(अभिव्यक्ति)
भारतीय राजनीति में जातिगत समीकरणों की पर चुनावी पासे पटल दिये जाते हैं। कभी ऊँची-कभी निचे जाति के सघर्ष में आहुतियां केवल मानवता की चढ़ाई जाती है। इस संघर्ष के उद्देशिका में केवल उच्च-पदासीन लोगों को मनोरथ साध्य हो जाते हैं। वास्तव में वर्तमान भारतीय समाज जातीय सामाजिक इकाइयों से गठित और विभक्त है। श्रम-विभाजन प्रकृति आनुवंशिक समूह भारतीय ग्राम की कृषि केंद्रित व्यवस्था की विशेषता रही है। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में श्रमविभाजन संबंधी विशेषीकरण जीवन के सभी अंगों में अनुस्यूत है और आर्थिक कार्यों का ताना बाना इन्हीं आनुवंशिक समूहों से बनता है। वहीं जाति के निर्धारित, निर्माण में एक विशेष रीति, परम्परा, टोटम, धार्मिक मान्यता और नियमावली के पालन करने वाले एक मनुष्यों के समूह की कल्पना जाति के रूप में हुई। वहीं जीव विज्ञान की अवधारणा में जाति को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया है, 'जीवों या प्राणी के जीव वैज्ञानिक वर्गीकरण में सबसे प्राथम्य और निचली श्रेणी होती है। जीववैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है। जो एक दुसरे के साथ सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हो और जिनकी सन्तान स्वयं आगे सन्तान जनने की क्षमता रखती हो।' लेकिन सामाजिक स्तर पर जाति की अवधारणा वंशानुगत किसी पेशे के चयन के स्वरूप हुआ। यानी इन जातियों के अंदर निर्धारित एक समान जाति वाले व्यक्तियों का समाज स्थापना हुई। जो वंशानुगत सदस्यता, अन्तर्विवाह, निश्चित व्यवसाय, तथा जाति समितियां, जबकि व्यवस्था के रुप में जाति की विशेषताएं हैं। श्रेणीक्रम, खानपान पर प्रतिबन्ध, तथा शारीरिक व सामाजिक दूरियों पर प्रतिबन्ध इत्यादि पहल होते हैं। जो जाति के प्रति लोगों में विश्वास और सांमजस्य स्थापित करने, पालन करने की विवशता का निर्माण होता है। भारतवर्ष में मौजूदा आबादी पांच प्रकार के प्राचीन आबादी से मिलकर निर्धारित हुई है। जो आपस में घुल मिलकर कर रहते थे और हजारों साल से क्रॉस ब्रिडिंग कर रहे थे। भारत में कठोर जाति प्रथा का सूत्रपात् 1,575 वर्षों पहले हुआ।
जाति व्यवस्था या जातिवाद, एक जाति के लोगों या सजातीय लोगों की वह भावना है, जो अपनी जाति विशेष के हितों की रक्षा के लिए अन्य जातियों के हितों की अवहेलना भी स्वीकार्य करती है। इस भावना के आधार पर एक जाति के लोग अपने स्वार्थ के लिए, अपने लाभ के लिए या अपनी जाति श्रेष्ठता के लिए अन्य जाति या दूसरे जाति के लोगों को नीचा दिखाने के लिए किसी भी स्तर पर वाद-विवाद और आपसी वैमनष्यता को जन्म देते हैं।
निःसंदेह जातिवाद एक सामाजिक कुरीति है। विडंबना यह भी है कि देश को स्वतंत्र हुए सात दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश के नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है। लेकिन विरोधाभास है कि सरकारी औहादे के लिए आवेदन या चयन की प्रक्रिया के वक्त जाति को प्रमुखता दी जाती है।
बहरहाल, बहुत से सुधारों के उपरांत जातिवाद के अवधारणा प्रभाव खत्म नहीं हुआ है। जातिवाद के अवरोधकों के स्वर इतने तेज हुए हैं की आज भी जातिवाद के स्वर कहीं ना किसी गलीकुचे में प्रदर्शित होते हैं। कबीर दास जी जीवन पर्यंत कहते रह गए, 'जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान|' लेकिन आज भी जातिवाद पर संघर्षों के मेघ बेवजह टकराव की बारिश करते हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़