(विचार)
मोबाइल के स्मार्ट बनने के पूर्व का एक दौर अलग ही रहा है। इस दौर में गांव, शहर की गलियों में बचपने का शोर स्कूल की छुट्टी के घंटी के साथ दौड़ता घर पहुचता और बस्ता रखते ही कपड़े बदल कर भागते गलियों में बचपन पलता, बढ़ता और खिलखिलाता दिखाई पड़ता था। जब तक इन बच्चों को मां डाटती घर नहीं ले जाती खो-खो, कबड्डी, रेस-टिप, नदि-पहाड़ गिल्ली डंडा और न जाने कई खेलों में मसलुफ होकर बचपन किशोरावस्था की ओर शनैः-शनैः बढ़ता था। शायद इन्ही गलियों में पले-बढ़े गीतकार सुदर्शन फकीर ने बचपने को याद करते लिखा, 'वो कागज़ की कश्ती...! वो बारिश का पानी... लौटा दो मुझे मेरे बचपन का सावन...! वो बारिश का पानी...!!'
बचपन को परिभाषा के परिधि में बाँधते हुए ब्लेयर जॉन्स एवं सिंपसन कहते हैं कि, “बाल्यावस्था वह समय है,जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोण व मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है।” यानी बचपन का जीवनकाल के सीखने का दौर है जहाँ बच्चा अपने इर्दगिर्द के परिवेश के संदर्भ में समझता है। दुनियाँ की समझ के परिप्रेक्ष्य में स्ट्रेंग कहते है कि “बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है और उसके बारे में जल्दी से जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।” बाल्यकाल के दौर में बच्चों में जानने की ललक तेज रहता है। वह बौद्धिक, शारीरिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के संदर्भ में सीखता, समझता और आत्मसात करते आगे बढ़ता है। इस दौर में खेलों की प्रासंगिक उद्देश्यों पर विचार करें तो, खेल बच्चों में तीव्रता से फैसले लेने, सामाजिक बंधुत्व और अपने परिवेश से प्रेम करना सीखता है।
भारतवर्ष में खेलों के इतिहास का पता वैदिक युग से लगाया जा सकता है। रामायण और महाभारत के युग के दौरान, लगभग 1900 ई.पू. से -7000 ई.पू. तीरंदाजी, घुड़सवारी, कुश्ती, भारोत्तोलन, तैराकी और शिकार जैसे खेलों में प्रतिष्ठा और सम्मान के पुरुषों के प्रतिस्पर्धी होने की उम्मीद थी। ऐसे ही खेलों के संदर्भ में बाल्यकाल में विभिन्न छोटी-छोटी प्रतिस्पर्धा का चलन ग्रामीण क्षेत्रों में खेल के रूप में उभरा है। लेकिन वर्तमान दौर में स्मार्टफ़ोन के टचस्क्रीन के आगे ऑनलाइन गेमिंग में आँखें गड़ाए बच्चों की स्थिति उन्हें विद्वान तो नहीं लेकिन मनोरोगी बनाने के लिए अवश्य प्रेरण करने को आमादा है। शहर से लेकर गांवों तक स्मार्टफोन के पहुँच ने बच्चों के बचपन छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। बच्चा, जो खेल-खेल में अपने परिवेश के बच्चों से मिलता, मित्रता करता, खेलता था। जिससे उस परिवेश के लोगों में आपसी बंधुत्व की भावना का जागरण होता था। यह कड़ी कहीं न कहीं टूट गई है। वह सांस्कृतिक, सामाजिक और खेल भावना से पृथक यांत्रिक आभासी दुनियाँ को अपना सर्वस्व मान लेता है। जो उसमें सामाजिक पृष्ठभूमि पर यानी वास्तविक धरातल पर लोगों के बीच सहचरित संबंधों के स्थापना के लिए शून्यता मानसिक की ओर ढ़केल दिया है। वह अपने अंदर अन्य लोगों से, अपने हम उम्र बच्चों के साथ मिलने पर असहजता को प्रदर्शित करता है।
खेल जिसे हम अति सामान्य पर्याय के उन उन गतिविधियों को भी कर सकते हैं। जहाँ पर प्रतियोगिता की शारीरिक क्षमता खेल के परिणाम को एकमात्र अथवा प्राथमिक निर्धारित होता है। लेकिन शब्दों दिमाग खेल, बोर्ड खेलो सामान्य नाम, जिनमें भाग्य के तत्व बहुत थोड़ा या नहीं के बराबर होता है। खेल की महत्त्व के संदर्भ में यदि मनोवैज्ञानिक परिदृश्य को समझने का प्रयास करें तो, खेल उन सिद्धांतों और दिशानिर्देशों की पहचान करते हैं। जिनका उपयोग पेशेवर वयस्कों और बच्चों को टीम और व्यक्तिगत वातावरण दोनों में खेल और व्यायाम गतिविधियों में भाग लेने और लाभ उठाने में मदद करने के लिए कर सकते हैं। यह समझने के लिए कि मनोवैज्ञानिक कारक किसी व्यक्ति के शारीरिक प्रदर्शन को कैसे प्रभावित करते हैं और यह समझने के लिए कि खेल और व्यायाम में भागीदारी किसी व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक विकास, स्वास्थ्य और कल्याण को कैसे प्रभावित करती है। खेल मनोविज्ञान भावनाओं को प्रबंधित करके और चोट और खराब प्रदर्शन के मनोवैज्ञानिक प्रभावों को कम करके प्रदर्शन बढ़ाने से संबंधित है। यानी खेल भावना जहाँ सामाजिक बंधुत्व को बढ़ाती है वहीं खेल में हार-जीत के लिए संघर्ष की स्थिति बच्चों में प्रतिकूल समय में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से सुदृढ़ बनाने में सहायक है।
सार में कहने का प्रयास करें तो, खेल संज्ञानात्मक विकास को आगे बढ़ाता है। खेल के नियमों को पालनकर्ता की सुनिश्चितता बच्चों में व्यक्तित्व निर्माण की भूमिका में सहायक है। वहीं खेल कल्पनाशीलता और सृजनात्मक को बढ़ावा देता है। खेल शारीरिक और क्रियात्मक विकास को बढ़ावा देता है। खेल भाषायी विकास में सहायक होता है।खेल द्वारा बच्चे सामाजिक होना सीखते हैं। खेल भावात्मक विकास में सहायक होता है। लेकिन वर्तमान में भौतिक खेलों के बजाय बचपन टचस्क्रीन के भवँर में फसकर मनोव्याधियों को ग्राही हो रहा है। वर्तमान नवीन बच्चों की फौज मोबाइल के अनुप्रयोगों में व्यस्त होकर सामाजिक होना भूल चुके हैं। वे स्मार्टफ़ोन और ऑनलाइन गेम्स के मायाजाल में ऐसे फसे हैं कि पारंपरिक खेलों का दौर अब विलुप्ति के कगार पर है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़