(व्यंग्य)
लोकतंत्र में जनता का शासन तो है, जिसमें जनता की नुमाइंदगी करते नेतागणों में राजधर्म का पालन अनिवार्य शर्त है। राजधर्म के अनुसार, राजकीय यानी शासित क्षेत्र के कार्यों के संपादन हेतु नियत कर्तव्यों और दायित्वों का न्यायपूर्वक निर्वाह का प्रावधान होता है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राजधर्म से कहीं ज्यादा आवश्यक शासन तंत्र के मजबूत बनाने की होड़ मची दिखलाई पड़ता है। जहाँ स्वहित पहले फिर शेष बाद में विचारणीय है।
स्वहित की भूमिका पर तनिक गौर करें तो खुर्शी के खेल में पक्ष-विपक्ष के अदलाबदली और संख्या बल की खरीदफरोख्त सब कुछ जायज है। कभी स्वहित के लिए अपने मूल वेतनमान में दोगुनी, तीगुनी बढ़ोत्तरी का सारा समीकरण जुबानी नाप दिये जाते हैं। लेकिन राजकीय, शासकीय सेवकों के प्रति यही प्रक्रिया उदासीनता के लहरों में स्लो-मोशनल प्रदर्शन करती है। ऐसा भी तर्क की इससे अर्थव्यवस्था का संतुलन गड़बड़ सकता है। भइया घोर गड़बड़ झाला है। कार्मिक आंदोलन पर और कार्य वैकल्पिक व्यवस्था के भरोसे धीरे-धीरे सलटाने की तान में फरमान थोप दिया जाता है।
कभी किसान की बात, कभी रोजगार की बात और तो और सेवकों के वेतनमान की बात पर पक्ष वाले तर्कों के माध्यम से सीना ठोक बोल देते हैं। हमारी सरकार बनी तो सारे संकट हर जायेंगे। जो मांगे हैं आपकी अक्षरसः पूरे होते नजर आएंगें। सेम सिचुएशनल लाईन इससे पहले विपक्ष ने भी बोला था। क्योंकि नेतागण हैं जनाब मिथ्या थोड़ी बोलेंगे। माना की वादा पूरा हो या ना हो..! जनता का मुड तो अवश्य ही टटोलेंगे।
बिखरते समीकरणों में मांग की रस्साकशी फिर पक्ष-विपक्ष के हाथों में पड़कर दो धूरी तन जाती है। आम तो आम की तरह है। जिसके जितना स्वद चखना होता है वैसे मसल दिये जाते हैं। जनता के मुड को चुनावी वादों में बद दिये जाते हैं। मांग पूरी हो ना, सत्ता के परिवर्तन के स्वर जरूर वजनदार, असरदार नजर आते है। मंद मंद अंदर से मुस्कुराते दोनों पक्षों के प्रतिनिधि भावी विजयश्री के गीत गाते हैं। समस्या का मर्म कौन जाने? बस नेता तो वो रंगहीन भोले भाले प्राणी है। राजनीति में खुर्शी पाकर थोड़े बदल जाते हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़