाद की स्थिति होती है। वहीं दूसरी ओर वैवाहिक दम्पति के बीच कलह का कारक अधिक धन की चाह ही होती है। जिसके पूर्ति के लिए पत्नि के पिता के घर से डिमांड रखी जाती है। समय पर यदि मांगें पूरी होती है तो ठीक अन्यथा मांग अनुरुप धन नहीं मिलने से खिझ की भरपाई नारी को शारीरिक यातनाओं और वेदनाओं के आधार न्यायोचित समझा जाता है। 
          गंभीर विषय यह भी है कि यदि स्त्री-पुरुष में विवाद की स्थिति में तथाकथित समाज के ठेकेदारो पुरुषप्रधान मानसिकता के सहयोगी साबित होते हैं। जहां समझाइश के नाम पर नारी के अभिव्यक्ति स्वरों को तोड़कर पारिवारिक लोगों को राजी-खुशी से रहने की हिदायतें भी थमा दिए जाते हैं। दाम्पत्य जीवन में घरेलू हिंसा के पहलू में यौनाचार एवं अतृप्त भावना भी एक कारक है। शारीरिक अक्षमता, भौतिक विषमता के आधार पर विभिन्न लोगों में यौनाचार के संदर्भ में अरूचिकर भावना भी होती है। यौनाचरण की पूर्ति नहीं होने की स्थिति में पति-पत्नि के बीच आपसी कलह की छद्म स्थिति निर्मित होती है। जो आगे चलकर घरेलू हिंसा का कारण बनती है।
           भारतवर्ष में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 को संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है। जिसका उद्देश्यिका घरेलू हिंसा से महिलाओं को बचाना है और पीड़ित महिलाओं को कानूनी सहायता उपलब्ध कराना है। यह 26 अक्टूबर 2006 को लागू हुई। उल्लेखनीय रूप से घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, एक पीड़ित व्यक्ति या एक सुरक्षा अधिकारी या सेवा प्रदाता सहित पीड़ित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति मजिस्ट्रेट को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत एक या अधिक राहत के लिए आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। लेकिन कहीं कहीं ऐसे नियमों की प्रासंगिकता से अधिक नारी के लिए हथियार और पुरुष के लिए बेड़ियों का भी काम करती है। कुछ ऐसे भी मामले सामने आये है जिनमे घरेलू हिंसा अधिनियम के उपयोग से नारी पुरुष को प्रताड़ित कर सकती है। बहरहाल, वर्तमान समय में एेसे मसलों के अलावे कई मामले रोज देखने को मिलते हैं। जहाँ पुरुष अपनी वर्चस्वता के आड़ में महिलाओं के साथ चार दीवारी के अंर्तगत बरबरतापूर्ण व्यवहार करता है। समय के साथ-साथ महिलाओं में जागरूकता आ रही है, और वो अपने अधिकारों के प्रति सजग हो रहे हैं। यह प्रशंसनीय विषय है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता

 
                   (व्यंग्य


लोकतंत्र में जनता का शासन तो है, जिसमें जनता की नुमाइंदगी करते नेतागणों में राजधर्म का पालन अनिवार्य शर्त है। राजधर्म के अनुसार, राजकीय यानी शासित क्षेत्र के कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह का प्रावधान होता है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राजधर्म से कहीं ज्यादा आवश्यक शासन तंत्र के मजबूत बनाने की होड़ मची दिखलाई पड़ता है। जहाँ स्वहित पहले फिर शेष बाद में विचारणीय है। 
            स्वहित की भूमिका पर तनिक गौर करें तो खुर्शी के खेल में पक्ष-विपक्ष के अदलाबदली और संख्या बल की खरीदफरोख्त सब कुछ जायज है। कभी स्वहित के लिए अपने मूल वेतनमान में दोगुनी, तीगुनी बढ़ोत्तरी का सारा समीकरण जुबानी नाप दिये जाते हैं। लेकिन राजकीय, शासकीय सेवकों के प्रति यही प्रक्रिया उदासीनता के लहरों में स्लो-मोशनल प्रदर्शन करती है। ऐसा भी तर्क की इससे अर्थव्यवस्था का संतुलन गड़बड़ सकता है। भइया घोर गड़बड़ झाला है। कार्मिक आंदोलन पर और कार्य वैकल्पिक व्यवस्था के भरोसे धीरे-धीरे सलटाने की तान में फरमान थोप दिया जाता है। 
          कभी किसान की बात, कभी रोजगार की बात और तो और सेवकों के वेतनमान की बात पर पक्ष वाले तर्कों के माध्यम से सीना ठोक बोल देते हैं। हमारी सरकार बनी तो सारे संकट हर जायेंगे। जो मांगे हैं आपकी अक्षरसः पूरे होते नजर आएंगें। सेम सिचुएशनल लाईन इससे पहले विपक्ष ने भी बोला था। क्योंकि नेतागण हैं जनाब मिथ्या थोड़ी बोलेंगे। माना की वादा पूरा हो या ना हो..! जनता का मुड तो अवश्य ही टटोलेंगे। 
       बिखरते समीकरणों में मांग की रस्साकशी फिर पक्ष-विपक्ष के हाथों में पड़कर दो धूरी तन जाती है। आम तो आम की तरह है। जिसके जितना स्वद चखना होता है वैसे मसल दिये जाते हैं। जनता के मुड को चुनावी वादों में बद दिये जाते हैं। मांग पूरी हो ना, सत्ता के परिवर्तन के स्वर जरूर वजनदार, असरदार नजर आते है। मंद मंद अंदर से मुस्कुराते दोनों पक्षों के प्रतिनिधि भावी विजयश्री के गीत गाते हैं। समस्या का मर्म कौन जाने? बस नेता तो वो रंगहीन भोले भाले प्राणी है। राजनीति में खुर्शी पाकर थोड़े बदल जाते हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़

वर्तमान परिदृश्य में सेक्स एजुकेशन के प्रासंगिक होते समीकरण / Equations of sex education becoming relevant in the present scenario


                       (अभिव्यक्ति


वर्तमान परिदृश्य में जहाँ हम 21वी शताब्दी के दौर में जी रहे हैं। जहाँ सूचना विस्फोट और तेज इंटरनेट के 4जी-5जी की पीढ़ियों के लुत्फ़ उठाते लोगों के बीच किसी भी विषय में डिजिटल या टंकित पाठ्य सामग्री की कमी नहीं है। वर्तमान आधुनिक सभ्य समाज में यौनसम्बन्ध के विषय में वार्तालाप के संबंध में वरिष्ठ-कनिष्ठों के बीच में आज भी मानसिकता 50वर्ष पूरानी है। पालक, अभिभावक अपने बच्चों से इस संबंध में ना तो खुलकर बात करना चाहते हैं और ना ही इस विषय पर कभी विमर्श करते हैं। हालांकि बच्चों में अवेयरनेस के लिए गुड टच और बेड टच के संबंध में समाज थोड़ा तो जागरूक हुआ है। लेकिन उतना भी उत्कृष्ट नहीं है की स्थिति संतावना के स्तर को स्पर्श भी कर पाए। वहीं इंटरनेट के गिरफ्त में आदतन लती होती किशोरावस्था के बच्चों के लिए सैक्स एजुकेशन वर्तमान समय में नितांत आवश्यक है।
              किशोरावस्था को जीवन का बसंतकाल माना गया है। इस काल काल की अवधि बारह से उन्नीस वर्ष तक रहता है, परंतु किसी- किसी व्यक्ति में यह बाईस वर्ष तक चला जाता है। यह काल भी सभी प्रकार की मानसिक शक्तियों के विकास का समय है। भावों के विकास के साथ साथ बालक की कल्पना का विकास होता है। इसी काल में बच्चों में भौतिक और शारीरिक बदलाव स्वमेव दिखते हैं। वह अपने आप को पूर्व की अवस्था से अधिक मजबूत और जोशपूर्ण अवस्था में पाता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से बात करें तो यह वह अवधि होती है जहाँ बच्चा अपने शारीरिक बदलाव के चलते अगल ही कपोल-कल्पना में रहता है। जो अपने आप को वयस्क की भांति तुलनात्मक नजरिये से देखता है। भौतिक बदलाव और जिज्ञासु मन के प्रश्नों के उत्तर तलाश करने में अभिवृत्ति प्रस्तुत करता है। लेकिन इसी दौर में उचित सैक्स एजुकेशन ना मिल पाने की स्थिति में ये बच्चे पथभ्रष्ट हो जाते हैं। इसी अवधि में बच्चों की मानसिक स्थिति या तो सिद्ध हुए तो शिखर और फिसल गए तो पतन वाली अधोगति में लिप्त रहता है। जहाँ समाज में सेक्स को लेकर एक तबका ऐसा भी है जो राय तो ओपन माइंडेड रखता है। लेकिन यदि यही राय अभिव्यक्ति के रूप में किसी उसके उम्र से कम व्यक्ति के द्वारा पुछा जाये तो ये ही बुद्धिजीवी प्राणी नाक-सिकोड़ते सोदाहरण देखे जा सकते हैं।
                रही बात युवा वर्ग में सेक्स को लेकर कई विसंगतिपूर्ण तर्कों का संग्रह है। जिन्हें उचित मार्गदर्शन नही मिलने से भौतिक आकर्षण को भी प्रेम की संज्ञात्मक व्याख्या कर जीएफ-बीएफ की अनिवार्य परम्परा बताते हुए, अपने आप को आधुनिक होने की दलीलें देने लग जाते हैं। जबकि वास्तव में आकर्षण से कहीं ज्यादा युवाओं के जीवन पथ पर फिसलाव की स्थापना अमार्गदर्शन के कारण निर्मित होती है। ऐसे स्थिति में बच्चों के विभिन्न जिज्ञासु प्रश्नों की तृप्ति के लिए वैध-अवैध दोनो तरह से साहित्य की अपलब्धता भर-भर कर है। जिसमें से कहीं ज्यादा इन युवाओं को खिचाव की स्थिति में अवैध, अनैतिक, अश्लील और अशिष्ट साहित्य जो दृश्य, श्रव्य और पाठन समस्त संसाधनों में उपलब्धता भौतिक और आभाषी आयाम दोनो में है। जिसके चलते युवा पीढ़ी की मानसिकता कहीं ना कहीं व्यभिचारी प्रवृत्ति को जन्म देती है। एक ऐसी ही तर्काधिन एक उदाहरण का प्रस्तुत करने की जहमत ले रहा हूँ। एक किशोरी की तथाकथित प्रेम-प्रसंग की लिप्तता किसी हम उम्र युवक से हुआ। दोनो लगभग नाबालिग स्थिति में थे। पिता ने लोक-लाज और निंदा के डर से किशोरी को समझाने का प्रयास किया लेकिन पिता का रवैय्या समीक्षात्मक से थोड़ा उग्रता के तेज पर रहा, जिनमे पिता ने कुछ प्रतिबंध और घर में ही रहने का प्रतिबंध लगा दिया। इसी वाद-विवाद के दौर में किशोरी द्वारा पिता के ऊपर ही सवालिया शब्द बाण के रूप में कहा, 'आप मुझे छुने की चाह रखते हैं।' वास्तव में यह इसमें पारिवारिक संस्कार या पिता की कोई गलती नहीं है। इसका कारण है वर्तमान समय में इंटरनेट की सुगम उपलब्धता और बच्चे के द्वारा अशिष्ट साहित्य के अध्ययन से अंतर्मन में बनने वाली कुत्सित कपोल-कल्पना पर आधारित मानसिकता की यह संगम स्थली विचारधारा रही जो उस किशोरी के दृष्टिकोण में प्रदर्शित है।
             बहरहाल, बच्चों के लिए सेक्स एजुकेशन वर्तमान समय की आवश्यकताओं में से एक है। विद्यालय के पाठ्यक्रमों के साथ-साथ बच्चों के पालकों/अभिभावकों की भी यह जिम्मेदारी है की वे अपने बच्चों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाएं। जहाँ बच्चों की जिज्ञासा और ऐसे प्रश्नों की उत्तर सहजता और गंभीरता से रखें जो आगे चलकर उन्हे उलझन के बजाय सुलझा हुआ नागरिक बनाने के लिए सहायक सिद्ध हो। बच्चों में वर्तमान समय में अस्थिर मानसिकता के और विकृति और अशिष्टता की ओर ढ़केलनें में ऐसे सेक्स एजुकेशन का अभाव भी है। अब वह दौर नहीं है की टेलीविजन पर किसी विज्ञापन में अतरंग दृश्य पर मूह फेर लेने या बहानों से विषय परिवर्तन कर लेने का दौर है। सूचना क्रांति के इस दौर में बच्चों को सेक्स एजुकेशन के मर्म के समझना भी आवश्यक है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

