Tuesday, August 30, 2022

रुपये में गिरावट के पर्याय /Alternatives to depreciating rupee



                         (अभिव्यक्ति

भारतीय मुद्रा को लेकर लोगों में यह धारणा रहा है कि आजादी के पश्चात डॉलर और रुपये की वेल्यू समान थी। वास्तव में यह एक मिथक स्वरूप तर्क था। आजादी के पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश था. यानी तब इसकी वैल्यू का आकलन ब्रिटेन की मुद्रा पाउंड के आधार पर होता था। ज्ञातव्य है कि तब 1 पाउंड की वैल्यू 13.37 रुपये के बराबर थी। तत्कालीन समय के पाउंड  और डॉलर के एक्सचेंज रेट को देखा जाए तो 15 अगस्त 1947 के दिन 1 डॉलर की वैल्यू 4.16 रुपये रही होगी। उसी रेसियो के आधार पर तब से लेकर अब तक 1775% रुपये में गिरावट हो चुकी है। मौजूदा समय में 1 डॉलर की वैल्यू 80रुपये के लगभग सीमा को स्पर्श करने की स्थिति में है।
            डालर के मुकाबले रूपये में गिरावट अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से चिंता का सबब बना हुआ है। रुपये की गिरावट के कई मायने हैं जैसे देश में 80 फिसदी तेल विदेशों से निर्यात किया जाता है। चुकीं वैश्विक बाजार में डॉलर से व्यापार होता है। जिसके चलते तेल के दाम में पूनः उछाल के आसार दिखने लगे हैं। सीधे अर्थों में कहें तो रुपये के गिरते ही महंगाई के दरों में वृद्धि संभव है। तेल की उपयोगिता के पर्याय एवं निर्भरता तो समस्त यातायात के संसाधनों में होता है। जिसके चलते विभिन्न स्वरूपों में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दाम में उछाल दर्शाते हैं। अब रूपये की गिरावट की स्थिति एक ओर जहां असर आम लोगों की जिंदगी में महंगाई के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से उभरती है। वहीं विदेशी निवेशकों के निवेश के लिए अवरोध उत्पन्न करती है। जहाँ जीडीपी वृद्धि और कम मुद्रास्फीति के बीच संतुलन विदेशी निवेश को आकर्षित करता है और अंततः यह मुद्रा को मजबूत बनाता है। एक अन्य महत्वपूर्ण कारक व्यापार घाटा है। जितना बड़ा घाटा होगा, मुद्रा उतनी ही कमजोर होगी। इसका प्रासंगिक पर्याय यह भी है की निवेश कम होना, रोजगार के सृजन को कम करता है। जिससे श्रम का नियोजन नहीं हो पाता है और इसके फलन बेरोजगारी बढ़ने के आसार समाज में प्रदर्शित होते हैं।
         मुद्रा का स्थायी होना अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण स्थिति है। एक ओर जहां इससे निवेशकों का रुझान बढ़ता है। वहीं स्थिरता की स्थिति में विभिन्न मौद्रिक परिस्थितियों का विकास होता है। घरेलू बजट से लेकर व्यापार तक सभी जगह रुपये के गिरावट का असर देखा जा सकता है। जहां सेवाएं महंगी और खर्च में वृद्धि संभव है। रुपये की गिरावट के संदर्भ में पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक रस्साकशी का दौर भी प्रारंभ है। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि रुपया निरंतर गिरते रहने की स्थिति से उबरने में अभी समय लगेगा। आम आदमी के घरेलू बजट में कटौती तो निश्चित है। लेकिन जो गरीब तबकों और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए यह स्थिति और भयावह है। क्योंकि सीधे-सीधे उत्पादों के बढ़ते दाम का असर है यह होगा की उनकी पहुँच दैनिक उपयोग की वस्तुओं से पहुंच महंगाई के चलते दूर होगी और स्वास्थ्य के लिहाज से यह प्रतिकूल स्थितियों को जन्म देने में सक्षम है।
           किसी भी राष्ट्र से केंद्रीय बैंक है जो मुद्रा की मांग या आपूर्ति को संतुलित करने के लिए कदम उठाता है।आर्थिक संकट के घड़ी में आरबीआई के द्वारा पिछले वर्षों में, रुपये के मूल्य को स्थिर करने के लिए कई उपाय किए हैं जैसे सोने के आयात पर प्रतिबंध लगाना, मुद्रा वायदा पर स्थिति की सीमा को कड़ा करना, निवासियों द्वारा विदेशी मुद्रा के बहिर्वाह को युक्तिसंगत बनाना और पूंजी प्रवाह को प्रोत्साहित करना आवश्यक कदम रहे हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति में डालर के मुकाबले रुपये में गिरावट का ग्राफ रुकने का नाम नहीं ले रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप विभिन्न आर्थिक निकायों में प्रतिकूल प्रभाव तो निश्चित ही पड़ेगें। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़