(विचार)
सांसारिक वस्तु, विषयों के मोह को लेकर भूत, वर्त और भावी समय के हर चक्र में एक अपरिभाषित द्वंद्व का प्रदर्शन होता है। मनुष्य केवल सुख की कामनाओं के प्राप्ति के लिए जाने कितने प्रयोजन करते रहता है। कभी इन विषयों के मोहपाश में बंधक समरुप होकर तमाम वे क्रियाएँ करता है। जो संभवतः न्यायोचित नहीं होता है। कभी मोह का इतना उच्च श्रृंग पर होता है की मनुष्य भूल जाता है की क्या गलत है और क्या सही है! निश्चय ही इस मतिभ्रम की स्थिति में गलत को भी सही कहने के पर्याय में तर्क देते रहता है।
कभी मोह इतना की घर्षण की स्थिति का निर्माण होते जाता हैं। कभी यह संघर्ष दो पक्षों के लिए आर-पार की लड़ाई के संदर्भ को जन्म देते हैं। इन्हीं स्थितियों में यह निर्मित स्थिति रार के कारकों का प्रबल कारक होते हैं। संघर्ष के पूर्व कई व्यूहों की रचना होती है। जहाँ अपने अपने सबल पक्षों और दूर्बलताओं के पक्षों का आकलन किया जाता है। यह भी सुनिश्चित किया जाता है की अंतिम परिणाम में विजयश्री स्वमेव हो। संबंधों के बीच खींची मोह के अवरण की रेखा कहीं ना कहीं विभिषिका को जन्म देती है। लगता है। जैसे यह आपतित युद्ध अपने समापन के पूर्व स्थगन के साम्य प्रस्तावों पर विचार नहीं करेगा, अपितु सब कुछ लील जाने की स्थिति की ओर आमादा होता है।
वर्तमान भी अतित के उदाहरणों को पूनर्स्थापित करने के मार्ग पर ललायित होकर दौड़ निकला है। पुरातन काल में जहाँ संघर्षों की स्थिति का जनक आपसी मतभेद, विचारों के टकराव और छल रहे हैं। जिनका सारांश केवल और केवल मोह था। जहाँ लोभ, मोह, काम, मद के कारण वैमनष्यता चरम को ग्राही होकर सर्वस्व टूटने की स्थिति में बल प्रेरण करती गई है।
वर्तमान के दौर में संभवतः हमने पूर्व के उदाहरणों से सीख नहीं लिया अपितु वैभवशाली मरीचिकाओं में मृगतृष्णा की तलाश में आपसी मतभेदों को जन्म देते हैं। इन्ही मतभेदों के मद्देनजर संबंधों के बीच दीवार इतना बड़ा हो जाता है की तनातनी के स्थिति में शब्दों के गरिमा और रिश्तों के मायने शून्य हो जाते हैं। इस दौर में एक और संबंधों पर आधारित एक व्यर्थक रार की संगम स्थली निर्मित हो जाता है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़