नाइन टू फाइव जिन्दगी की एक पोर्ट्रेट /A Portrait of Nine to Five Zindagi


                       (अभिव्यक्ति

ऐसा नहीं है की लोगों में काम के प्रति जवाबदेही नहीं है। रोज प्रातः 5 से 7बजे के बीच दीवा की शुरुआत तो लोग करते ही है। कभी सड़को पर बेतरतीब भीड़ को चिरते हुए, कोई युवा समान ओजस्विता के साथ आगे बढ़ता व्यक्ति देखने को मिल ही जाता है। जिसने कंधे पर दफ्तर के फाइल के बोझ और सिर पर घर चलाने की जिम्मेदारी के साथ भागता, हड़बड़ाता हुआ देखने को अवश्य मिल जायेंगे। शहरों के रोजाना का एक दिन उठा लिजिए यह नमुनार्थ उदाहरण आपके सामनें सदृश्य दिखाई पड़ेगा। इस हड़बड़ाहट की वजह और दर्द से शासकीय सेवाओं में सेवारत कार्मिकों और अधिकारी वर्ग के जमात को निजात है। ये हाल-ए-बयाँ तो निजी सेवा क्षेत्रों में कार्य करने वाली उस भीड़ की है जो काबिलियत तो रखते हैं। लेकिन जिन्दगी के जद्दोजहद में वर्तमान का आज जला रहे हैं। जिनकी विवशता नहीं प्रातः भागते दौड़ते दफ्तर जाने की मंशा से कहीं ज्यादा जरूरी 9 बजे से एक मिनट पहले उपस्थिति के पंच मशीन पर थम्ब मारने की मजबूरी है। ताकि डेढ़ माह के उपरांत मिलने वाली सैलरी में कटौती से बचा जा सके। क्योंकि जो श्रम विक्रय होती है, उसी से घर के अर्थशास्त्र का ताना बाना बुना जाता है। बच्चे की फिस, महिने भर का राशन, खरीदारी के शौंक, बचे तो भविष्य के लिए थोड़ी सेविंग की परम्परा का निर्वाह किया जाता है। बहरहाल, निजी दफ्तरों के मैनेजमेंट कर्ताओं के उखड़ेपन का सबुत इस बात से भी लगाया जा सकता है की दफ्तर आने के टाइम का फिक्स है मगर जाने के समय का अंतिम समय के बाद भी वर्कलोड बढ़ाकर देरी कराने का उत्कृष्ट प्रबंधन कराया जाता है। 
           दौड़ते भागते दफ्तर पहुँचते, वरिष्ठ-कनिष्क के बीच मेल-वेल, काम का स्टेट्स और मंजूरी के पहले रोक-टोक की बातें आम हो जाती है। कहीं चाटूकारिता तो कहीं मेहनत में कोल्हू के बैल सिद्ध होते कार्मिकों की भीड़ सूबह से शाम तक बस पिसती रहती है। थक हार कर, मन लगे ना लगे मगर टाइम पर काम करके देना है वाली मानसिकता का प्रतिनिधित्व अवश्यक करता है। शेष तो दफ्तर से निकलते-निकलते शरीर पूरी तरह से टूट जाता है। पांच बजे से निकले जो घर पहुँचते शाम के सात के पार घड़ी निकल जाती है। फिर बच्चों संग थोड़ा खेलना, खाना फिर निद्रा के आगोस में निढ़ाल होकर खो जाना। फिर से सुबह उठकर वहीं दिनचर्या चक्र की भांति लौट आता है। नाइट टू फाइव की जिंदगी में सुकुन तो सिर्फ आने वाला संडे ही दिलाता है। शेष क्या हलचल है? शहर में किस बात की शोर है, इसकी परवाह कौन करे? जितना मिलता है उतने में सिर्फ घर चल पाता है। ऐसे दर्द में सिमटकर भी नाइन टू फाईव के जिंदगी में अपना बेस्ट देकर दिखलता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

संतुलित और पारंपरिक भोजन शैली का संरक्षण आवश्यक / Preservation of a balanced and traditional diet is essential



                            (विचार

संयुक्त परिवार के छाँव तले हमारा बचपन गुजरा, जहाँ घर के वरिष्ठ हमें सिखाते की भोजन के प्रारंभ से पहले शालीनता से बैठकर भोज्य पदार्थों का प्रथम भोग प्रकृति के पंच महाभूतों को अर्पित करने की परम्परा रही है। भारतीय दर्शन के परिदृश्य से एक श्लोक का विवरण रखना चाहूंगा, जो भोजन के प्रारंभ के पूर्व कहे जाते-

'ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।।'
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:। तात्पर्य है कि जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी परम ब्रह्म है, और हवन किये जाने योग्‍य द्रव्य में परम ब्रह्म की उपस्थिति है। ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है। उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाला योगी द्वारा प्राप्‍त किये जाने योग्‍य फल भी ब्रह्म ही है। यह श्लोक गीता में चतुर्थ अध्‍याय के चौबीसवें श्लोक से उद्घृत है। हमारे भारतीय दर्शन में जीवन चक्र के संतुलन और समायोजन के लिए विविध संक्रियाएं निर्मित है। जिसमे मौसम के अनुसार फलाहार और साख ग्रहण करने की परम्परा रही है। जिसमे संकरण से उत्पन्न सब्जियों/वस्तुओं में संलिप्त दोषों के कारण उनसे पृथक्करण करना अनिवार्य बताया गया है। इन सभी नियमों की पालन भी हो रहा था। लेकिन सांस्कृतिक विस्थापन और नव संस्कृति के लिए लोगों में ग्रहण से कहीं अधिक सम्मोहन की स्थिति ने उसे दैनिक भोज्य और जीवन के नियमावली से अपने आप को शनैः-शनैः पृथक कर लिया। वर्तमान समय में भोजन केवल जीवन जीने के संसाधन के रूप में हो गया है। जहाँ अति दूषित और मन अनुरूप भोजन की परम्परा ने मनुष्य को संतुलन की अवस्था से इत्तर कर दिया है। ब्रम्ह मुहुर्त से दिनचर्या का प्रारंभ और भोजन के लिए निर्धारित समय के अवमानना कहीं ना कहीं मनुष्य के जीवन शैली में गंभीर परिवर्तन का उद्योतक है। इसके उदाहरण स्वरूप आप देखेंगे की पूर्व समय के मनुष्यों की तुलना में वर्तमान लोगों की औसत आयु घटने लगी है। कुपोषण, बेमेल भोजन संस्कृति और पर्यावरण के दोहन के कारण यह परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।
           भारतीय दर्शन में जहाँ भोजन की महत्त्व और उपयोगिता के संदर्भ में संत कबीर जी कहते हैं, 'साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए।' इस दोहे में अर्थ, भोजन और सामाजिक बंधुत्व का बोध मिलता है। ठीक ऐसे ही भोजन के करने के नियमों में पाश्चात्य संस्कृति के विपरित हमारी संस्कृति में जमीन में बैठकर हाथों से भोजन का नियम है। भोजन के ग्रहण करने के लिए हाथ का प्रयोग अनिवार्य है। वहीं भोजन करते समय की स्थिति यदि पारिवारिक समस्त सदस्यों के साथ सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में हो, तो भोजन अमृत है। क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है जैसे खाओगे अन्न, वैसा होगा मन। कहने की तात्पर्य है की भोजन के यदि प्रकृति असंतुलन की अवस्था या अशुद्धियों से लिप्त होगा, तो निश्चित ही आपके जीवन की दिनचर्या भी वैसी ही विषयुक्त होने की प्रबल संभावना निश्चित है।
        दूसरी ओर बढ़ते प्रदुषण के कारण कई विभिन्न कारक हैं जो जीवनकाल के क्षरण में सहायक है। लेकिन यदि हम ठान लें की हमारी आहार संस्कृति में पुरातन काल की भातिं निर्धारित नियमावली के अनुरूप जीवन यापन करें तो संभव है। शारीरिक क्षमताओं में सकारात्मक वृद्धि सुनिश्चित है। वर्तमान दौर में फास्ट फूड कल्चर में विदेशी भोज्य सामाग्री खासकर ऐसे जो कतई स्वास्थ्य वर्धक नहीं है। लेकिन नवीन शिशू पौध पीढ़ी के जुबान पर ये बेतरतीब स्वाद के पकवानों के नाम चाशनी की तरह चिपकने लगे हैं। जबकी स्वास्थ्य वर्धन में सहायक हमारे परम्परागत पकवानों की उपेक्षा भावी गंभीर परिणाम की ओर अग्रसर होंगे। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

रोजगार क्षेत्र के चयन के पूर्व आत्म आकलन जरूरी / Self-assessment is necessary before the selection of employment sector



                              (विचार


करियर या किसी भी व्यवसाय क्षेत्र के पेशे के रूप में चुनते समय युवावर्ग में पहली अनिवार्यता है स्वमेव आकलन करना है। सर्वप्रथम यह समझने कि कोशिश करना प्राथमिक शर्त है कि आपकी रुचि किस क्षेत्र में है। हालांकि केवल किसी विशेष क्षेत्र में रुचि रखना काफी नहीं है। इसके अलावा आपको यह भी देखना चाहिए कि क्या आप उस विशेष व्यवसाय के लिए अच्छी तरह अनुकूल हैं। वर्तमान समय में शिक्षा और कौशल उन्नयन के लिए उचित मार्गदर्शन के अभाव में युवा फौज पथभ्रम की स्थिति में आ जाती है। खाकर प्रारंभिक शिक्षा के पूर्ण होने के साथ-साथ युवावर्ग ऐसे संकाय का चयन करते हैं जिनका चयन उनके मित्रों ने भी किया हो। वास्तव में यह भीड़ बढ़ाने से ज्यादा कुछ विशेष नहीं है। जैसे साहित्य में रूचि रखने वाले छात्रों का विज्ञान विषय या वाणिज्यिक विषयों के चयन करना उतना ही अनर्थ है जितना मिट्टी के कच्चे घड़े में पानी भरकर संरक्षित रखने का प्रयास करना है। वास्तव में यह स्थिति अस्पष्टता और रोजगार के अवसरों की सुगमता से अपने मूल विचार, अभिवृत्ति और अभिव्यक्ति से समझौता करने के बराबर है। उदाहरणतः पैरामेडिकल के पदों की भर्ती के लगातार होते देखकर युवा सोचता है की वर्तमान में इससे बेहतर विकल्प नहीं है। वह उसी संकाय की पढ़ाई में लग जाता है। संभवतः उसकी पढ़ाई में तीन से चार वर्ष की अवधि निकल जाती है। अब यह स्थिति है कि उक्त पदों में भर्तियां कम होने को लगते हैं। चूंकि उसी बैच के दौरान कई विद्यार्थियों ने पैरामेडिकल के संकाय का चयन किया होता है। जिससे पदों की संख्या कम और अभ्यार्थियों की संख्या अधिक हो जाती है। परिणामस्वरूप रोजगार के संसाधन की अल्पता कहीं न कहीं बेरोजगारी को बढ़ा देती है। वहीं दूसरी स्थिति यह भी है कि जिन लोगों ने अनमने से उस संकाय में प्रवेश लिया था और रट्टू-तोता की स्थिति ने उन्हे रोजगार तो दिला दिया। लेकिन रुचि की कमी के कारण वे अपने सेवा क्षेत्र से न्याय नहीं कर पाते हैं। किसी संकाय विशेष की आलोचना नहीं अपितु वास्तविक स्थिति को उदाहरणार्थ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ। 
           करियर चयन किसी भी व्यक्ति के जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह किसी भी व्यक्ति के जीवनशैली का नेतृत्व करता है। जिससे समाज में उसकी स्थिति सुनिश्चित होती है। जहाँ हर कोई एक अच्छी जीवन के सपने देखता है वहीँ हर कोई मजबूत कैरियर बनाने में सक्षम नहीं होता जो अच्छी जीवन शैली को निर्धारित करता है। करियर आमतौर पर किसी व्यक्ति के जीवन के पेशेवर पहलू से जुड़ा होता है। करियर का चयन करना एक बड़ा निर्णय है और विडंबना यह है कि जब हमें ऐसे निर्णय लेने की आवश्यकता होती है तो हम इस तरह के बड़े निर्णय लेने के लिए तैयार नहीं होते। हम अभी हमारे स्कूली जीवन में हैं जहाँ हमें विज्ञान, वाणिज्य और मानविकी स्ट्रीम के बीच चयन करना पड़ता है जो मुख्य रूप से हमारे बाद के करियर के रास्ते को प्रभावित करता है। 
           बहरहाल, करियर की शुरुआत से पहले आपके अंदर का पोटेंशिअल जानना आवश्यक है। करियर के चयन के साथ-साथ अपनी अभिरुचि का ध्यान रखना आवश्यक है। अन्यथा सम टाइम आई लव माय जॉब, सम टाइम आई हेट माय जॉब के भारी डॉयलॉग चिपकाते देखे जा सकते हैं। किसी भी स्थिति में ऐसे पेशे का चयन उचित नहीं जिसमें आपका मन नहीं लगे। ऐसी स्थिति में ना तो आप अपने कैरियर के साथ न्याय कर सकते हैं और ना ही सेवा क्षेत्र में अपना बेस्ट दे सकते हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

