(अभिव्यक्ति)
ऐसा नहीं है की लोगों में काम के प्रति जवाबदेही नहीं है। रोज प्रातः 5 से 7बजे के बीच दीवा की शुरुआत तो लोग करते ही है। कभी सड़को पर बेतरतीब भीड़ को चिरते हुए, कोई युवा समान ओजस्विता के साथ आगे बढ़ता व्यक्ति देखने को मिल ही जाता है। जिसने कंधे पर दफ्तर के फाइल के बोझ और सिर पर घर चलाने की जिम्मेदारी के साथ भागता, हड़बड़ाता हुआ देखने को अवश्य मिल जायेंगे। शहरों के रोजाना का एक दिन उठा लिजिए यह नमुनार्थ उदाहरण आपके सामनें सदृश्य दिखाई पड़ेगा। इस हड़बड़ाहट की वजह और दर्द से शासकीय सेवाओं में सेवारत कार्मिकों और अधिकारी वर्ग के जमात को निजात है। ये हाल-ए-बयाँ तो निजी सेवा क्षेत्रों में कार्य करने वाली उस भीड़ की है जो काबिलियत तो रखते हैं। लेकिन जिन्दगी के जद्दोजहद में वर्तमान का आज जला रहे हैं। जिनकी विवशता नहीं प्रातः भागते दौड़ते दफ्तर जाने की मंशा से कहीं ज्यादा जरूरी 9 बजे से एक मिनट पहले उपस्थिति के पंच मशीन पर थम्ब मारने की मजबूरी है। ताकि डेढ़ माह के उपरांत मिलने वाली सैलरी में कटौती से बचा जा सके। क्योंकि जो श्रम विक्रय होती है, उसी से घर के अर्थशास्त्र का ताना बाना बुना जाता है। बच्चे की फिस, महिने भर का राशन, खरीदारी के शौंक, बचे तो भविष्य के लिए थोड़ी सेविंग की परम्परा का निर्वाह किया जाता है। बहरहाल, निजी दफ्तरों के मैनेजमेंट कर्ताओं के उखड़ेपन का सबुत इस बात से भी लगाया जा सकता है की दफ्तर आने के टाइम का फिक्स है मगर जाने के समय का अंतिम समय के बाद भी वर्कलोड बढ़ाकर देरी कराने का उत्कृष्ट प्रबंधन कराया जाता है।
दौड़ते भागते दफ्तर पहुँचते, वरिष्ठ-कनिष्क के बीच मेल-वेल, काम का स्टेट्स और मंजूरी के पहले रोक-टोक की बातें आम हो जाती है। कहीं चाटूकारिता तो कहीं मेहनत में कोल्हू के बैल सिद्ध होते कार्मिकों की भीड़ सूबह से शाम तक बस पिसती रहती है। थक हार कर, मन लगे ना लगे मगर टाइम पर काम करके देना है वाली मानसिकता का प्रतिनिधित्व अवश्यक करता है। शेष तो दफ्तर से निकलते-निकलते शरीर पूरी तरह से टूट जाता है। पांच बजे से निकले जो घर पहुँचते शाम के सात के पार घड़ी निकल जाती है। फिर बच्चों संग थोड़ा खेलना, खाना फिर निद्रा के आगोस में निढ़ाल होकर खो जाना। फिर से सुबह उठकर वहीं दिनचर्या चक्र की भांति लौट आता है। नाइट टू फाइव की जिंदगी में सुकुन तो सिर्फ आने वाला संडे ही दिलाता है। शेष क्या हलचल है? शहर में किस बात की शोर है, इसकी परवाह कौन करे? जितना मिलता है उतने में सिर्फ घर चल पाता है। ऐसे दर्द में सिमटकर भी नाइन टू फाईव के जिंदगी में अपना बेस्ट देकर दिखलता है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़