(विचार)
संयुक्त परिवार के छाँव तले हमारा बचपन गुजरा, जहाँ घर के वरिष्ठ हमें सिखाते की भोजन के प्रारंभ से पहले शालीनता से बैठकर भोज्य पदार्थों का प्रथम भोग प्रकृति के पंच महाभूतों को अर्पित करने की परम्परा रही है। भारतीय दर्शन के परिदृश्य से एक श्लोक का विवरण रखना चाहूंगा, जो भोजन के प्रारंभ के पूर्व कहे जाते-
'ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।।'
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:। तात्पर्य है कि जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी परम ब्रह्म है, और हवन किये जाने योग्य द्रव्य में परम ब्रह्म की उपस्थिति है। ब्रह्म रूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है। उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाला योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। यह श्लोक गीता में चतुर्थ अध्याय के चौबीसवें श्लोक से उद्घृत है। हमारे भारतीय दर्शन में जीवन चक्र के संतुलन और समायोजन के लिए विविध संक्रियाएं निर्मित है। जिसमे मौसम के अनुसार फलाहार और साख ग्रहण करने की परम्परा रही है। जिसमे संकरण से उत्पन्न सब्जियों/वस्तुओं में संलिप्त दोषों के कारण उनसे पृथक्करण करना अनिवार्य बताया गया है। इन सभी नियमों की पालन भी हो रहा था। लेकिन सांस्कृतिक विस्थापन और नव संस्कृति के लिए लोगों में ग्रहण से कहीं अधिक सम्मोहन की स्थिति ने उसे दैनिक भोज्य और जीवन के नियमावली से अपने आप को शनैः-शनैः पृथक कर लिया। वर्तमान समय में भोजन केवल जीवन जीने के संसाधन के रूप में हो गया है। जहाँ अति दूषित और मन अनुरूप भोजन की परम्परा ने मनुष्य को संतुलन की अवस्था से इत्तर कर दिया है। ब्रम्ह मुहुर्त से दिनचर्या का प्रारंभ और भोजन के लिए निर्धारित समय के अवमानना कहीं ना कहीं मनुष्य के जीवन शैली में गंभीर परिवर्तन का उद्योतक है। इसके उदाहरण स्वरूप आप देखेंगे की पूर्व समय के मनुष्यों की तुलना में वर्तमान लोगों की औसत आयु घटने लगी है। कुपोषण, बेमेल भोजन संस्कृति और पर्यावरण के दोहन के कारण यह परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।
भारतीय दर्शन में जहाँ भोजन की महत्त्व और उपयोगिता के संदर्भ में संत कबीर जी कहते हैं, 'साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए।' इस दोहे में अर्थ, भोजन और सामाजिक बंधुत्व का बोध मिलता है। ठीक ऐसे ही भोजन के करने के नियमों में पाश्चात्य संस्कृति के विपरित हमारी संस्कृति में जमीन में बैठकर हाथों से भोजन का नियम है। भोजन के ग्रहण करने के लिए हाथ का प्रयोग अनिवार्य है। वहीं भोजन करते समय की स्थिति यदि पारिवारिक समस्त सदस्यों के साथ सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में हो, तो भोजन अमृत है। क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है जैसे खाओगे अन्न, वैसा होगा मन। कहने की तात्पर्य है की भोजन के यदि प्रकृति असंतुलन की अवस्था या अशुद्धियों से लिप्त होगा, तो निश्चित ही आपके जीवन की दिनचर्या भी वैसी ही विषयुक्त होने की प्रबल संभावना निश्चित है।
दूसरी ओर बढ़ते प्रदुषण के कारण कई विभिन्न कारक हैं जो जीवनकाल के क्षरण में सहायक है। लेकिन यदि हम ठान लें की हमारी आहार संस्कृति में पुरातन काल की भातिं निर्धारित नियमावली के अनुरूप जीवन यापन करें तो संभव है। शारीरिक क्षमताओं में सकारात्मक वृद्धि सुनिश्चित है। वर्तमान दौर में फास्ट फूड कल्चर में विदेशी भोज्य सामाग्री खासकर ऐसे जो कतई स्वास्थ्य वर्धक नहीं है। लेकिन नवीन शिशू पौध पीढ़ी के जुबान पर ये बेतरतीब स्वाद के पकवानों के नाम चाशनी की तरह चिपकने लगे हैं। जबकी स्वास्थ्य वर्धन में सहायक हमारे परम्परागत पकवानों की उपेक्षा भावी गंभीर परिणाम की ओर अग्रसर होंगे।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़