विद्यार्थियों में विद्यालय-संस्कृति का विकास करना नैतिक जिम्मेदारी/ Moral responsibility to develop school culture among students


                              (चिंतन

डिजिटलाइजेशन से मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन विषय तब गंभीर हो जाता है। जब बेतरतीब इंटरनेट की पहुँच बच्चों के हाथों तक होती है। इंटरनेट, जहाँ सूचनाओं के विस्फोट के साथ-साथ वैश्विक रूप में मार्केटिंग के लिए विभिन्न प्रमोशनल विज्ञापन का दौर चल निकला है। ऐसे में मोबाइल या स्मार्टफोन से सीधे इंटरनेट से जुड़ने के कारण बच्चों के जिज्ञासु मन में कई नैतिक- अनैतिक विचारों को जन्म दिया हो, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है। कोविड-19 के दौर में लॉकडाउन-अनलॉक के धूप छाँव में कई बदलाव देखे गए। इस दौर में शिक्षा व्यवस्था के परम्परागत माध्यम यानी विद्यालय-संस्कृति से इतर, विद्यार्थियों को ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा देने की विवशता थी। अब विचारणीय है की जिन बच्चों के मनोपटल पर स्मार्टफ़ोन प्रेम अत्याधिक था, उनके लिए तो यह क्षण गौरान्वित करने वाला रहा ही, इसके साथ उनमें इंटरनेट के माध्यम से कई ऐसे भी संगतियों का सहारा मिला जो वर्चुअल होकर भी उनके लिए एक्चुअल हो गया।
           दो साल के पूर्ण विद्यालय-संस्कृति के स्थगन के पश्चात् पून: ये विद्यालय, महाविद्यालय परम्परागत तरीकों से लगने प्रारंभ हुए है। इस बीच दो वर्ष का समयांतराल रहा उस दौरान विद्यार्थियों के मन:पटल पर भारी परिवर्तन हुआ है। जो उनके अभिव्यक्ति और व्यवाहर कौशल पर भी दिखाई देता है। उदाहरणतः समझने का प्रयास करें तो जो छात्र कोविड-19 के दौर में कक्षा- दसम् में रहा वह दो साल तक लगातार आनलाइन शिक्षा, दीक्षा और परीक्षा के माध्यम से सीधे महाविद्यालय के दहलीज पर पहुँच गया है। एक ओर जहाँ आनलाइन परीक्षा के माध्यमों में बड़ा प्रश्न परीणाम और प्रश्नोत्तर के आनलाइन पर्चों के प्रवीणता पर संदिग्धता का लोप है। जो सीधे-सीधे कॉपीपेस्ट परम्परा की ओर इशारा करती है। वहीं दूसरी ओर केवल उत्तीर्ण करने के नाम पर बिना किसी साक्ष्य और समीक्षा के मिठाई की तरह अंकों का बटवारा कर दिया गया था। जो वर्तमान समय में चिंता का सबब है। कई संस्थान जहाँ उपस्थिति के लिए यदि कड़े प्रतिबंध नहीं लगाए गए हैं वहां बच्चों की संख्या उपस्थित शिक्षकों की संख्या की आधी भी है।
             यदि किसी विद्यार्थी के हित के लिए शिक्षक द्वारा अनिवार्य उपस्थिति की बात हो तो, छात्र ड्राप-आऊट की स्थिति में निपूर्णता दिखाते है। बहरहाल, चिंता का विषय है कि दो साल के समयावधि में निर्धारित विद्यालय-संस्कृति से दूर रहने वाले छात्रों का दोष नहीं है। वास्तव में इन बच्चों के मन:पटल पर बेतरतीब विचारों के आपतन ने आदतन उन्हें गैरजिम्मेदार बनने के मार्ग में चलने की ओर ढ़केल दिया है। जिस उम्र में उन्हें कल्चरल एक्टिविटी और सोशल नेचर सीखना था, उसी दौर में वे इंटरनेट के कामुक सामग्रियों के भँवर में फसकर, ऐसे अभिवृत्ति का प्रदर्शन कर रहा है। जो उसके लिए सुधारात्मक, उपचारात्मक या निर्देशात्मक व्यवाहर कौशल रखने वाले व्यक्तियों के प्रति संदेह और वैमनस्यता का बीजारोपण करने के लिए काफी है। हमारी संस्कृति जहाँ गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णू, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः यानी गुरु ही श्रेष्ठ है बताती है। ऐसे अद्वितीय और शिष्ट विचारधारा पर वर्तमान इंटरनेट-संस्कृति के युवा ब्रांड एम्बेसडर के हाथों अशुद्धिकर का प्रयास कहीं ना कहीं हो रहा है। जनवरी 2021 में शिक्षा के क्षेत्र में लगातार कार्यों के लिए मशहूर अज़ीम प्रेमजी विवि की तरफ़ से यह सर्वे करवाया गया है। हुआ यह सर्वे छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड के 44 ज़िलों के कुल 1,137 सरकारी स्कूलों के कक्षा 2 से कक्षा 6 तक के 16,067 छात्रों पर किया गया। यह सर्वे बताती है कि विद्यालय न खुलने से छात्र ना सिर्फ अपनी वर्तमान कक्षाओं के सबक को ठीक ढंग से नहीं सीख पा रहे हैं, बल्कि पूर्व कक्षाओं में जो सीखा था, उसे भी विस्मृत करने लगे हैं। यह सर्वे बताती है कि, 92 फिसदी बच्चे भाषा के मामले में कम-से-कम एक विशेष बुनियादी कौशल को भूल चुके हैं। कक्षा 2 के 92फिसदी , कक्षा 3 के 89 फिसदी, कक्षा 4 के फिसदी, कक्षा 5 के 95 फिसदी और कक्षा 6 के 93फिसदी छात्रों में यह कमी देखी गई है। इस सर्वे में भाषाई स्तर पर छात्रों के बोलने, पढ़ने, लिखने और उसे सुन या पढ़ कर स्मरण करने की क्षमता को भी जांचा गया। जो विद्यार्थियों में बुद्धि लब्धि के कमतर होने का प्रमाण देते हैं।
          बहरहाल, हम सभी यानी पालक, अभिभावक और शिक्षकों की नैतिक जिम्मेदारी है की ऐसे विद्यार्थियों को सर्वांगीण विकास और बुद्धिमत्ता में वृद्धि के लिए निरंतर प्रयास करेंगे। उपचारात्मक पहलों की आवश्यकता है जहाँ बच्चों को सीखाने, इंटरनेट की लत से बाहर निकाल कर परम्परागत विद्यालय-संस्कृति के गुर पुन: देने होंगे। तब जाकर हम आने वाली भावी पीढ़ी को बुद्धिमान और परिवेश के लिए सामन्जस्य बैठा पाने वाला कुशल सामाजिक प्राणी बना पायेंगे। 



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

परम शून्य या अनंत यात्रा पर्याय तो दोनो एक हैं/Absolute zero or infinite travel options are both the same


                   (चिंतन

शारीरिक लोलुपता को लोकप्रिय मानकर न जाने हम कितने भाव विभोर हो जाते हैं। कभी प्राप्ति, कभी प्राप्ति की प्रीति, तो कभी प्राप्ति के प्रति पार्श्व भागते श्वान की उत्कृष्ट भूमिका का निर्वाहन करने लगते हैं। जहाँ मोह, मद, लोभ, ईष्या और काम के पाँच जंजीरें हाथ, पैर और गले में ऐसे जकड़े हैं। जो हमें पूर्ण संसारिक होने का मिथ्या विश्वास दिलाता है। वास्तव में क्या कपोल-कल्पनाओं के पीछे विषयों के तलाश में जीवन व्यतीत करना संभव है। जबकी आत्मा की नश्वरता का सिद्धांत एक अलग ही क्षेत्र विशेष की ओर इंगित करता है। मनुष्य जीवन के अपरिभाषित मर्मों में से एक बड़ा मर्म यह है की हमें अभिनेता नहीं या अभिनय का पात्र नहीं बनना है। हमें मूलाधार उन चिंतनों की खोज करना है। जो अनंत की ओर लिए चलते हैं। 
                परमशून्य या अनंत की स्थिति को परिदृश्य के रंगों में इंगित करने का प्रयास करता हूँ। जहाँ नाशवान मूल्यों की अनुसूची नहीं अपितु अमरत्व के स्मारिका की अट्टालिका पर अपना नाम दर्ज करना है। सामान्यतः एक व्यक्ति विशेष का जीवन काल सांसारिकता के क्षोभ में पाने-खोने के बीच बराबर के समीकरण में चलता है। जहाँ वह नित्य अपने आप को अलंकृत महसूस करता है। लेकिन एक अंत के पश्चात् बर्फ की तरह हथेली से सबकुछ फिसल जाता है। लेकिन मानव या होमोसेपिंयस होना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है,यदि जीवन पशु के समान विषयों के मरीचिकाओं में मृगतृष्णा की तलाश करते गुजार रहे हैं तो।
            यदि प्रातः - निशा की छलनी से सिर्फ गुजरना है, तो यह निश्चित है की जीवन को केवल आप अपने कुछ के भीड़ के बीच लोकप्रियता को तलाश रहे हैं। यह लोकप्रिय एक समय के पश्चात गर्त की ओर भी बढ़ेगी। जैसे परम ताप पर कोई वस्तु वाष्प हो जाता है और विचारणीय है की वहीं वस्तु उसी परमताप पर जम भी जाता है। केवल परिदृश्यों के परिवर्तन की देर है। प्रश्न यह है की यदि शरीर नाशवान है तो अमरत्व का प्रतिनिधित्व कौन करता है? यदि अमरत्व ग्राही होना होतो कौन से प्रयोजन सिद्ध हस्त होंगे? दोनो प्रश्नों का उत्तर समान है। आत्म यदि अमरत्व ग्राही है तो उसके प्रतिमानों के प्रति सजग होना आवश्यक है। 
          जीवनकाल को इतना सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है की पूरा जीवन भावी, भूत और वर्तमान को नव-अलंकरण दे। यदि कोई आपके अतीत को स्मृत करे तो अनुभव मिले, वर्तमान में साथ जो चले तो गौरव हो, और भावी क्षणों में उदाहरण बने। संभवतः जीतने भी बार आप जीवन के चक्रों में शारीरिक परिदृश्य बदलेंगे, उतनी बार यही उद्देश्य आपको अमरत्व प्रदान करेगा। स्वरूप चाहे बदलतें रहेंगे। लक्ष्य और आत्म तो वहीं है और उद्देश्य भी वहीं है। बस हर बार प्राप्त करने वाले व्यक्तित्व का नाम परिवर्तित तो अवश्य ही होगा, लेकिन यह यात्रा अनंत और नितांत है। निर्बाधता के इस परम शून्य सफर में यदि आपके पग उठे तो निश्चित ही चलिए, आईये अनंत सागर में आपका स्वागत है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

मनुष्य जैसे सोचता है,प्रकृति उसे वैसे पुरस्कृत करती है / Nature rewards man as he thinks



