(अभिव्यक्ति)
सौदेबाजी आम तौर पर बातचीत, प्रशासन और दो पक्षों के बीच एक लिखित समझौते की व्याख्या को संदर्भित करती है। जो समय की एक विशिष्ट अवधि को कवर करती है। यह अनुबंध या अनुबंध, रोजगार की शर्तों के संदर्भ में, कर्मचारियों पर कुछ सीमाएं लगाता है और प्रबंधन के अधिकार को प्रतिबंधित करता है। यह वह प्रथा है जिसमें संघ और कंपनी के प्रतिनिधि एक नए श्रम अनुबंध पर बातचीत करने के लिए मिलते हैं।
वैसे मेरा लक्ष्य किसी व्यवसायी प्रतिमानों में होने वाले समझौते नहीं अपितु व्यवहारिक विषयों पर होने वाले समझौते के बारे में बात कर रहा हूँ। इस समझौते से पहले दबाने के प्रयास के रूप में हॉनर किलिंग के मसलों पर भी रौशनी डालने का प्रयास कर रहा हूँ। भारतवर्ष के कई राज्यों में यह आम है। जहाँ सम्मान के नाम पर निर्मम हत्याएं आम है। विवाह यदी पारिवारिक सहमति और सामाजिक दायरो के बीच हो,तो सबकुछ जायज माना जाता है। चाहे वह दहेज के नाम पर भेड़ बकरी की तरह निलामी क्यों ना हो। लेकिन यह विवाह यदि प्रेम संबंधों पर आधारित हो। तब तो समझ लिजीए बड़ा महंगा सौदा हो गया है। और यदि यह अंतर्राजाति व्यवस्था को चुनौती देने वाला हो गया, फिर क्या है यह तो लोगों के नजरों में चुभन पैदा करने वाला हो जाता है।
समाज के ठेकेदारो की चौपालें तो वैसे भी शब्दों के तेज धारदार कटाक्षों के लिए तैयार बैठे रहते हैं। ऐसे में परिवार के लोगों में भी अपने ही सदस्यों के प्रति द्वेष और वैमनस्य बनने में देर कहाँ लगता है। मसला दबाने के प्रयास में झगड़े, दोषारोपण और सामाजिक दबाव के साथ दो पारिवारिक संबंधितों के बीच झड़प होना तो आम बात है। यह वह दौर है जब प्रेम में गिरफ्तार दो पंक्षी या तो टूट जाते हैं और प्रेम का वाष्पीकरण होना तय हो जाता है। परिणामस्वरूप देखा यह जाता है की दोनो का ब्याह सामाजिक दबाव के बीच कहीं और कर दिया जाता है।
अगर इस तीक्ष्ण चढ़ाई को भी यदि प्रेमी युगल पार कर लें तो, नौबत हॉनर किलिंग के दरवाजे तक पहुँच जाता है। यदि संभव हुआ तो इसके लिए बकायदा प्लानिंग, प्रौपगैंडा और एसाइन्मेंट्स दिये जाते हैं। यदि परिवार वालों ने साथ दिया तो, सामाजिक बहिष्कार और निवास स्थल से निकाले जाने के लिए धमकियाँ देकर हृदय परिवर्तन तो कराना कौन-सा बड़ा काम है? जैसे-तैसे इन अड़चनों से भी यदि वह युगल पार पा लेते हैं। सामाजिक बहिष्कार के दंश के बीच अपने जिंदगी का निर्वाह तो करते है। लेकिन दोनो समाज के लोगों के लिए तब भी वे सॉफ्ट टार्गेट होते हैं। क्योंकि उन्हे तो उदाहरण ही प्रमाणीक करना है कि समाज से बाहर रहना कितना कठिन है। कभी बेवजह की बहस, धड़प और जातिवाद के मुद्दे के लेकर हमलावरों की संख्या कभी कम- कभी ज्यादा होता है।
इन्ही वेदनाओं के अक्षरों में परिवार को संभालने और उनके लिए अपने पूर्व परिवार के लिए कुछ करना भी हो, तो दिन के उजाले में ही मेलमिलाप हो सकता है। यदि रात रूक गए या सामाजिक कटघरे में खड़े हो गए फिर तो इज्जत के साथ दीवालियापन के लिए तैयार रहें। क्योंकि सामाजिक तंत्र के बाहर, रहने का बड़ा महंगा सौदा,जो हो गया है। बहरहाल ऐसे दंश झेल रहे लोगों के तादात तो बहुत है। मगर क्या करें जनाब रोजमर्रा की जिंदगी भी तो चलानी है। इनकी बात कौन करे? जिन्हें अपनों ने ही ठोकरों पर रखा है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़