(अभिव्यक्ति)
प्राथम्य शब्दों में संस्कृत में वाक्यांशों का तात्पर्य है संस्कृत ने हमें सभ्य बनाया और हम ही संस्कृत को भूल गए। भाषा के संदर्भ में स्त्रुत्वा कहते हैं कि, 'भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तन्त्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं सम्पर्क करते हैं।' यानी भाषा की वैज्ञानिकता का आधार भाषा के वर्णों, अक्षरों और उसके उच्चारण के संधारित्र करके समाहित भाषा को उत्कृष्ट भाषा कहा जा सकता है। ठीक इसी संदर्भ में भाषा से संस्कृति को,सांस्कृतिक परिदृश्य को जोड़ती इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका स्त्रुत्वा जी की बात को अद्यतन करते कहती है कि, 'भाषा को यादृच्छिक भाष् प्रतिकों का तन्त्र है जिसके द्वारा मानव प्राणि एक सामाजिक समूह के सदस्य और सांस्कृतिक साझीदार के रूप में एक सामाजिक समूह के सदस्य संपर्क एवं सम्प्रेषण करते हैं।' यानी किसी भी भाषा के जन्म में उस क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक परिदृश्य का लेपन प्रदर्शित होता है। सारांश में कहें तो भाषा में प्रासंगिक होने वाले शब्द और उन शब्दों का अर्थ एवं उच्चारण यदि समान हो, तो वह भाषा वैज्ञानिक है। और इस वैज्ञानिक भाषा को तीव्रता से सीख एवं समझ सकते है। भाषा के संदर्भ में डॉ. शयामसुन्दरदास कहते हैं कि, 'मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुअों के विषय अपनी इच्छा और मति का आदान प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतो का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है।' वहीं डॉ बाबुराम सक्सेना कहते है कि, 'जिन ध्वनि-चिंहों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-बिनिमय करता है उसको समष्टि रूप से भाषा कहते है।'
भाषा विकास के संदर्भ में विश्व के प्रमुख राष्ट्रों के तमाम विश्विद्यालय एवं शिक्षण संस्थानों के द्वारा किए गए शोध संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा बताते हैं। यह माना जाता है कि दुनिया की सभी भाषाओं की जननी कहीं-ना-कहीं संस्कृत है। संस्कृत भाषा ईसा से 5000 साल पहले से बोली जाती है।संस्कृत भाषा का मूल तमिल को माना गया है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा है। जो भाषा शैली के हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार की एक शाखा है। आधुनिक कई भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, बांग्ला, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है। संस्कृत में वैदिक धर्म से संबंधित लगभग सभी धर्मग्रंथ लिखे गए हैं।
संस्कृत के विकास और विरासत के संदर्भ में प्राप्त तर्कसंगत विचारों के आधार पर विद्वानों ने संस्कृत साहित्य के इतिहास को दो भागों में बांटा है। 3500 ई. पूर्व से 500 ई. पूर्व का समय तो वैदिक संस्कृत काल के लिए और बाद का लौकिक संस्कृत काल के लिए निर्धारित करते हैं। पाणिनि को संस्कृत के जनक कहा जाता है। जिन्होंने संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में अपना अतुलनीय योगदान दिया है। पाणिनि के द्वारा लिखे गए व्याकरण का नाम अष्टाध्यायी है। जिसमें आठ अध्याय और लगभग चार सहस्र सूत्र हैं। संस्कृत के प्रसार, संचार और व्यावहारिक शैली में प्रयोग के साथ लेखन कौशल में मानक स्तर को लब्धि होती है।
संस्कृत जो संस्कृति के परिचायक है। जिसमें जैसा कहते है, जैसा है और जो मूल अर्थ है। संस्कृत के वैभवशाली गौरव के संचित इस भारत की भूमि पर इस भाषा के प्रयोग करने वालों की संख्या में कमी हो रही है। लेकिन इस भाषा की वैज्ञानिकता और लचीलेपन के कारण इसका प्रयोग विदेशों में विद्वानों के द्वारा सीखा और प्रासंगिक किया जा रहा है। अपने देश में संस्कृत भाषा उपेक्षा की शिकार हो, लेकिन वैश्विक स्तर पर कई देश इसे सीखने में ललकशील हैं। अपनी जड़ों को तलाश रहे इरान-इराक जैसे पश्चिमी एशियाई देशों और संस्कृत साहित्य में छिपे रहस्यों को समझने को आतुर यूरोपियन देशों में भी संस्कृत सीखने की ललक बढ़ी है। इन मुल्कों से संस्कृत के विद्वानों की मांग लगातार बढ़ी है। संस्कृत विश्व की एक मात्र भाषा है जो व्यक्तित्व के दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती है। इस देववाणी का संरक्षण हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़