                      (दर्शन


जीवन में उतार-चढ़ाव की स्थिति धूप-छाँव की तरह आते जाते रहते हैं। यह प्रक्रिया सतत् प्रकृति के सत्ता का सार्वभौमिक नियम भी इसी समरुप में चलते हैं। जैसे आदि के बाद अंत, और विनाश के पश्चात् नवांकुरण की प्रक्रिया स्वमेव प्रारंभ हो जाता है, जो की एक अनंत प्रक्रिया के पदचिह्नों के पीछे दौड़कर पूनर्रस्थापना के सिद्धांतों को संकल्पित करती है। जीवन के आदर्शक प्रारुपों में विभिन्न उदाहरण भी हुए हैं। जिन्होंने जीवन ऐसा जीया की वे मिशाल और आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्मदर्शी मशाल बन गए। विषय यदि सांसारिकता का है तो, विभिन्न विषयों से ग्रसित मनुष्य का जीवन का तुलनात्मक अध्ययन और उन विषयों के संदर्भ में अवश्य जानना आवश्यक है। जिनसे वह जुड़ा हुआ, रोज नित्य की मनो-मृत्यु को ग्राही हो रहा है। ज्ञातव्य है की यदि आप किसी अन्य व्यक्ति विशेष के इच्छाओं, प्रतिक्रियाओं और सिर्फ दिखाने या सराहना के लिए क्षुब्धता ग्राही है तो आप इस भवसागर में निश्चित ही कष्ट के भागी बनने रहेंगे। यहाँ कल्पना इस विषय का नहीं है कि कौन? क्या? किसका? कितना और कहाँ तक है? अपितु यह है की आप कितने सांसारिक हैं? 
           वर्तमान भौतिकता के भँवर में फसें मनुष्य के लिए सांसारिक सुख सर्वोच्च है। इसके जड़ में धन का संग्रहण मनुष्य को या तो कोल्हू के बैल बनने पर मजबूर कर देता है या मिथ्याचारी बना देता है। कुछेक तो दो चार कदम आगे बढ़ते दिखाई पड़ते हैं जिनमें पुरुषार्थ तो क्षीण लेकिन रक्त-पिपाशु की तरह लोटन किट या परजीवी चाटूकार अवश्य ही बना कर रख देता है। हम जीवन के लक्ष्यों से कहीं ज्यादा उपस्कर, गृह, रंग-रोगन, अलंकरण, अलंकार, श्रृंगार और मोह के जाल में ऐसे उलझे रहते हैं, मानों यही स्वर्ग है। ऐसे अशोभनीय गति को ग्राही होकर भी लोगों में अति उन्नति की स्थिति उत्साहवर्धक बनने के लिए प्रेरित करती है। बैर, वैमनस्य, कटूता,कुटिलता और षड्यंत्र के स्वरों में अपना हित देखने से संबंधों की पराकाष्ठा भी उस वक्त तार-तार हो जाती है। जब दो मनुज आप में सिर्फ इसलिए संघर्ष को जन्म दे देते हैं कि उस मंथन से सिर्फ धन लाभ होता दिखता है। संभवतः उस क्षण संबंधों की गरिमा, गहराई और विश्वनीयता जैसे अमूल्य पूंजी को धूमिल करने में तनिक विचार तर नहीं करते हैं। इस संघर्ष के पहले की पूर्वाग्रह ईष्या और कपट की भावना से ग्रस्त व्यक्तियों के बरगलाने की प्राथम्यता का प्रमाण है।
         वास्तविक में जीवन का लक्ष्य केवल आठ घंटे मेहनत या धनोपार्जन नहीं है। कभी हमें स्वयं से यह प्रश्न करना भी आवश्यक है की हमें, सिर्फ हमें ही इस प्रकृति ने बुद्धिजीवी क्यों बनाया है? जो अविश्वसनीय, अद्भुत और अकल्पनीय तर्कों को भी सिद्ध कर देता है। इतना जिज्ञासु क्यों बनाया है? जो कल्पना के सागर में खोकर भावी वास्तविकता के आधारशीला रखने के पढ़ाव की ओर चल निकलता है। प्रश्न यह भी है की इस प्रकृति के खूबसूरत उपहार यानी हममें प्राण की वायु का प्रवाह क्यों किया गया है? क्या सिर्फ धनार्जन, जो कि हमनें ही मौद्रिक संबंधों और विनिमय को लागू करने के लिए स्थिति किया है। उसके संकलन करने के लिए क्षुब्ध बनना क्या हमारा लक्ष्य हो सकता है? मेरा जवाब होगा नहीं, वास्तव में प्रकृति के रहस्य को समझना आवश्यक है। वास्तव मे प्रकृति ने जो नेमत हमें दी है वह है 'विचार'। प्रकृति का यह एक बड़ा रहस्य है। जैसे हम सोचते हैं, जो हम चाहते हैं। जैसे हमें बनना है, जो हमारी इच्छा है, हमने जो कल्पना किया है। वास्तव में प्रकृति उन समस्त विचारों को समझतीं है। वह अवसर भी प्रदान करती है, लेकिन सबसे बड़ी अप्राप्य होने का कारण हमारा विश्वास हैं। जितना हम प्रकृति के रहस्य को समझेंगे, जितना हम जीवन के लक्ष्यों के करीब पहुँचें। हमें मिलेगा अनंत प्रकृति पर विश्वास का नियम, जो हमें यह सीखलाती है की जीवन सिर्फ धन नहीं मनुष्य के कर्म को गर्त के बजाय श्रृंग के शीर्ष पर स्थापित करने को आशातीत है।
            अनंत प्रकृति पर विश्वास का नियम सिर्फ विचारों का आमंत्रण और विश्वसनीयता पर खरापन की तलाशती है। लेकिन प्रश्न यह उठता है की जीवन के किन लक्ष्यों के लिए अनंत प्रकृति पर विश्वास के नियम लागू होने चाहिए। प्रकृति तो अनंत है, जहाँ विचारों के, विकारों के और तो और विनाशों के समीकरण भी प्रासंगिक है। लेकिन हम जीवन के लक्ष्यों की संकल्पना गढ़ रहे हैं। जिसकी सीमा और समीक्षा दोनो आवश्यक है। जैसे जीवन के सांसारिकता से जूझते मनुष्य से मोक्षमर्मदर्शी तर्कों के संबंध में प्रतिक्रियात्मक यदि सलाह लें तो, ठूंठ ही प्राप्त होगा। वास्तव में जीवन का लक्ष्य सांसारिकता के इस रंगमंच पर उत्कृष्ट अभिनय के साथ-साथ एक उद्देश्यात्मक मील का पत्थर स्थापित करना आवश्यक है। जो आने वाली पीढ़ी के लिए उदाहरण बन सके। यदि आप इस भौतिक मोहपाश वाले सांसारिक परिदृश्य से बाहर निकल सकते हैं, तो उदासीनता के चरमोत्कर्ष पर निवासित होकर, अनंत शांति और अपार प्रकृति सृजनशीलता की शक्ति को प्राप्त कर लेंगे जो सिर्फ आपको इच्छाशक्ति के आधार पर सहायक पृष्ठभूमि तैयार कर देगी। बांकि आपके कर्म शेष कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है। यदि इस मर्म को समझ सकें तो चलिए चल निकलते हैं अन्यथा, सांसारिकता के भँवर में तो रोज मनुष्य मगरता है। यह मनुष्य ऐसा भी है जो पुष्प की लाशों पर ताजगी चाहता है। प्रासंगिक सत्य की सत्ता से परे, न जानें उलझा मनुष्य क्या चाहता है? 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

सरकारी तंत्र में विलुप्ति के कगार पर लाइब्रेरियन नामक जीव / A creature called librarian on the verge of extinction in the government system


                     (अभिव्यक्ति)

पारिस्थितिकी या इकोलॉजी शब्द का प्रथम प्रयोग जर्मन जीव वैज्ञानिक अर्नेस्ट हैकल ने सन् 1866 में अपनी पुस्तक 'जनरेल मोर्पोलॉजी देर ऑर्गैनिज़्मेन' में किया था। वहीं ब्रिटानिका पारिस्थितिक तंत्र को परिभाषित करते हुए कहती है, 'पारिस्थितिकी तंत्र ,जीवित जीवों का संरचनात्मक संबंध,उनका भौतिक वातावरण और विभिन्न घटकों के बीच एक विशेष इकाई में उनके सभी अंतर्संबंध हैं।' यानी एक पारिस्थितिक तंत्र में निहित समस्त कारकों की आवश्यकता महत्वपूर्ण और स्थान निश्चित होता है। बहरहाल, आपको प्राणीशास्त्र या वनस्पति शास्त्र के विस्तृत जाल में फसाने का मेरा उद्देश्य नहीं है। मेरा लक्ष्य है यह बताना की प्रत्येक तंत्र में हर स्तर पर जो जीवों की अवस्थिति निश्चित है, उसकी उपयोगिता, प्रासंगिकता और महत्ता पर प्रकाश डालने का प्रयास है।
             पुस्तकालय जो बौद्धिक और सामाजिक क्रियाओं की अभिवृद्धि का स्थल होता है। इस केन्द्र से पाठक के अनुभावों का ज्ञान, मानवीय रूप से बदलता है। एक पुस्ताकालय नवीनतम ज्ञान का खोज केन्द्र है। वास्तव में पुस्तकालय एक बौद्धिक प्रयोगशाला है, जहाँ हम अपनी बुद्धि के विकास हेतु सत्प्रयास करते हैं। वर्ष 2017 की नेशनल अचीवमेंट सर्वे रिपोर्ट कहती है कि, 'जो विद्यार्थी विद्यालय में पुस्तकालय का उपयोग करते हैं या जो कहानी की पुस्तकें पढ़ते हैं उनमें सीखने की क्षमता अधिक होती है।' कहने का तात्पर्य है की स्कूल शिक्षा में प्रारंभिक स्तर से ही पुस्तकालय का स्थान महत्त्वपूर्ण होते जाता है। यहीं से विद्यार्थियों में स्वाध्यायन की आदत को विकसित करने के लिए पुस्तकालय किसी बौद्धिक प्रयोगशाला से कम नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अनुसार विद्यालयों में पुस्तकालय खोलने पर विशेष जोर दिया गया है। और डिजिटल लाइब्रेरी को बढ़ावा देने की बात कही गई है। शिक्षा व्यवस्था में पुस्तकालय को किसी भी शिक्षण संस्थान का रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। यानी शिक्षा संस्थान की उत्कृष्टता का परिमाण पुस्तकालय के सर्वनिष्ठ संचालन पर निर्भर करता है।
            पुस्तकालय का महत्व तो हमने समझ लिया आईये अब पुस्तकालय के स्थापना और पेशेवरों के लिए तैयार होने वाले युवा फौज की बात करें। विद्यालयों एवं विभिन्न सूचना केन्द्रों में पुस्तकालय का सृजन एक बड़ा विषय है। कई भारत वर्ष के समस्त राज्यों में यह विडम्बना है की केन्द्रीयकृत स्कूलों के अलावे राजकीय बोर्ड से संचालित अधिकांश प्लस टू विद्यालयों में पुस्तकालय भवन की अवधारणा ही नहीं है। जहाँ पुस्तकालय और पुस्तकालयाध्यक्ष के पद सृजित है। वहाँ बरसो से इन पदों पर भर्ती नहीं हुआ है। 10-15 वर्ष पूर्व भर्तियों में चयनित पुस्तकालय या प्रतिनियुक्ति के आधार पर कुछ पद तो भर दिए गए, लेकिन स्वीकृत पदों और कार्यरत् कार्मिको के गणित को संभवतः सरकारी तंत्र के लिए कोई विशेष बात नहीं लेकिन लाइब्रेरी के लिए प्रोफेशनल तैयार करने वाले खासकर नीजी संस्थान इसी अंतर को बखुबी समझने लगे हैं। जब-जब लाइब्रेरियन भर्ती की हवा चलती है। तब-तब ऐसे संस्थान ऐसे पाठ्यक्रमों की शिक्षण शुल्क में वृद्धि कर देते है। ऐसे ही कई प्रोफेशनल तैयार तो हो रहे हैं, लेकिन भर्तियो के अभाव में इनकी प्रतिभा केवल दीवार पर शोभायमान है। जो बताती है फलाँ ने एमलिब भी किया है।
         ज्ञातव्य है की शिक्षा संस्थाओं के लिए या कहें शिक्षा के पारिस्थितिक तंत्र में पुस्तकालय का वातावरण और कुशल पेशेवरों की नितांत आवश्यकता है। ज्ञान के संवर्धन के साथ-साथ कुशल पेशेवरों की उपस्थिति सूचना विस्फोट की स्थिति को नियंत्रित और सुनियोजित करने के लिए आवश्यक है। लेकिन वर्तमान स्थिति में सरकारी स्कूलों में पुस्तकालय कार्मिकों, पेशेवरों की भर्ती का सूखा और कार्यरत पदों के गणित का गिरता ग्राफ चिंता का सबब है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

इंटरनेट के लत से निरंकुश होती युवा पीढ़ी / The young generation is despised by the addiction of the Internet



                      (अभिव्यक्ति)

