Tuesday, August 30, 2022

शानदार सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है हथकरघा उद्योग / Handloom industry is a symbol of glorious cultural heritage




                        (अभिव्यक्ति

सीखें मकड़ी के जाले से बुनना, कोसा के धागों को चुन-चुनकर, पेशे से नाम मिला फक्र से कहलाता हूँ मैं बुनकर..!!! कहलाता हूँ मैं बुनकर...!!! भारतवर्ष में वस्त्र बनाने की दीर्घ एवं सुद्रढ़ परम्परा रही है। बुनकरों के द्वारा कपड़ो में अपनी संस्कृति की छाप छोड़ने की निपुण कला होती है। भारतवर्ष में कई सदियों से वस्त्र निर्माण का कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता आ रहा है। वस्त्रों के निर्माण के लिए भांति-भांति प्रकार की सामग्रियों और तकनीक का प्रयोग किया जाता है। भारतीय कपड़ा उद्योग क्षेत्र में दो प्रमुख आधार हथकरघा एवं पावरलूम रहे है। जिनकें द्वारा कपड़ो की बुनाई की जाती है।ऐसे पेशे में दिनरात जी तोड़ मेहनतकश कारीगरों को बुनकर की संज्ञा दी जाती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता कार्यक्षेत्र हथकरघा है। जो आकड़ों के हिसाब से लगभग 23.77 लाख हथकरघों के साथ 43.31 लाख कारीगरों के हुजूम को रोजगार प्रदान करता है। देश में वस्त्र उत्पादन में इस क्षेत्र का लगभग 15 प्रतिशत योगदान है। इसके साथ ही देश की निर्यात आय में भी हथकरघा उद्योग का बड़ा योगदान है। विश्व का 95 प्रतिशत हाथ से बुना कपड़ा भारत में निर्मित होता है। जिसकी वैश्विक पटल पर मांग बहुत है।
              हथकरघा का कार्यक्षेत्र देश की शानदार सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है और जो देश में आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है। हथकरघा से जुड़े पेशेवरों में महिला सशक्तिकरण का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि 70 प्रतिशत हथकरघा बुनकर और संबद्ध श्रमिक मातृशक्ति के प्रतिनिधित्व में हैं। गौरतलब है कि आजादी के पूर्व एवं स्वतंत्र भारत में इस उद्योग के विकास पर तत्कालीन सरकार द्वारा विशेष ध्यान दिया गया है। सन् 1940 में पहली बार भारत ने व्यवस्थित रूप से हथकरघा उद्योग के गठन कार्यप्रणाली एवं विविध पहलुओं पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया।  कुटीर यानी छोटे या घरेलू उद्योगों के कारीगरों को आर्थिक सुरक्षा व इस व्यवसाय में संगठित कर स्थायित्व देना प्राथमिक उद्देश्य था । उक्त कालावधि में भारत में विदेशी आय का मुख्य स्रोत कपड़ा व्यापार ही था। इस कारण विदेशीं मुद्रा के लिए हथकरघा उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना आवश्यक हो गया।
           समय के पहिए के साथ-साथ हथकरघा उद्योग में कई अमूलचूल परिवर्तन होते रहे और सरकार भी इस उद्योग को बढ़ाने के उद्देश्य से कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोगी की भूमिका में रही हैं। इसी तारतम्य में वर्ष 1980, 81 एवं 1985 की भारतीय वस्त्र नीति में भी हथकरघा उद्योग क्षेत्र को विशेष रूप से केन्द्रीयता प्रदान की गई। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय पार्लियामेंट द्वारा वर्ष 1985 में भारतीय हथकरघा अधिनियम (एक्ट) पारित किया गया। वर्तमान परिदृश्य में हैडलूम भारत की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभा कर आय के स्त्रोतों का प्रधान सेवा क्षेत्र बन गया है। कुछ साक्ष्यों के आधार पर देश के तकरीबन 70 लाख कर्मिकों व कारीगरों को इस क्षेत्र से प्रत्यक्ष रोजगार प्राप्त हो रहा है।
              ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था में हाथकरघा उद्योग का रोजगार एवं श्रम सृजन के दृष्टि से महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। हमारे छत्‍तीसगढ़ राज्‍य में यह उद्योग हाथकरघा बुनाई के परम्‍परागत धरोहर को अक्षुण बनाये रखने के साथ ही बुनकर समुदाय के समाजिक, सांस्‍कृतिक परंपराओं को प्रतिबिंबित करता है। यहाँ लगभग 54 हजार कारीगर हाथकरघा उद्योग में प्रत्‍यक्ष एवं अप्रत्‍यक्ष रूप से वैश्विक पटल पर अपनी कारीगरी का लोहा मनवाते हैं। रोजगा राज्‍य के बिलासपुर, रायगढ़ एवं चांपा- जांजगीर जिले के कोसा वस्त्र न केवल देश बल्कि विश्‍व बाजार में अपनी पहचान बनाये हुये है। छत्‍तीसगढ़ के कई जिले जैसे गरियाबंद, कोण्डागांव रायपुर, धमतरी,महासमुंद, बलौदाबाजार, , बालोद, मुंगेली, कांकेर, बिलासपुर, कवर्धा, कोरबा,अंबिकापुर, दुर्ग,बेमेतरा राजनांदगांव बस्‍तर में हाथकरघा सूती वस्‍त्रों की एक विशिष्‍ट परंपरा एवं पहचान है। ई-सेलिंग की सुविधा एवं आधुनिक संसाधनों के माध्यम से डिजिटल होते हथकरघा दुकानों के पहुँच वैश्विक पटल पर तेजी से हो रही है। हथकरघा से बने उत्पादों की अर्थव्यवस्था में बढ़ती मांग को देखते हुए। छत्‍तीसगढ़ राज्‍य में कई योजना जैसे- समग्र हाथकरघा विकास योजना, नवीन बुनाई प्रशिक्षण, कौशल उन्नयन प्रशिक्षण, नवीन डिजाईन विकास, उन्नत उपकरण सहायता, करघागृह सहायता, भवन जीर्णोधार सहायता, रिवाल्विंग फण्ड योजना, स्व. बिसाहूदास महंत पुरस्कार योजना, दीनदयाल सर्वश्रेष्ठ हाथकरघा बुनकर पुरस्कार, बाजार अध्ययन एवं हाथकरघा प्रदर्शनी सहित राजकीय स्तर पर कई योजनाओं का संचालन हो रहा है। जो नव बुनकर से लेकर वरिष्ठ बुनकरों को कौशल विकास, संवर्धन, संरक्षण, आर्थिक सहयोग सहित पुरुस्कृत करने का कार्य करती है। वहीं केन्द्र शासनाधिन प्रवर्तित योजनाओं में राष्ट्रीय हाथकरघा विकास योजना, बुनकर मुद्रा योजना, हाथकरघा बुनकर व्यापक कल्याण योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना भी सक्रिय हैं। जिनका लाभ बुनकरों तक पहुँच रहा है।
        बहरहाल, बुनकरों को उनकी कला एवं हुनर को पहचान तो अवश्य मिल रहा है। लेकिन कम दैनिक आय और बढ़ती महंगाई इनके चिंता का सबब है। योजनाओं के रोड मैंप तो बेहतरीन हैं लेकिन भोले भाले ये बुनकरी के पेशेवरों को लाभ शत्- प्रतिशत पहुँच इसकी नैतिक जिम्मेदारी इन योजनाओं में संलिप्त आधिकारियों और कर्मचारियों की है। क्योंकि बुनकरों को अपने कारीगरी के अलावे योजनाओं से जुड़े बारीकियों से अनभिज्ञता भी, वास्तविकता के धरातल के नींव को कमजोर और खोखल कह देता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्‍तीसगढ़