(अभिव्यक्ति)
यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता: तात्पर्य है, जहां स्त्री की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में इंगित वह स्वर्णीम शब्द जिसमें कहा गया है कि, नारी नर की आत्मा का आधा भाग है। जीवन के सतत् सहचर्य पालन और जीवन के संचरण के लिए स्त्री-पुरुष के बीच वैवाहिक संबंधों को भारतीय दर्शन में अद्वितीय और पवित्र माना जाता है। विवाह संबंधों के विषय में सामाजिक परिदृश्य में यदि विवरणात्मक विचार करें तो,विवाह संबंध द्वारा सृजित परिवार मे नव जीवन यानी शीशू अपने समाज के आचार-व्यवहार, रीति-रिवाज, धार्मिक तथा नैतिक विश्वासों एवं आदर्शों से परिचित होता है, उन्हें सीखता है तथा अपने को उन आदर्शों के अनुरूप साँचे मे ढ़ालता है। इस तरह नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से अपने सांस्कृतिक दायित्व को ग्रहण करती है एवं उसके सातत्य को बनाये रखती है।
परिवार के सृजन से लेकर पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलकर चलती नारी का जीवन विभिन्न परिस्थितियों से सामंजस्य बनाकर चलना होता है। जहाँ पिता के घर निकली डोली के साथ दो घरों की जिम्मेदारी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में नारी के कंधों पर रहती है। जहाँ संस्कार, संस्कृति और भूपर्पटी की तरह अदम्य स्नेह बनाकर परिवार का पोषण करती है। नारी के दृष्टिकोण में परिवार का हित सर्वोपरि होता है। जहाँ नारी अपने दायित्वों में शत्-प्रतिशत समर्पण परिवार, पति को देती है। वर्तमान दौर में वैवाहिक संबंधों के परिधियां निर्मित हो रही है। जहाँ सामाजिक बध्यताओं को पर कर अंतर्जातीय वैवाहिक संबंधों को मान्यता मिली तो है, लेकिन लोगों के सोच में ऐसे वैवाहिक संबंधों में कहीं ना कहीं संकीर्णता का बोध आज भी है। एक ओर जहाँ सामाजिक परिदृश्य में अरैंज मैरिज के सफलता के पीछे लोगों का दवाब देखने को मिलता है। जहाँ छूट-पूट विवादों की स्थिति में पारिवारिक, सामाजिक स्तर पर सुनता, सलाह का दौर निकल पड़ता है। वहीं प्रेम आधारित विवाह में दोषारोपण के अलावे शेष कुछ नहीं होता है। फलस्वरूप यह है विवाह संबंधों यदि स्त्री-पुरुष के बीच सामंजस्य की समीक्षा है। यदि सामंजस्य खरा है तो निश्चित ही यह संबंध टूटते नहीं है। यानी दोनो विवाह संबंध समांतर चलते हैं। इन संबंधों में सबसे बड़ी कुँजी है। एक दूसरे के प्रति भरोसा और इमानदारी से दायित्वों का निर्वाह करना है।
वर्तमान दौर में कुछ पति-पत्नी के बीच संबंधों पर हास्यास्पद चलचित्रों, चुटकुले, यहाँ तक की अतरिक्त वैवाहिक प्रेम संबंधों को लेकर तो जैसे बाढ़ सी आ गई है। वास्तव में यह भारतीय दर्शन में अस्वीकार्य है। पाश्चात्य के ओर से बहने वाली इन अशुद्धि-युक्त हवाओं के पीछे कहीं ना कहीं यौनाचार और उसकी आपूर्ति के लिए एक माध्यम के रूप में प्रचारित हो रहा है। जो भारतीय सामाजिक दर्शन के आघातवर्धनीय है। वास्तव में संबंधों की डोर इतनी भी कमजोर नहीं हो सकती है की कुछ भौतिक लोलुपता के फेर में मानसिक संबंधों के जुड़ाव को तोड़ा जा सकता है। संभवतः प्रेम और उसके अनुशासन के प्रति प्रदर्शन वाली संस्कृति के आकर्षण में युवा पीढ़ी के पैर फिसलने पर आमादा है। लेकिन वे भूल रहे हैं की फास्ट फूड की संस्कृति हमारे दैनिक जीवन की सोभा कभी नहीं बन सकती है। भोजन तो घर के चार दिवारी में सम्मान के साथ किया जाता है। और रोड़ के किनारे सिर्फ शौंक जीये जाते हैं अपनाएँ नहीं जाते हैं। बहरहाल, वर्तमान परिदृश्य में जहाँ नर-नारी के संबंधों के बीच संदेह का यदि बीजारोपण होता है तो निश्चय ही यह पूरे दाम्पत्य जीवनको खलल में रखती है।
गृह क्लेश की स्थिति से निपटने के लिए एक-दूसरे को समझने की भावना, सम्मान और निरंतर विश्वास के स्वर प्रेम के लिए उर्वरक के समान है। वो कहते हैं ना ताली एक हाथ से नहीं बजती है। ठीक वैसे ही दाम्पत्य जीवन में अवरोध, टकराव, क्लेश, वैमनस्य इत्यादि के पीछे दोनों ओर से अप्रत्याशित आंतरिक क्रोध है। बहरहाल, वर्तमान स्थिति में पुरुष अपने आप को पुरुषप्रधानता के स्वैच्छिक प्रतिनिधि मानकर अपने फैसलों पर अडिगता प्रदर्शित करता है। वहीं वह यह भी सोंचता है की उसके द्वारा लिए जा रहे सभी फैसले सहीं है। यह मूर्खतापूर्ण विचार पुरुष को नारी के हृदय से च्युत कर देती है। जो नारी समर्पण और समर्थन के साथ पुरुष के जीवन में प्रवेश करती है। यदि उसके हृदय में पुरुष के कारण वेदना होती है तो यह किसी अक्षम्य पाप से कम नहीं है। नारी की समानता के लिए पुरुष भी उतने ही जिम्मेदार है जितनी महिलाओं में जागरूकता का है। वैवाहिक संबंध की पराकाष्ठा की कूँजी है एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना, निरंतर विश्वास और सदैव माधुर्यमय पारिवारिक महौल का होना। क्योंकि अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥ अर्थात्, सभी देवताओं से उत्पन्न हुआ और तीनों लोकों में व्याप्त वह अतुल्य तेज जब एकत्रित हुआ तब वह नारी बना। नारी की भूत वर्तमान और कल है। क्योंकि, 'नारी माता अस्ति नारी कन्या अस्ति नारी भगिनी अस्ति।' इससे बड़ा उदाहरण नहीं की नारी ही, माँ है, बेटी है और बहन है| नारी ही सबकुछ है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़