वर्तमान दौर में प्रमोशन या प्रचार का असर इतना है की मिट्टी को भी सोना बना देने वाली आकाशीय पुष्प खिलाने का माद्दा मार्केटिंग के कुशल पेशेवर रखते हैं। वे प्रारंभिक तौर पर तो 4-पी यानी प्रॉडक्ट, प्राइस, पापुलेशन और प्रमोशन के समेकित फार्मूले पर कार्य करते हैं। जिसमें प्रॉडक्ट कैसा भी क्यों ना हो, प्रमोशन अगर दमदार है तो ब्रांड बन ही जाती है। प्रमोशन का नियम तो यह कहता है की पहले ग्राहक का ध्यान खींचों यानी "ऐसी वाणी बोलिये, की सब सम्मोहित होय। जो ना चाहे वो खरिदे, जो चाहे उसकी डिमांड दोगुनी होय।" इसी विचार धारा ने जन्म दिया बेमतलबी मगर लोगों को उत्सुक और आकर्षित करती टैग-लाइन के द्वारा प्रचार के समीकरण तो तेज किया जाये। इसके साथ नग्नता ओढ़ती मानवीय काया का सौन्दर्यबोध कराती आकर्षित या कहें नग्नता के घणी फ्लेवर से कस्टमर के ब्रेन वास करने की क्षमता दोगुनी हो जाती है। इसी स्ट्रेटजी ने मार्केटिंग को बाजारूपन की हदें पर कर दी है। 
            मार्केटिंग या प्रमोशन के लिए बेहतर विकल्प कौन-कौन से हैं? पहला जो आधारभूत हों, तो वह है टीवी, रेडियो एवं पारंपरिक प्रचार शैली, लेकिन एक और संसाधन है जहाँ प्रमोशन या प्रचार के लिए कोई रोक टोक नहीं है। चुकीं बाजार का मूड भी कहता है की आवाज वहीं तेज होनी चाहिए जहाँ भीड़ ज्यादा हो और बढ़ने की उम्मीद हो। बहरहाल, उस संसाधन का नाम है इंटरनेट, जहाँ तेजी से यूजर्स के आकड़ों में इजाफा दिनों दिन हो रहा है।
          राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 की रिपोर्ट बताती है कि, 'वर्ष 2022 के प्रारंभिक महिने यानी जनवरी में भारत में 626 मिलियन इंटरनेट यूजर्स दर्ज किए गए। कहने की तात्पर्य है की भारत की आबादी का कुल 47 फीसदी, यानी एक बड़ा हिस्सा मोबाइल में इंटरनेट यूज करता है।' इसके कारणों में से एक कारण  है कि, कोविड-19 के बाद से शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलाव के दौर में आनलाइन लर्निंग और इंटरनेट के माध्यम से शिक्षा की अनिवार्यता ने गरीब से गरीब पालकों, अभिभावकों को अपने बच्चों तक स्मार्टफोन की पहुँच बनानी ही पड़ी। कुछ तो पालक ऐसे भी रहे जिनके परिवार का मासिक खर्च के बराबर स्मार्टफोन की रेंज थी, लेकिन बच्चों के भविष्य के लिए आधा पेट काट कर बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन दे दिया गया। बच्चे, किशोर और युवा जो भावी कल के नागरिक बनेंगे अब उनके हाथ में बे-लगाम इंटरनेट पहुँच गया। और आनलाइन लर्निंग के बाद इंटरनेट गेमिंग,चैट,सोशलमीडिया से वाया होते हुए प्रमोशनल विडियो, लिंक्स और ग्राहक खींचों मानसिकता के लिए संमोहन के टैग लाइन इन्ही युवाओं तक पहुँचें। किशोर-युवावस्था वह अवस्था है जिज्ञासा तेज होती है। वह जानना चाहता है की आखिर उस पार क्या होगा। तो वो ऐसे विज्ञापनों के फेर में पड़ ही जाता है। चूंकि इंटरनेट में प्रचार की कोई बंदिशे नहीं है तो वह हर यूजर्स को वयस्क मानकर प्रचारक वस्तुएं प्रस्तुत करता है। यांत्रिकी को थोड़ी पता है की बच्चा या बड़ा कौन उसे एक्सेस कर रहा है। इसी परिपाटी के फलन इंटरनेट में अडल्ट कंटेंट के लिए मांग युवाओं में बढ़ने लगती है। अब भारत में पोर्नोग्राफी तो बैन हैं लेकिन आज के परिदृश्य में अंग-तरंग दृश्यों के लाग-लपेट में प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री जिसे सेंसर ए कैटेगरी देकर 18+ के समीकरण से देखती है। वो भी तो इन युवाओं के दिमाग से खेलने के लिए काफी है। ऐसा नहीं है की युवा पीढ़ी में किशोर या युवा नवयुवक ही इंटरनेट के लती हो रहे हैं। बल्कि चौकाने वाली बात है की किशोरी, और नव युवतियों में भी इंटरनेट की लत बढ़ रही है।
              लाइव मिंट डॉट कॉम की एक रिपोर्ट कहती है कि, 12 वर्ष से अधिक आयुवर्ग के एक्टिव इंटरनेट यूजर्स की संख्‍या अब 59.2 करोड़ हो गई है। वर्ष 2019 के मुकाबले इसमें 37 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ग्रामीण इलाकों में एक्टिव यूजर्स 45 फीसदी बढ़े हैं तो शहरों में यह तेजी 28 फीसदी रही है। पिछले दो वर्षों में महिला इंटरनेट यूजर्स की संख्‍या में जबरदस्‍त बढ़ोतरी हुई है तथा इस मामले में उन्‍होंने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया है। दो सालों में इंटरनेट यूज करने वाली महिलाओं की संख्‍या में 61 फीसदी का उछाल आया है, जबकि पुरुषों की संख्‍या इस अवधि में केवल 24 फीसदी बढ़ी है। यानी इटरनेट के गुलाम होती युवा पीढ़ी चिंता का सबब है। ये भीड़ ऐसी युवाओं की है जो हमारे कल की भावी पीढ़ी है। इंटरनेट की उपयोगिता तो अनिवार्य है। लेकिन इंटरनेट को लत नहीं जरूरत की तरह उपयोग किया जाये, तो यह बेहतरीन संसाधन है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

फ्रेंडशिप विथ बुक्स / Friendship with books



                   (अभिव्यक्ति


शफदर हासमी साहब की कविता 'किताबें करती हैं बातें' को याद करते हुए विषय की प्रासंगिकता को प्राथम्य देने का प्रयास करता हूँ। बचपन की यादों में किताबें करती हैं बाते बीते जमानों की हमनें अवश्य पढ़ा है। किताबों के परिचय के संदर्भ में यह कविता गागर में सागर की अनुभूति वाली है। पुस्तकें जो बुद्धिजीवी के लिए एक अच्छा मित्र है। इस दोस्ती का नींव कितने गहराई पर होना चाहिए यह आपके विश्वास और पढ़ने के लगन पर निर्भर करता है। प्रत्येक किताब की अलग कहानी होती है। किसी किताब में विज्ञान के अनुसंधान के अमर चित्र हो सकते हैं। किसी किताब में भावनाओं के सागर शब्दों के गागर में हो सकते हैं। किताबों के पठन की यात्रा का चयन आपका होना आवश्यक है। जैसे किसी कहानी में डुबना, पढ़ना और कल्पना करना कि उसके पात्र के चरित्र के अनुसार या तो कोई चेहरा बुनते हैं। या फिर किसी व्यक्ति विशेष के अभिव्यक्ति के आधार पर उस पात्र का चित्रांकन कर देते हैं।
          पुस्तक के कहानी से जुड़ाव की स्थिति आपको कल्पना के दुनिया में ले चलता है। बातें अगर इतिहास की हो तो, घटनाओं का सारा ताना बाना किताबों के पन्नों से निकल काल्पनिकता के उच्च श्रृंग तक हमारे मनःपटल के अंतर्मन में चलते रहता है। यदि बातें आधुनिकता, नुतन विचारों पर हो तो निश्चित ही आपको भावी दर्शक बनाने की फैंटसी देता है। जैसे हमनें भविष्य देख लिया हो। वास्तव में इन किताबों में लेखक का दृष्टिकोण होता है जैसे किताबों को हम पढ़ना प्रारंभ करते हैं। वैसे ही हमारा जुड़ाव लेखक के विचारों से होता है। यानी उसके विचारों की मित्रता हमारे विचारों से होती है। इस टकराव के दौरान हम इन दोनो विचारों से मिल जाते हैं। ये विचार बंधन जीतना ही बेजोड़ बनेगा। कहानी के प्रारंभ से लेकर अंतिम तक के सफर का रोमांच बना और बढ़ते रहेगा।
          किताबें उन ज्ञान का संचय ही जिनका उपभोग पाठक अपने पठन यात्रा के दौरान करता है। इस यात्रा के दौरान पूर्व या भावी घटनाओं के परिवर्तन के दौर में लेखक के अनुभवों/परिकल्पना का अनुसरण करते हुए जब बाहरी दुनिया में प्रासंगिकता का तलाश करते हैं। तो निश्चय ही कई उदाहरण जीवंत हो जाते हैं। सारांश में कहें तो पाठक पुस्तक के लेखक के विचारों से जुड़कर अनुभव रूपी व्याख्या को ज्ञानार्जन करता है। यही ज्ञानार्जन की भूमिका एक अच्छी मित्रता में बदल जाती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो भाग-दौड़ भरी जिंदगी में किताबें तनाव दूर करने में भी मददगार साबित होती हैं। - किताबों को पढ़ने से शब्द भंडार बढ़ता है। रोजाना किताब पढ़ने से लेखन भावना पैदा होती हैं और लेखन क्षमता भी बढ़ती है।
           वर्तमान के आपाधापी वाली जिंदगी में कुछ तो पाठक कमतर हुए हैं,लेकिन खत्म नहीं हुए हैं। नवीन युवा पीढ़ी के पौध को पठन कौशल के लिए अवश्य प्रेरित करना चाहिए। अक्सर ये युवा पौध बढ़ते डिजिटलीकरण के चकाचौंध में वर्चुअल दुनिया में खोकर वास्तविक मूल्यों से हाथ धो बैठ रहे हैं। आज के बच्चों को टचस्क्रीन वाली जींदगी ज्यादा प्यारी लग रही है। लेकिन रिडिंग हैबिट्स छूट रहा है। बहरहाल, समय के साथ-साथ पुस्तकों का भी अपडेट होना ते निश्चित है। पुस्तकें अब डिजिटल हो रही है, अब यही पुस्तकें अपने पाठकों से मित्रता के लिए आतुर है। सवाल यह है कि क्या आप पुस्तकों से दोस्ती करना चाहते हैं? 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

शानदार सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है हथकरघा उद्योग / Handloom industry is a symbol of glorious cultural heritage




