(दर्शन)
जीवन में उतार-चढ़ाव की स्थिति धूप-छाँव की तरह आते जाते रहते हैं। यह प्रक्रिया सतत् प्रकृति के सत्ता का सार्वभौमिक नियम भी इसी समरुप में चलते हैं। जैसे आदि के बाद अंत, और विनाश के पश्चात् नवांकुरण की प्रक्रिया स्वमेव प्रारंभ हो जाता है, जो की एक अनंत प्रक्रिया के पदचिह्नों के पीछे दौड़कर पूनर्रस्थापना के सिद्धांतों को संकल्पित करती है। जीवन के आदर्शक प्रारुपों में विभिन्न उदाहरण भी हुए हैं। जिन्होंने जीवन ऐसा जीया की वे मिशाल और आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्मदर्शी मशाल बन गए। विषय यदि सांसारिकता का है तो, विभिन्न विषयों से ग्रसित मनुष्य का जीवन का तुलनात्मक अध्ययन और उन विषयों के संदर्भ में अवश्य जानना आवश्यक है। जिनसे वह जुड़ा हुआ, रोज नित्य की मनो-मृत्यु को ग्राही हो रहा है। ज्ञातव्य है की यदि आप किसी अन्य व्यक्ति विशेष के इच्छाओं, प्रतिक्रियाओं और सिर्फ दिखाने या सराहना के लिए क्षुब्धता ग्राही है तो आप इस भवसागर में निश्चित ही कष्ट के भागी बनने रहेंगे। यहाँ कल्पना इस विषय का नहीं है कि कौन? क्या? किसका? कितना और कहाँ तक है? अपितु यह है की आप कितने सांसारिक हैं?
वर्तमान भौतिकता के भँवर में फसें मनुष्य के लिए सांसारिक सुख सर्वोच्च है। इसके जड़ में धन का संग्रहण मनुष्य को या तो कोल्हू के बैल बनने पर मजबूर कर देता है या मिथ्याचारी बना देता है। कुछेक तो दो चार कदम आगे बढ़ते दिखाई पड़ते हैं जिनमें पुरुषार्थ तो क्षीण लेकिन रक्त-पिपाशु की तरह लोटन किट या परजीवी चाटूकार अवश्य ही बना कर रख देता है। हम जीवन के लक्ष्यों से कहीं ज्यादा उपस्कर, गृह, रंग-रोगन, अलंकरण, अलंकार, श्रृंगार और मोह के जाल में ऐसे उलझे रहते हैं, मानों यही स्वर्ग है। ऐसे अशोभनीय गति को ग्राही होकर भी लोगों में अति उन्नति की स्थिति उत्साहवर्धक बनने के लिए प्रेरित करती है। बैर, वैमनस्य, कटूता,कुटिलता और षड्यंत्र के स्वरों में अपना हित देखने से संबंधों की पराकाष्ठा भी उस वक्त तार-तार हो जाती है। जब दो मनुज आप में सिर्फ इसलिए संघर्ष को जन्म दे देते हैं कि उस मंथन से सिर्फ धन लाभ होता दिखता है। संभवतः उस क्षण संबंधों की गरिमा, गहराई और विश्वनीयता जैसे अमूल्य पूंजी को धूमिल करने में तनिक विचार तर नहीं करते हैं। इस संघर्ष के पहले की पूर्वाग्रह ईष्या और कपट की भावना से ग्रस्त व्यक्तियों के बरगलाने की प्राथम्यता का प्रमाण है।
वास्तविक में जीवन का लक्ष्य केवल आठ घंटे मेहनत या धनोपार्जन नहीं है। कभी हमें स्वयं से यह प्रश्न करना भी आवश्यक है की हमें, सिर्फ हमें ही इस प्रकृति ने बुद्धिजीवी क्यों बनाया है? जो अविश्वसनीय, अद्भुत और अकल्पनीय तर्कों को भी सिद्ध कर देता है। इतना जिज्ञासु क्यों बनाया है? जो कल्पना के सागर में खोकर भावी वास्तविकता के आधारशीला रखने के पढ़ाव की ओर चल निकलता है। प्रश्न यह भी है की इस प्रकृति के खूबसूरत उपहार यानी हममें प्राण की वायु का प्रवाह क्यों किया गया है? क्या सिर्फ धनार्जन, जो कि हमनें ही मौद्रिक संबंधों और विनिमय को लागू करने के लिए स्थिति किया है। उसके संकलन करने के लिए क्षुब्ध बनना क्या हमारा लक्ष्य हो सकता है? मेरा जवाब होगा नहीं, वास्तव में प्रकृति के रहस्य को समझना आवश्यक है। वास्तव मे प्रकृति ने जो नेमत हमें दी है वह है 'विचार'। प्रकृति का यह एक बड़ा रहस्य है। जैसे हम सोचते हैं, जो हम चाहते हैं। जैसे हमें बनना है, जो हमारी इच्छा है, हमने जो कल्पना किया है। वास्तव में प्रकृति उन समस्त विचारों को समझतीं है। वह अवसर भी प्रदान करती है, लेकिन सबसे बड़ी अप्राप्य होने का कारण हमारा विश्वास हैं। जितना हम प्रकृति के रहस्य को समझेंगे, जितना हम जीवन के लक्ष्यों के करीब पहुँचें। हमें मिलेगा अनंत प्रकृति पर विश्वास का नियम, जो हमें यह सीखलाती है की जीवन सिर्फ धन नहीं मनुष्य के कर्म को गर्त के बजाय श्रृंग के शीर्ष पर स्थापित करने को आशातीत है।
अनंत प्रकृति पर विश्वास का नियम सिर्फ विचारों का आमंत्रण और विश्वसनीयता पर खरापन की तलाशती है। लेकिन प्रश्न यह उठता है की जीवन के किन लक्ष्यों के लिए अनंत प्रकृति पर विश्वास के नियम लागू होने चाहिए। प्रकृति तो अनंत है, जहाँ विचारों के, विकारों के और तो और विनाशों के समीकरण भी प्रासंगिक है। लेकिन हम जीवन के लक्ष्यों की संकल्पना गढ़ रहे हैं। जिसकी सीमा और समीक्षा दोनो आवश्यक है। जैसे जीवन के सांसारिकता से जूझते मनुष्य से मोक्षमर्मदर्शी तर्कों के संबंध में प्रतिक्रियात्मक यदि सलाह लें तो, ठूंठ ही प्राप्त होगा। वास्तव में जीवन का लक्ष्य सांसारिकता के इस रंगमंच पर उत्कृष्ट अभिनय के साथ-साथ एक उद्देश्यात्मक मील का पत्थर स्थापित करना आवश्यक है। जो आने वाली पीढ़ी के लिए उदाहरण बन सके। यदि आप इस भौतिक मोहपाश वाले सांसारिक परिदृश्य से बाहर निकल सकते हैं, तो उदासीनता के चरमोत्कर्ष पर निवासित होकर, अनंत शांति और अपार प्रकृति सृजनशीलता की शक्ति को प्राप्त कर लेंगे जो सिर्फ आपको इच्छाशक्ति के आधार पर सहायक पृष्ठभूमि तैयार कर देगी। बांकि आपके कर्म शेष कार्य को पूर्ण करने में सक्षम है। यदि इस मर्म को समझ सकें तो चलिए चल निकलते हैं अन्यथा, सांसारिकता के भँवर में तो रोज मनुष्य मगरता है। यह मनुष्य ऐसा भी है जो पुष्प की लाशों पर ताजगी चाहता है। प्रासंगिक सत्य की सत्ता से परे, न जानें उलझा मनुष्य क्या चाहता है?
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़