Tuesday, August 30, 2022

विद्यार्थियों में विद्यालय-संस्कृति का विकास करना नैतिक जिम्मेदारी/ Moral responsibility to develop school culture among students


                              (चिंतन

डिजिटलाइजेशन से मेरा कोई विरोध नहीं है लेकिन विषय तब गंभीर हो जाता है। जब बेतरतीब इंटरनेट की पहुँच बच्चों के हाथों तक होती है। इंटरनेट, जहाँ सूचनाओं के विस्फोट के साथ-साथ वैश्विक रूप में मार्केटिंग के लिए विभिन्न प्रमोशनल विज्ञापन का दौर चल निकला है। ऐसे में मोबाइल या स्मार्टफोन से सीधे इंटरनेट से जुड़ने के कारण बच्चों के जिज्ञासु मन में कई नैतिक- अनैतिक विचारों को जन्म दिया हो, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है। कोविड-19 के दौर में लॉकडाउन-अनलॉक के धूप छाँव में कई बदलाव देखे गए। इस दौर में शिक्षा व्यवस्था के परम्परागत माध्यम यानी विद्यालय-संस्कृति से इतर, विद्यार्थियों को ऑनलाइन माध्यम से शिक्षा देने की विवशता थी। अब विचारणीय है की जिन बच्चों के मनोपटल पर स्मार्टफ़ोन प्रेम अत्याधिक था, उनके लिए तो यह क्षण गौरान्वित करने वाला रहा ही, इसके साथ उनमें इंटरनेट के माध्यम से कई ऐसे भी संगतियों का सहारा मिला जो वर्चुअल होकर भी उनके लिए एक्चुअल हो गया।
           दो साल के पूर्ण विद्यालय-संस्कृति के स्थगन के पश्चात् पून: ये विद्यालय, महाविद्यालय परम्परागत तरीकों से लगने प्रारंभ हुए है। इस बीच दो वर्ष का समयांतराल रहा उस दौरान विद्यार्थियों के मन:पटल पर भारी परिवर्तन हुआ है। जो उनके अभिव्यक्ति और व्यवाहर कौशल पर भी दिखाई देता है। उदाहरणतः समझने का प्रयास करें तो जो छात्र कोविड-19 के दौर में कक्षा- दसम् में रहा वह दो साल तक लगातार आनलाइन शिक्षा, दीक्षा और परीक्षा के माध्यम से सीधे महाविद्यालय के दहलीज पर पहुँच गया है। एक ओर जहाँ आनलाइन परीक्षा के माध्यमों में बड़ा प्रश्न परीणाम और प्रश्नोत्तर के आनलाइन पर्चों के प्रवीणता पर संदिग्धता का लोप है। जो सीधे-सीधे कॉपीपेस्ट परम्परा की ओर इशारा करती है। वहीं दूसरी ओर केवल उत्तीर्ण करने के नाम पर बिना किसी साक्ष्य और समीक्षा के मिठाई की तरह अंकों का बटवारा कर दिया गया था। जो वर्तमान समय में चिंता का सबब है। कई संस्थान जहाँ उपस्थिति के लिए यदि कड़े प्रतिबंध नहीं लगाए गए हैं वहां बच्चों की संख्या उपस्थित शिक्षकों की संख्या की आधी भी है।
             यदि किसी विद्यार्थी के हित के लिए शिक्षक द्वारा अनिवार्य उपस्थिति की बात हो तो, छात्र ड्राप-आऊट की स्थिति में निपूर्णता दिखाते है। बहरहाल, चिंता का विषय है कि दो साल के समयावधि में निर्धारित विद्यालय-संस्कृति से दूर रहने वाले छात्रों का दोष नहीं है। वास्तव में इन बच्चों के मन:पटल पर बेतरतीब विचारों के आपतन ने आदतन उन्हें गैरजिम्मेदार बनने के मार्ग में चलने की ओर ढ़केल दिया है। जिस उम्र में उन्हें कल्चरल एक्टिविटी और सोशल नेचर सीखना था, उसी दौर में वे इंटरनेट के कामुक सामग्रियों के भँवर में फसकर, ऐसे अभिवृत्ति का प्रदर्शन कर रहा है। जो उसके लिए सुधारात्मक, उपचारात्मक या निर्देशात्मक व्यवाहर कौशल रखने वाले व्यक्तियों के प्रति संदेह और वैमनस्यता का बीजारोपण करने के लिए काफी है। हमारी संस्कृति जहाँ गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णू, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः यानी गुरु ही श्रेष्ठ है बताती है। ऐसे अद्वितीय और शिष्ट विचारधारा पर वर्तमान इंटरनेट-संस्कृति के युवा ब्रांड एम्बेसडर के हाथों अशुद्धिकर का प्रयास कहीं ना कहीं हो रहा है। जनवरी 2021 में शिक्षा के क्षेत्र में लगातार कार्यों के लिए मशहूर अज़ीम प्रेमजी विवि की तरफ़ से यह सर्वे करवाया गया है। हुआ यह सर्वे छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तराखंड के 44 ज़िलों के कुल 1,137 सरकारी स्कूलों के कक्षा 2 से कक्षा 6 तक के 16,067 छात्रों पर किया गया। यह सर्वे बताती है कि विद्यालय न खुलने से छात्र ना सिर्फ अपनी वर्तमान कक्षाओं के सबक को ठीक ढंग से नहीं सीख पा रहे हैं, बल्कि पूर्व कक्षाओं में जो सीखा था, उसे भी विस्मृत करने लगे हैं। यह सर्वे बताती है कि, 92 फिसदी बच्चे भाषा के मामले में कम-से-कम एक विशेष बुनियादी कौशल को भूल चुके हैं। कक्षा 2 के 92फिसदी , कक्षा 3 के 89 फिसदी, कक्षा 4 के फिसदी, कक्षा 5 के 95 फिसदी और कक्षा 6 के 93फिसदी छात्रों में यह कमी देखी गई है। इस सर्वे में भाषाई स्तर पर छात्रों के बोलने, पढ़ने, लिखने और उसे सुन या पढ़ कर स्मरण करने की क्षमता को भी जांचा गया। जो विद्यार्थियों में बुद्धि लब्धि के कमतर होने का प्रमाण देते हैं।
          बहरहाल, हम सभी यानी पालक, अभिभावक और शिक्षकों की नैतिक जिम्मेदारी है की ऐसे विद्यार्थियों को सर्वांगीण विकास और बुद्धिमत्ता में वृद्धि के लिए निरंतर प्रयास करेंगे। उपचारात्मक पहलों की आवश्यकता है जहाँ बच्चों को सीखाने, इंटरनेट की लत से बाहर निकाल कर परम्परागत विद्यालय-संस्कृति के गुर पुन: देने होंगे। तब जाकर हम आने वाली भावी पीढ़ी को बुद्धिमान और परिवेश के लिए सामन्जस्य बैठा पाने वाला कुशल सामाजिक प्राणी बना पायेंगे। 



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़