                        (अभिव्यक्ति

सीखें मकड़ी के जाले से बुनना, कोसा के धागों को चुन-चुनकर, पेशे से नाम मिला फक्र से कहलाता हूँ मैं बुनकर..!!! कहलाता हूँ मैं बुनकर...!!! भारतवर्ष में वस्त्र बनाने की दीर्घ एवं सुद्रढ़ परम्परा रही है। बुनकरों के द्वारा कपड़ो में अपनी संस्कृति की छाप छोड़ने की निपुण कला होती है। भारतवर्ष में कई सदियों से वस्त्र निर्माण का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता आ रहा है। वस्त्रों के निर्माण के लिए भांति-भांति प्रकार की सामग्रियों और तकनीक का प्रयोग किया जाता है। भारतीय कपड़ा उद्योग क्षेत्र में दो प्रमुख आधार हथकरघा एवं पावरलूम रहे है। जिनकें द्वारा कपड़ो की बुनाई की जाती है।ऐसे पेशे में दिनरात जी तोड़ मेहनतकश कारीगरों को बुनकर की संज्ञा दी जाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता कार्यक्षेत्र हथकरघा है। जो आकड़ों के हिसाब से लगभग 23.77 लाख हथकरघों के साथ 43.31 लाख कारीगरों के हुजूम को रोजगार प्रदान करता है। देश में वस्त्र उत्पादन में इस क्षेत्र का लगभग 15 प्रतिशत योगदान है। इसके साथ ही देश की निर्यात आय में भी हथकरघा उद्योग का बड़ा योगदान है। विश्व का 95 प्रतिशत हाथ से बुना कपड़ा भारत में निर्मित होता है। जिसकी वैश्विक पटल पर मांग बहुत है।
              हथकरघा का कार्यक्षेत्र देश की शानदार सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है और जो देश में आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है। हथकरघा से जुड़े पेशेवरों में महिला सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि 70 प्रतिशत हथकरघा बुनकर और संबद्ध श्रमिक मातृशक्ति के प्रतिनिधित्व में हैं। गौरतलब है कि आजादी के पूर्व एवं स्वतंत्र भारत में इस उद्योग के विकास पर तत्कालीन सरकार द्वारा विशेष ध्यान दिया गया है। सन् 1940 में पहली बार भारत ने व्यवस्थित रूप से हथकरघा उद्योग के गठन कार्यप्रणाली एवं विविध पहलुओं पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया।  कुटीर यानी छोटे या घरेलू उद्योगों के कारीगरों को आर्थिक सुरक्षा व इस व्यवसाय में संगठित कर स्थायित्व देना प्राथमिक उद्देश्य था । उक्त कालावधि में भारत में विदेशी आय का मुख्य स्रोत कपड़ा व्यापार ही था। इस कारण विदेशीं मुद्रा के लिए हथकरघा उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना आवश्यक हो गया।
           समय के पहिए के साथ-साथ हथकरघा उद्योग में कई अमूलचूल परिवर्तन होते रहे और सरकार भी इस उद्योग को बढ़ाने के उद्देश्य से कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोगी की भूमिका में रही हैं। इसी तारतम्य में वर्ष 1980, 81 एवं 1985 की भारतीय वस्त्र नीति में भी हथकरघा उद्योग क्षेत्र को विशेष रूप से केन्द्रीयता प्रदान की गई। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय पार्लियामेंट द्वारा वर्ष 1985 में भारतीय हथकरघा अधिनियम (एक्ट) पारित किया गया। वर्तमान परिदृश्य में हैडलूम भारत की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभा कर आय के स्त्रोतों का प्रधान सेवा क्षेत्र बन गया है। कुछ साक्ष्यों के आधार पर देश के तकरीबन 70 लाख कर्मिकों व कारीगरों को इस क्षेत्र से प्रत्यक्ष रोजगार प्राप्त हो रहा है।
              ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था में हाथकरघा उद्योग का रोजगार एवं श्रम सृजन के दृष्टि से महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। हमारे छत्‍तीसगढ़ राज्‍य में यह उद्योग हाथकरघा बुनाई के परम्‍परागत धरोहर को अक्षुण बनाये रखने के साथ ही बुनकर समुदाय के समाजिक, सांस्‍कृतिक परंपराओं को प्रतिबिंबित करता है। यहाँ लगभग 54 हजार कारीगर हाथकरघा उद्योग में प्रत्‍यक्ष एवं अप्रत्‍यक्ष रूप से वैश्विक पटल पर अपनी कारीगरी का लोहा मनवाते हैं। रोजगा राज्‍य के बिलासपुर, रायगढ़ एवं चांपा- जांजगीर जिले के कोसा वस्त्र न केवल देश बल्कि विश्‍व बाजार में अपनी पहचान बनाये हुये है। छत्‍तीसगढ़ के कई जिले जैसे गरियाबंद, कोण्डागांव रायपुर, धमतरी,महासमुंद, बलौदाबाजार, , बालोद, मुंगेली, कांकेर, बिलासपुर, कवर्धा, कोरबा,अंबिकापुर, दुर्ग,बेमेतरा राजनांदगांव बस्‍तर में हाथकरघा सूती वस्‍त्रों की एक विशिष्‍ट परंपरा एवं पहचान है। ई-सेलिंग की सुविधा एवं आधुनिक संसाधनों के माध्यम से डिजिटल होते हथकरघा दुकानों के पहुँच वैश्विक पटल पर तेजी से हो रही है। हथकरघा से बने उत्पादों की अर्थव्यवस्था में बढ़ती मांग को देखते हुए। छत्‍तीसगढ़ राज्‍य में कई योजना जैसे- समग्र हाथकरघा विकास योजना, नवीन बुनाई प्रशिक्षण, कौशल उन्नयन प्रशिक्षण, नवीन डिजाईन विकास, उन्नत उपकरण सहायता, करघागृह सहायता, भवन जीर्णोधार सहायता, रिवाल्विंग फण्ड योजना, स्व. बिसाहूदास महंत पुरस्कार योजना, दीनदयाल सर्वश्रेष्ठ हाथकरघा बुनकर पुरस्कार, बाजार अध्ययन एवं हाथकरघा प्रदर्शनी सहित राजकीय स्तर पर कई योजनाओं का संचालन हो रहा है। जो नव बुनकर से लेकर वरिष्ठ बुनकरों को कौशल विकास, संवर्धन, संरक्षण, आर्थिक सहयोग सहित पुरुस्कृत करने का कार्य करती है। वहीं केन्द्र शासनाधिन प्रवर्तित योजनाओं में राष्ट्रीय हाथकरघा विकास योजना, बुनकर मुद्रा योजना, हाथकरघा बुनकर व्यापक कल्याण योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना भी सक्रिय हैं। जिनका लाभ बुनकरों तक पहुँच रहा है।
        बहरहाल, बुनकरों को उनकी कला एवं हुनर को पहचान तो अवश्य मिल रहा है। लेकिन कम दैनिक आय और बढ़ती महंगाई इनके चिंता का सबब है। योजनाओं के रोड मैंप तो बेहतरीन हैं लेकिन भोले भाले ये बुनकरी के पेशेवरों को लाभ शत्- प्रतिशत पहुँच इसकी नैतिक जिम्मेदारी इन योजनाओं में संलिप्त आधिकारियों और कर्मचारियों की है। क्योंकि बुनकरों को अपने कारीगरी के अलावे योजनाओं से जुड़े बारीकियों से अनभिज्ञता भी, वास्तविकता के धरातल के नींव को कमजोर और खोखल कह देता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्‍तीसगढ़

कहानी के पीछे वास्तविकता की तलाश / Seeking the Reality Behind the Story


                         (मंथन


जीवन के विभिन्न पहलु, काल एवं प्रत्येक क्षण में कोई ना काई नव स्मृति सृजित होती है। यह स्मृति यदि रोचक हो तो तर्क और यदि अनुभवात्मक हो तो अनुभव-सार के रूप में संकलित होता है। इन अनुभवों को कहने के तरिके में यदि रोचकता हो या गद्यकाव्य के माध्यम से सृजन हो, तो यह अनुभव कहानी हो सकती है। समय के प्रत्येक काल में कहानियों के इर्दगिर्द कई परिदृश्य खींचे जाते हैं। 
मुंशी प्रेमचन्द जी कहानी को परिभाषा के परिधि में गढ़ते हुए कहते है-, ‘‘गल्प (कहानी) एक ऐसी गद्य रचना है, जो किसी एक अंग या मनोभाव को प्रदर्शित करती है । कहानी के विभिन्न चरित्र, कहानी की शैली और कथानक उसी एक मनोभाव को पुष्ट करते हैं । यह रमणीय उद्यान न होकर, सुगन्धित फूलों से युक्त एक गमला है।’’
              सारांश में कहें तो अतीत के अनुभवों में कहानियों के पीछे अनुभवात्मक तर्क एवं वैज्ञानिकता का बोध होना आवश्यक है। किसी कहानी का प्रारंभ सुख से होकर विभिन्न पहलुओं और चक्रों के बीच गुजरते जाते हैं एवं अंत में सुखांत या दुखांत के सागर में मिल जाते हैं। इसी प्रकार के उदाहरणों में विशाल वृक्ष के शाखाओं के टकराव की कहानी जिसमे इतिहास रचा दिया। संभवतः हर कहानी के पीछे एक जीवंत क्षण जरूर रहता है। जिसे कहने के तरीकों से अलग अलग प्रकार से कहा जा सकता है। कभी तर्कसंगत, कभी विरोधाभास, कभी समर्थन या कभी केवल उपेक्षा के माध्यम से कहानी में कई पात्र गढ़े जाते हैं। ये पूर्णतः काल्पनिक तो हो सकते हैं। लेकिन इनका रवैय्या सृजनकार के परिवेश में से जन्मता है। उद्देश्य केवल सीमांत रहता है जो कहानी के कई पड़ावों, कई उतार-चढ़ाव के समाहित करे पाठक, दर्शक या श्रोता के मन में शनैः-शनैः परिणामस्वरूप प्रदर्शित होता है।
              जैसे गीता के इस श्लोकानुसार, 'पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥' जहाँ युद्ध स्थल पर सैन्य निरिक्षण के दौर में तृतीय श्लोक अपनो के शक्ति और बल को संकलित कर उन्हे वृहदाकार के व्यूहों के संदर्भ में तर्क दिये गए हैं। वस्तुतः यह युद्ध वैश्विक स्वरूप में बेहद विशाल रहा है। लेकिन यही युद्ध कोई भाषाओं, क्षेत्रों और राज्यों के लिए पहले उदाहरण, फिर अनुभव, फिर कहानियों और किवदंतियों के रूप में कहीं न कहीं संकलित रहा है। ऐसे ही कई कहानियाँ जो गढ़े गए, वे इतिहास के पन्नों का वास्तविक रहस्य भी है। जो समय के साथ, कहने वाले के कथनों में चलकर काल्पनिकता के चादर ओढ़ गया। लेकिन वास्तव में कहानी सिर्फ कल्पना के सागर का निचोड़ नहीं है। यह धरातलीय अतीत के गौरव का, अनुभव का एक सर्वनिष्ठ उदाहरण है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

मां का पहला दूध शिशु के इम्यूनिटी और आंत के सुरक्षा के लिए आवश्यक / Mother's first milk is essential for baby's immunity and gut protection


                        (अभिव्यक्ति

हमारी भारतीय संस्कृति में कुछ ग्रंथों के अनुसार मां शब्द की उत्पत्ति गोवंश से हुई। गाय का बच्चा बछड़ा जब जन्म लेता है, तो वह सर्वप्रथम अपने रंभानें में जो स्वर निकालता है वह मां होता है। तात्पर्य यह है कि बछड़ा अपनी जन्मदात्री को ही मां के नाम से पुकारता है। इस प्रकार जन्म देने वाली को मां कहकर पुकारा जाने लगा। शिशु के जन्म के प्रारंभिक स्थिति से जन्म तक शिशु का पालन मां करती है। इस पृथ्वी पर जीवन का नवांकुरण के लिए माँ ही वह माध्यम है। जिससे पृथ्वी पर जीवन आधारित है। इस धरा पर समस्त जीवों में समरूप संततियों के संवर्धन और विकास की शक्ति मां है। जन्म के समय माँ का पहला दूध शिशु के लिए अमृत है। जिसे सुपरफुड की संज्ञा भी दी जा सकती है। शिशु के लिए प्रारंभिक अवस्था में स्तनपान बहुत महत्वपूर्ण होता है।यह उसके संरक्षण और संवर्धन का काम करता है। शारीरिक विकास के साथ-साथ रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति नवजात बच्चे में नहीं होती है। यह शक्ति माँ के दूध से शिशु को सुरक्षा कवच की भांति प्राप्त होती है। माता के दूध में लेक्टोफोर्मिन नामक तत्त्व होता है। यह बच्चे की आंत में लौह तत्त्व को पृथक करने या रोकने में सक्षम बनाता है। जो लौह तत्त्व के अभाव में शिशु की आंत में रोगाणु उत्पन्न की अवस्था से रहित करने में उत्तरदायी है। माँ के दूध से आए साधारण जीवाणु बच्चे की आंत में पनपते हैं और रोगाणुओं से प्रतिस्पर्धा कर उन्हें बढ़ने से रोकते और नष्ट करने में सहायक होते हैं। माता के आंत में वातावरण से पहुँचे रोगाणु, आंत में स्थित विशेष भाग के संपर्क में आते हैं, जो उन रोगाणु-विशेष के ख़िलाफ़ प्रतिरोधात्मक तत्त्व बनाते हैं। ये तत्त्व एक विशेष नलिका थोरासिक डक्ट से सीधे माँ के स्तन के जरिये बच्चे के शरीर में पहुँचते हैं। शिशु इस तरह माँ का दूध पीकर सदा स्वस्थ रहता है। माँ का दूध जिन बच्चों को बचपन में पर्याप्त रूप से पीने को नहीं मिलता, उनमें बचपन में शुरू होने वाली मधुमेह की बीमारी का खतरा अधिक बना रहता है। ऐसे बच्चों में बुद्धि का विकास दूध पीने वाले बच्चों की अपेक्षाकृत कमतर होती है। अगर बच्चा समय से पूर्व जन्मा (प्रीमेच्योर) हो, तो उसे बड़ी आंत का घातक रोग, नेक्रोटाइजिंग एंटोरोकोलाइटिस हो सकता है। अगर गाय का दूध पीतल के बर्तन में उबाल कर दिया गया हो, तो उसे लीवर (यकृत) का रोग इंडियन चाइल्डहुड सिरोसिस हो सकता है। इसलिए माँ का दूध छह-आठ महीने तक बच्चे के लिए श्रेष्ठ ही नहीं, जीवन रक्षक भी होता है।
           स्तनपान की महत्त्व को देखते हुए विश्व स्तनपान सप्ताह पहली बार 1992 में डब्ल्यू ए बी ए द्वारा मनाया गया था। जिसे  यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन और 120 राष्ट्रों के सरकारों सहित उनके सहयोगियों द्वारा मनाया जाता है। वैश्विक स्तनपान संस्कृति को फिर से स्थापित करने और हर जगह स्तनपान के लिए सहायता प्रदान करने के लक्ष्य के साथ किया गया है। इस वर्ष डब्ल्यू बी डब्ल्यू की थीम 'स्तनपान के लिए कदम: शिक्षा और समर्थन' रखा गया है। स्तनपान के लिए सुरक्षा उपाय बनाने के लिए संगठनों और राष्ट्रों से आग्रह करके, यह विषय स्तनपान जागरूकता बढ़ाने की उम्मीद करता है।
               जन्म के समय, मां का पहला दूध इम्यूनिटी और आंत को सुरक्षा प्रदान करता है। मां के दूध से बच्चे को 6 सप्ताह बाद एंटीबॉडी मिलती है। वहीं 3 माह बाद: कैलोरी बहुत बढ़ जाती है जो बच्चे के विकासशील अवस्था के लिए आवश्यक है। दूध में ओमेगा एसिड बढ़ जाता है और एक वर्ष बाद कैलोरी और ओमेगा एसिड का लेवल ज्यादा होता है, जो मांसपेशियों और दिमाग के विकास में सहायता करते हैं। वर्तमान दौर में असंतुलित भोजन और अनियमित कार्यशैली के कारण मां के दुध में कमी भी चिंता का सबब है। इस संदर्भ में स्वास्थ्य सेवाओं के कुशल पेशेवरों के द्वारा लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं मां के दूध के महत्व को देखते हुए भारत में मौजूद 'मदर मिल्क बैंक ऐसे बीमार और कमजोर बच्चों की मदद कर रहे हैं। जिनकी माताओं का अपने बच्चे के लिए पर्याप्त मात्रा में दूध नहीं बन पाता है, जो बच्चे बीमार हैं या फिर जिन्हें दूध नहीं मिलता है। क्योंकि ये स्वास्थ्य बच्चे ही कल के सबल युवा पीढ़ी का निर्माण करने में सक्षम होगें। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

