(चिंतन)
शारीरिक लोलुपता को लोकप्रिय मानकर न जाने हम कितने भाव विभोर हो जाते हैं। कभी प्राप्ति, कभी प्राप्ति की प्रीति, तो कभी प्राप्ति के प्रति पार्श्व भागते श्वान की उत्कृष्ट भूमिका का निर्वाहन करने लगते हैं। जहाँ मोह, मद, लोभ, ईष्या और काम के पाँच जंजीरें हाथ, पैर और गले में ऐसे जकड़े हैं। जो हमें पूर्ण संसारिक होने का मिथ्या विश्वास दिलाता है। वास्तव में क्या कपोल-कल्पनाओं के पीछे विषयों के तलाश में जीवन व्यतीत करना संभव है। जबकी आत्मा की नश्वरता का सिद्धांत एक अलग ही क्षेत्र विशेष की ओर इंगित करता है। मनुष्य जीवन के अपरिभाषित मर्मों में से एक बड़ा मर्म यह है की हमें अभिनेता नहीं या अभिनय का पात्र नहीं बनना है। हमें मूलाधार उन चिंतनों की खोज करना है। जो अनंत की ओर लिए चलते हैं।
परमशून्य या अनंत की स्थिति को परिदृश्य के रंगों में इंगित करने का प्रयास करता हूँ। जहाँ नाशवान मूल्यों की अनुसूची नहीं अपितु अमरत्व के स्मारिका की अट्टालिका पर अपना नाम दर्ज करना है। सामान्यतः एक व्यक्ति विशेष का जीवन काल सांसारिकता के क्षोभ में पाने-खोने के बीच बराबर के समीकरण में चलता है। जहाँ वह नित्य अपने आप को अलंकृत महसूस करता है। लेकिन एक अंत के पश्चात् बर्फ की तरह हथेली से सबकुछ फिसल जाता है। लेकिन मानव या होमोसेपिंयस होना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है,यदि जीवन पशु के समान विषयों के मरीचिकाओं में मृगतृष्णा की तलाश करते गुजार रहे हैं तो।
यदि प्रातः - निशा की छलनी से सिर्फ गुजरना है, तो यह निश्चित है की जीवन को केवल आप अपने कुछ के भीड़ के बीच लोकप्रियता को तलाश रहे हैं। यह लोकप्रिय एक समय के पश्चात गर्त की ओर भी बढ़ेगी। जैसे परम ताप पर कोई वस्तु वाष्प हो जाता है और विचारणीय है की वहीं वस्तु उसी परमताप पर जम भी जाता है। केवल परिदृश्यों के परिवर्तन की देर है। प्रश्न यह है की यदि शरीर नाशवान है तो अमरत्व का प्रतिनिधित्व कौन करता है? यदि अमरत्व ग्राही होना होतो कौन से प्रयोजन सिद्ध हस्त होंगे? दोनो प्रश्नों का उत्तर समान है। आत्म यदि अमरत्व ग्राही है तो उसके प्रतिमानों के प्रति सजग होना आवश्यक है।
जीवनकाल को इतना सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है की पूरा जीवन भावी, भूत और वर्तमान को नव-अलंकरण दे। यदि कोई आपके अतीत को स्मृत करे तो अनुभव मिले, वर्तमान में साथ जो चले तो गौरव हो, और भावी क्षणों में उदाहरण बने। संभवतः जीतने भी बार आप जीवन के चक्रों में शारीरिक परिदृश्य बदलेंगे, उतनी बार यही उद्देश्य आपको अमरत्व प्रदान करेगा। स्वरूप चाहे बदलतें रहेंगे। लक्ष्य और आत्म तो वहीं है और उद्देश्य भी वहीं है। बस हर बार प्राप्त करने वाले व्यक्तित्व का नाम परिवर्तित तो अवश्य ही होगा, लेकिन यह यात्रा अनंत और नितांत है। निर्बाधता के इस परम शून्य सफर में यदि आपके पग उठे तो निश्चित ही चलिए, आईये अनंत सागर में आपका स्वागत है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़