बचपन के खेल, जो गांव के गलियारों में छूट गए! / Childhood games left in the corridors of the village!



                           (विचार
मोबाइल के स्मार्ट बनने के पूर्व का एक दौर अलग ही रहा है। इस दौर में गांव, शहर की गलियों में बचपने का शोर स्कूल की छुट्टी के घंटी के साथ दौड़ता घर पहुचता और बस्ता रखते ही कपड़े बदल कर भागते गलियों में बचपन पलता, बढ़ता और खिलखिलाता दिखाई पड़ता था। जब तक इन बच्चों को मां डाटती घर नहीं ले जाती खो-खो, कबड्डी, रेस-टिप, नदि-पहाड़ गिल्ली डंडा और न जाने कई खेलों में मसलुफ होकर बचपन किशोरावस्था की ओर शनैः-शनैः बढ़ता था। शायद इन्ही गलियों में पले-बढ़े गीतकार सुदर्शन फकीर ने बचपने को याद करते लिखा, 'वो कागज़ की कश्ती...! वो बारिश का पानी... लौटा दो मुझे मेरे बचपन का सावन...! वो बारिश का पानी...!!'
        बचपन को परिभाषा के परिधि में बाँधते हुए ब्लेयर जॉन्स एवं सिंपसन कहते हैं कि, “बाल्यावस्था वह समय है,जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोण व मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है।” यानी बचपन का जीवनकाल के सीखने का दौर है जहाँ बच्चा अपने इर्दगिर्द के परिवेश के संदर्भ में समझता है। दुनियाँ की समझ के परिप्रेक्ष्य में स्ट्रेंग कहते है कि “बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है और उसके बारे में जल्दी से जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।” बाल्यकाल के दौर में बच्चों में जानने की ललक तेज रहता है। वह बौद्धिक, शारीरिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में सीखता, समझता और आत्मसात करते आगे बढ़ता है। इस दौर में खेलों की प्रासंगिक उद्देश्यों पर विचार करें तो, खेल बच्चों में तीव्रता से फैसले लेने, सामाजिक बंधुत्व और अपने परिवेश से प्रेम करना सीखता है।
         भारतवर्ष में खेलों के इतिहास का पता वैदिक युग से लगाया जा सकता है। रामायण और महाभारत के युग के दौरान, लगभग 1900 ई.पू. से -7000  ई.पू. तीरंदाजी, घुड़सवारी, कुश्ती, भारोत्तोलन, तैराकी और शिकार जैसे खेलों में प्रतिष्ठा और सम्मान के पुरुषों के प्रतिस्पर्धी होने की उम्मीद थी। ऐसे ही खेलों के संदर्भ में बाल्यकाल में विभिन्न छोटी-छोटी प्रतिस्पर्धा का चलन ग्रामीण क्षेत्रों में खेल के रूप में उभरा है। लेकिन वर्तमान दौर में स्मार्टफ़ोन के टचस्क्रीन के आगे ऑनलाइन गेमिंग में आँखें गड़ाए बच्चों की स्थिति उन्हें विद्वान तो नहीं लेकिन मनोरोगी बनाने के लिए अवश्य प्रेरण करने को आमादा है। शहर से लेकर गांवों तक स्मार्टफोन के पहुँच ने बच्चों के बचपन छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। बच्चा, जो खेल-खेल में अपने परिवेश के बच्चों से मिलता, मित्रता करता, खेलता था। जिससे उस परिवेश के लोगों में आपसी बंधुत्व की भावना का जागरण होता था। यह कड़ी कहीं न कहीं टूट गई है। वह सांस्कृतिक, सामाजिक और खेल भावना से पृथक यांत्रिक आभासी दुनियाँ को अपना सर्वस्व मान लेता है। जो उसमें सामाजिक पृष्ठभूमि पर यानी वास्तविक धरातल पर लोगों के बीच सहचरित संबंधों के स्थापना के लिए शून्यता मानसिक की ओर ढ़केल दिया है। वह अपने अंदर अन्य लोगों से, अपने हम उम्र बच्चों के साथ मिलने पर असहजता को प्रदर्शित करता है।
              खेल जिसे हम अति सामान्य पर्याय के उन उन गतिविधियों को भी कर सकते हैं। जहाँ पर प्रतियोगिता की शारीरिक क्षमता खेल के परिणाम को एकमात्र अथवा प्राथमिक निर्धारित होता है। लेकिन शब्दों दिमाग खेल, बोर्ड खेलो सामान्य नाम, जिनमें भाग्य के तत्व बहुत थोड़ा या नहीं के बराबर होता है। खेल की महत्त्व के संदर्भ में यदि मनोवैज्ञानिक परिदृश्य को समझने का प्रयास करें तो, खेल उन सिद्धांतों और दिशानिर्देशों की पहचान करते हैं।  जिनका उपयोग पेशेवर वयस्कों और बच्चों को टीम और व्यक्तिगत वातावरण दोनों में खेल और व्यायाम गतिविधियों में भाग लेने और लाभ उठाने में मदद करने के लिए कर सकते हैं। यह समझने के लिए कि मनोवैज्ञानिक कारक किसी व्यक्ति के शारीरिक प्रदर्शन को कैसे प्रभावित करते हैं और यह समझने के लिए कि खेल और व्यायाम में भागीदारी किसी व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक विकास, स्वास्थ्य और कल्याण को कैसे प्रभावित करती है। खेल मनोविज्ञान भावनाओं को प्रबंधित करके और चोट और खराब प्रदर्शन के मनोवैज्ञानिक प्रभावों को कम करके प्रदर्शन बढ़ाने से संबंधित है। यानी खेल भावना जहाँ सामाजिक बंधुत्व को बढ़ाती है वहीं खेल में हार-जीत के लिए संघर्ष की स्थिति बच्चों में प्रतिकूल समय में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ बनाने में सहायक है।
           सार में कहने का प्रयास करें तो, खेल संज्ञानात्मक विकास को आगे बढ़ाता है। खेल के नियमों को पालनकर्ता की सुनिश्चितता बच्चों में व्यक्तित्व निर्माण की भूमिका में सहायक है। वहीं खेल कल्पनाशीलता और सृजनात्मक को बढ़ावा देता है। खेल शारीरिक और क्रियात्मक विकास को बढ़ावा देता है। खेल भाषायी विकास में सहायक होता है।खेल द्वारा बच्चे सामाजिक होना सीखते हैं। खेल भावात्मक विकास में सहायक होता है। लेकिन वर्तमान में भौतिक खेलों के बजाय बचपन टचस्क्रीन के भवँर में फसकर मनोव्याधियों को ग्राही हो रहा है। वर्तमान नवीन बच्चों की फौज मोबाइल के अनुप्रयोगों में व्यस्त होकर सामाजिक होना भूल चुके हैं। वे स्मार्टफ़ोन और ऑनलाइन गेम्स के मायाजाल में ऐसे फसे हैं कि पारंपरिक खेलों का दौर अब विलुप्ति के कगार पर है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

संस्कृतेन अस्मान् सभ्यम् अकरोत् वयं संस्कृतं विस्मृतवन्तः / Sanskrit made us civilized and we forgot Sanskrit


                      (अभिव्यक्ति

प्राथम्य शब्दों में संस्कृत में वाक्यांशों का तात्पर्य है संस्कृत ने हमें सभ्य बनाया और हम ही संस्कृत को भूल गए। भाषा के संदर्भ में स्त्रुत्वा कहते हैं कि, 'भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तन्त्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं सम्पर्क करते हैं।' यानी भाषा की वैज्ञानिकता का आधार भाषा के वर्णों, अक्षरों और उसके उच्चारण के संधारित्र करके समाहित भाषा को उत्कृष्ट भाषा कहा जा सकता है। ठीक इसी संदर्भ में भाषा से संस्कृति को,सांस्कृतिक परिदृश्य को जोड़ती इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका स्त्रुत्वा जी की बात को अद्यतन करते कहती है कि, 'भाषा को यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तन्त्र है जिसके द्वारा मानव प्राणि एक सामाजिक समूह के सदस्य और सांस्कृतिक साझीदार के रूप में एक सामाजिक समूह के सदस्य संपर्क एवं सम्प्रेषण करते हैं।' यानी किसी भी भाषा के जन्म में उस क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक परिदृश्य का लेपन प्रदर्शित होता है। सारांश में कहें तो भाषा में प्रासंगिक होने वाले शब्द और उन शब्दों का अर्थ एवं उच्चारण यदि समान हो, तो वह भाषा वैज्ञानिक है। और इस वैज्ञानिक भाषा को तीव्रता से सीख एवं समझ सकते है। भाषा के संदर्भ में डॉ. शयामसुन्दरदास कहते हैं कि, 'मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुअों के विषय अपनी इच्छा और मति का आदान प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतो का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है।' वहीं डॉ बाबुराम सक्सेना कहते है कि, 'जिन ध्वनि-चिंहों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-बिनिमय करता है उसको समष्टि रूप से भाषा कहते है।'
             भाषा विकास के संदर्भ में विश्व के प्रमुख राष्ट्रों के तमाम विश्विद्यालय एवं शिक्षण संस्थानों के द्वारा किए गए शोध संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा बताते हैं। यह माना जाता है कि दुनिया की सभी भाषाओं की जननी कहीं-ना-कहीं संस्कृत है। संस्कृत भाषा ईसा से 5000 साल पहले से बोली जाती है।संस्कृत भाषा का मूल तमिल को माना गया है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा है। जो भाषा शैली के हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा है। आधुनिक कई भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, बांग्ला, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गए हैं।
           संस्कृत के विकास और विरासत के संदर्भ में प्राप्त तर्कसंगत विचारों के आधार पर विद्वानों ने संस्कृत साहित्य के इतिहास को दो भागों में बांटा है। 3500 ई. पूर्व से 500 ई. पूर्व का समय तो वैदिक संस्कृत काल के लिए और बाद का लौकिक संस्कृत काल के लिए निर्धारित करते हैं। पाणिनि को संस्कृत के जनक कहा जाता है। जिन्होंने संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में अपना अतुलनीय योगदान दिया है। पाणिनि के द्वारा लिखे गए व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है। जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत के प्रसार, संचार और व्यावहारिक शैली में प्रयोग के साथ लेखन कौशल में मानक स्तर को लब्धि होती है।
             संस्कृत जो संस्कृति के परिचायक है। जिसमें जैसा कहते है, जैसा है और जो मूल अर्थ है। संस्कृत के वैभवशाली गौरव के संचित इस भारत की भूमि पर इस भाषा के प्रयोग करने वालों की संख्या में कमी हो रही है। लेकिन इस भाषा की वैज्ञानिकता और लचीलेपन के कारण इसका प्रयोग विदेशों में विद्वानों के द्वारा सीखा और प्रासंगिक किया जा रहा है। अपने देश में संस्कृत भाषा उपेक्षा की शिकार हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर कई देश इसे सीखने में ललकशील हैं। अपनी जड़ों को तलाश रहे इरान-इराक जैसे पश्चिमी एशियाई देशों और संस्कृत साहित्य में छिपे रहस्यों को समझने को आतुर यूरोपियन देशों में भी संस्कृत सीखने की ललक बढ़ी है। इन मुल्कों से संस्कृत के विद्वानों की मांग लगातार बढ़ी है। संस्कृत विश्व की एक मात्र भाषा है जो व्यक्तित्व के दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है। इस देववाणी का संरक्षण हमारा कर्तव्य होना चाहिए। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

मृगतृष्णा के वशीभूत मनुष्य के बिगड़ते संबंधों का आकलन / Assessment of the deteriorating relationship of a man subjected to a mirage




                           (विचार


सांसारिक वस्तु, विषयों के मोह को लेकर भूत, वर्त और भावी समय के हर चक्र में एक अपरिभाषित द्वंद्व का प्रदर्शन होता है। मनुष्य केवल सुख की कामनाओं के प्राप्ति के लिए जाने कितने प्रयोजन करते रहता है। कभी इन विषयों के मोहपाश में बंधक समरुप होकर तमाम वे क्रियाएँ करता है। जो संभवतः न्यायोचित नहीं होता है। कभी मोह का इतना उच्च श्रृंग पर होता है की मनुष्य भूल जाता है की क्या गलत है और क्या सही है! निश्चय ही इस मतिभ्रम की स्थिति में गलत को भी सही कहने के पर्याय में तर्क देते रहता है।
          कभी मोह इतना की घर्षण की स्थिति का निर्माण होते जाता हैं। कभी यह संघर्ष दो पक्षों के लिए आर-पार की लड़ाई के संदर्भ को जन्म देते हैं। इन्हीं स्थितियों में यह निर्मित स्थिति रार के कारकों का प्रबल कारक होते हैं। संघर्ष के पूर्व कई व्यूहों की रचना होती है। जहाँ अपने अपने सबल पक्षों और दूर्बलताओं के पक्षों का आकलन किया जाता है। यह भी सुनिश्चित किया जाता है की अंतिम परिणाम में विजयश्री स्वमेव हो। संबंधों के बीच खींची मोह के अवरण की रेखा कहीं ना कहीं विभिषिका को जन्म देती है। लगता है। जैसे यह आपतित युद्ध अपने समापन के पूर्व स्थगन के साम्य प्रस्तावों पर विचार नहीं करेगा, अपितु सब कुछ लील जाने की स्थिति की ओर आमादा होता है।
            वर्तमान भी अतित के उदाहरणों को पूनर्स्थापित करने के मार्ग पर ललायित होकर दौड़ निकला है। पुरातन काल में जहाँ संघर्षों की स्थिति का जनक आपसी मतभेद, विचारों के टकराव और छल रहे हैं। जिनका सारांश केवल और केवल मोह था। जहाँ लोभ, मोह, काम, मद के कारण वैमनष्यता चरम को ग्राही होकर सर्वस्व टूटने की स्थिति में बल प्रेरण करती गई है। 
         वर्तमान के दौर में संभवतः हमने पूर्व के उदाहरणों से सीख नहीं लिया अपितु वैभवशाली मरीचिकाओं में मृगतृष्णा की तलाश में आपसी मतभेदों को जन्म देते हैं। इन्ही मतभेदों के मद्देनजर संबंधों के बीच दीवार इतना बड़ा हो जाता है की तनातनी के स्थिति में शब्दों के गरिमा और रिश्तों के मायने शून्य हो जाते हैं। इस दौर में एक और संबंधों पर आधारित  एक व्यर्थक रार की संगम स्थली निर्मित हो जाता है। 
     


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

संघर्ष से पहले पूर्वाग्रहों के अंतर्द्वंद का समीकरण / Equation of the Conflict of Prejudices Before the Conflict


                       (चिंतन


जब भी दो भिन्न विचारधाराओं के मेघ आपस में टकराते हैं तो, निश्चय ही इसके दो पहलू हो सकते हैं। पहला जो विवश होकर सत्य-असत्य के इस संघर्ष में विजय केवल सत्य के मार्ग के लिए चयन करता है। जैसे युद्ध में निर्मित स्थितियों में विजय के लिए साम, दाम, दंड, भेद सभी का सहारा लिया जाता है। ठीक उस युद्ध के पूर्व एक शीतयुद्ध मन के अंतर्द्वंद में चलते रहता है। ऐसा भी नहीं है की सिर्फ दो व्यक्तियों,वर्गों, समूहों, क्षेत्रों या समुदाय के युद्ध का अवलोकन केवल दो पक्ष ही करते हैं। अपितु यह स्थिति है कि ये दोनो लोगों के बीच तो तनावपूर्ण होते हैं। लेकिन परिमाण कई फलकों पर देने वाले होते हैं। 
          स्वजनों को अपने लोगों की चिंता और चिताओं के बोझ को ढ़ोने का भय और संघर्ष के पूर्व अपने लोगों के चौबंद सुरक्षा की भावना का कभी सुनिश्चित करती है तो, कभी कचोटती रहती है। लेकिन भय का संसार तो परसरते रहता हैं। ऐसा भी नहीं है की सम्पूर्ण संघर्ष से केवल दो परिवर्तन जन्में की एक विजय दूसरा पराजय अपितु इसके कई प्रासंगिक परिणाम और परिवर्तन सामरिक व्यवस्था को उत्थल- पूथल करने का आमादा रखता है।
                लेकिन विचार करें की युद्ध के पूर्व की क्या वह परिस्थितियां है जो दो पक्षों को टकराव के मुहाने पर ला पटकती है। वास्तव में इस तर्क का यदि हम पीछा करें तो प्राप्त होता है कि ईष्या और कपट एवं स्व-वैभव की परिकल्पना के इर्दगिर्द बनाई गई स्वयं के लिए उत्कृष्ट और दूसरे के हिस्से के लिए कमतर सुख की कल्पना है। यही वैमनस्य भाव न जाने कितने द्वेषों, संघर्षों को जन्म दे। इन्ही संघर्षों के फलन वृहद परिवर्तन लक्षित होते हैं। एक जो अपने स्वार्थपन के लिए, तो दूसरा सत्य के सत्यापन के लिए इस भिडंत के लिए सुसज्जित होता है।
              इन परिस्थितियों को टालने, संघर्षों के पतन के लिए प्रयास तो कई होते हैं। लेकिन कई ऐसे भी विद्वानों का मत और अपने अपने मनोरथ को साध्य करने के लिए ये संघर्ष वृहदाकार होते जाता है। संघर्ष के पूर्व पूर्वाग्रहों के समीकरण, समीक्षा और सटिक विश्लेषण करते हुए। चिंतनशील वरिष्ठों के मन में भी परीणाम को लेकर हलचल तो लाजमी है। लेकिन क्या इन संघर्षों के जन्म के पूर्व खत्म करने की परिकल्पना को कोई आत्मसात् नहीं कर सकता है। संभवतः यही कारण है की आज भी लोगों में टकराव की स्थितियां निर्मित होती है। जहां एक पक्ष-दूसरे पक्ष पर हावी हो जाता है। 


लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़

रुपये में गिरावट के पर्याय /Alternatives to depreciating rupee



                         (अभिव्यक्ति

भारतीय मुद्रा को लेकर लोगों में यह धारणा रहा है कि आजादी के पश्चात डॉलर और रुपये की वेल्यू समान थी। वास्तव में यह एक मिथक स्वरूप तर्क था। आजादी के पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश था. यानी तब इसकी वैल्यू का आकलन ब्रिटेन की मुद्रा पाउंड के आधार पर होता था। ज्ञातव्य है कि तब 1 पाउंड की वैल्यू 13.37 रुपये के बराबर थी। तत्कालीन समय के पाउंड  और डॉलर के एक्सचेंज रेट को देखा जाए तो 15 अगस्त 1947 के दिन 1 डॉलर की वैल्यू 4.16 रुपये रही होगी। उसी रेसियो के आधार पर तब से लेकर अब तक 1775% रुपये में गिरावट हो चुकी है। मौजूदा समय में 1 डॉलर की वैल्यू 80रुपये के लगभग सीमा को स्पर्श करने की स्थिति में है।
            डालर के मुकाबले रूपये में गिरावट अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से चिंता का सबब बना हुआ है। रुपये की गिरावट के कई मायने हैं जैसे देश में 80 फिसदी तेल विदेशों से निर्यात किया जाता है। चुकीं वैश्विक बाजार में डॉलर से व्यापार होता है। जिसके चलते तेल के दाम में पूनः उछाल के आसार दिखने लगे हैं। सीधे अर्थों में कहें तो रुपये के गिरते ही महंगाई के दरों में वृद्धि संभव है। तेल की उपयोगिता के पर्याय एवं निर्भरता तो समस्त यातायात के संसाधनों में होता है। जिसके चलते विभिन्न स्वरूपों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दाम में उछाल दर्शाते हैं। अब रूपये की गिरावट की स्थिति एक ओर जहां असर आम लोगों की जिंदगी में महंगाई के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से उभरती है। वहीं विदेशी निवेशकों के निवेश के लिए अवरोध उत्पन्न करती है। जहाँ जीडीपी वृद्धि और कम मुद्रास्फीति के बीच संतुलन विदेशी निवेश को आकर्षित करता है और अंततः यह मुद्रा को मजबूत बनाता है। एक अन्य महत्वपूर्ण कारक व्यापार घाटा है। जितना बड़ा घाटा होगा, मुद्रा उतनी ही कमजोर होगी। इसका प्रासंगिक पर्याय यह भी है की निवेश कम होना, रोजगार के सृजन को कम करता है। जिससे श्रम का नियोजन नहीं हो पाता है और इसके फलन बेरोजगारी बढ़ने के आसार समाज में प्रदर्शित होते हैं।
         मुद्रा का स्थायी होना अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण स्थिति है। एक ओर जहां इससे निवेशकों का रुझान बढ़ता है। वहीं स्थिरता की स्थिति में विभिन्न मौद्रिक परिस्थितियों का विकास होता है। घरेलू बजट से लेकर व्यापार तक सभी जगह रुपये के गिरावट का असर देखा जा सकता है। जहां सेवाएं महंगी और खर्च में वृद्धि संभव है। रुपये की गिरावट के संदर्भ में पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक रस्साकशी का दौर भी प्रारंभ है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि रुपया निरंतर गिरते रहने की स्थिति से उबरने में अभी समय लगेगा। आम आदमी के घरेलू बजट में कटौती तो निश्चित है। लेकिन जो गरीब तबकों और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए यह स्थिति और भयावह है। क्योंकि सीधे-सीधे उत्पादों के बढ़ते दाम का असर है यह होगा की उनकी पहुँच दैनिक उपयोग की वस्तुओं से पहुंच महंगाई के चलते दूर होगी और स्वास्थ्य के लिहाज से यह प्रतिकूल स्थितियों को जन्म देने में सक्षम है।
           किसी भी राष्ट्र से केंद्रीय बैंक है जो मुद्रा की मांग या आपूर्ति को संतुलित करने के लिए कदम उठाता है।आर्थिक संकट के घड़ी में आरबीआई के द्वारा पिछले वर्षों में, रुपये के मूल्य को स्थिर करने के लिए कई उपाय किए हैं जैसे सोने के आयात पर प्रतिबंध लगाना, मुद्रा वायदा पर स्थिति की सीमा को कड़ा करना, निवासियों द्वारा विदेशी मुद्रा के बहिर्वाह को युक्तिसंगत बनाना और पूंजी प्रवाह को प्रोत्साहित करना आवश्यक कदम रहे हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति में डालर के मुकाबले रुपये में गिरावट का ग्राफ रुकने का नाम नहीं ले रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप विभिन्न आर्थिक निकायों में प्रतिकूल प्रभाव तो निश्चित ही पड़ेगें। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़