Tuesday, March 29, 2022

आधी जिंदगी की सौदेबाजी और समाज / Half-Life Bargaining and Society


                        (अभिव्यक्ति)


सौदेबाजी आम तौर पर बातचीत, प्रशासन और दो पक्षों के बीच एक लिखित समझौते की व्याख्या को संदर्भित करती है। जो समय की एक विशिष्ट अवधि को कवर करती है। यह अनुबंध या अनुबंध, रोजगार की शर्तों के संदर्भ में, कर्मचारियों पर कुछ सीमाएं लगाता है और प्रबंधन के अधिकार को प्रतिबंधित करता है। यह वह प्रथा है जिसमें संघ और कंपनी के प्रतिनिधि एक नए श्रम अनुबंध पर बातचीत करने के लिए मिलते हैं।
       वैसे मेरा लक्ष्य किसी व्यवसायी प्रतिमानों में होने वाले समझौते नहीं अपितु व्यवहारिक विषयों पर होने वाले समझौते के बारे में बात कर रहा हूँ। इस समझौते से पहले दबाने के प्रयास के रूप में हॉनर किलिंग के मसलों पर भी रौशनी डालने का प्रयास कर रहा हूँ। भारतवर्ष के कई राज्यों में यह आम है। जहाँ सम्मान के नाम पर निर्मम हत्याएं आम है। विवाह यदी पारिवारिक सहमति और सामाजिक दायरो के बीच हो,तो सबकुछ जायज माना जाता है। चाहे वह दहेज के नाम पर भेड़ बकरी की तरह निलामी क्यों ना हो। लेकिन यह विवाह यदि प्रेम संबंधों पर आधारित हो। तब तो समझ लिजीए बड़ा महंगा सौदा हो गया है। और यदि यह अंतर्राजाति व्यवस्था को चुनौती देने वाला हो गया, फिर क्या है यह तो लोगों के नजरों में चुभन पैदा करने वाला हो जाता है।
        समाज के ठेकेदारो की चौपालें तो वैसे भी शब्दों के तेज धारदार कटाक्षों के लिए तैयार बैठे रहते हैं। ऐसे में परिवार के लोगों में भी अपने ही सदस्यों के प्रति द्वेष और वैमनस्य बनने में देर कहाँ लगता है। मसला दबाने के प्रयास में झगड़े, दोषारोपण और सामाजिक दबाव के साथ दो पारिवारिक संबंधितों के बीच झड़प होना तो आम बात है। यह वह दौर है जब प्रेम में गिरफ्तार दो पंक्षी या तो टूट जाते हैं और प्रेम का वाष्पीकरण होना तय हो जाता है। परिणामस्वरूप देखा यह जाता है की दोनो का ब्याह सामाजिक दबाव के बीच कहीं और कर दिया जाता है।
          अगर इस तीक्ष्ण चढ़ाई को भी यदि प्रेमी युगल पार कर लें तो, नौबत हॉनर किलिंग के दरवाजे तक पहुँच जाता है। यदि संभव हुआ तो इसके लिए बकायदा प्लानिंग, प्रौपगैंडा और एसाइन्मेंट्स दिये जाते हैं। यदि परिवार वालों ने साथ दिया तो, सामाजिक बहिष्कार और निवास स्थल से निकाले जाने के लिए धमकियाँ देकर हृदय परिवर्तन तो कराना कौन-सा बड़ा काम है? जैसे-तैसे इन अड़चनों से भी यदि वह युगल पार पा लेते हैं। सामाजिक बहिष्कार के दंश के बीच अपने जिंदगी का निर्वाह तो करते है। लेकिन दोनो समाज के लोगों के लिए तब भी वे सॉफ्ट टार्गेट होते हैं। क्योंकि उन्हे तो उदाहरण ही प्रमाणीक करना है कि समाज से बाहर रहना कितना कठिन है। कभी बेवजह की बहस, धड़प और जातिवाद के मुद्दे के लेकर हमलावरों की संख्या कभी कम- कभी ज्यादा होता है।
          इन्ही वेदनाओं के अक्षरों में परिवार को संभालने और उनके लिए अपने पूर्व परिवार के लिए कुछ करना भी हो, तो दिन के उजाले में ही मेलमिलाप हो सकता है। यदि रात रूक गए या सामाजिक कटघरे में खड़े हो गए फिर तो इज्जत के साथ दीवालियापन के लिए तैयार रहें। क्योंकि सामाजिक तंत्र के बाहर, रहने का बड़ा महंगा सौदा,जो हो गया है। बहरहाल ऐसे दंश झेल रहे लोगों के तादात तो बहुत है। मगर क्या करें जनाब रोजमर्रा की जिंदगी भी तो चलानी है। इनकी बात कौन करे? जिन्हें अपनों ने ही ठोकरों पर रखा है। 



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

आपके रहते किस बात की चिंता है? / What are you worried about in your life?


                         (व्यंग्य


बचपन में कोई चीज़ अगर पिता जी से मांगने की हिम्मत दिखा देते थे। यदि पिता के नजरिये में यदि वह चीज वास्तविक, लाभकारी और उपयोगी सिद्ध ना होता था तो, पिता जी पूराने ब्लैक एंड वाईट टीवी के चैनल बदलने के पारम्परिक मुद्रा में कान की खीचाई करने में देर नहीं लेते थे। उस समय तो पिता गब्बर और मैं और मेरा भाई जय-वीरू जैसा महसूस करते थे।
            लेकिन पढ़ाई-लिखाई के नाम पर चाहे जो मांगें पिता जी अवश्य ला देते थे। उस दिन पिता जी बिलकुल हिंदी माध्यम मूवी के पिता के तरह लगते थे। यार मैकेनिज्म ही समझ नहीं आता था, पिता जी में अमरिश पुरी से लेकर अनुपम खेर तक सारे किरदार इनबिल्ट थे। जब जवानी के दहलीज के थोड़ा आगे पिता जी के चप्पलें बराबर हुए तो समझ आया की पिता जी बड़े सोंच समझकर फैसले लिया करते थे।
               बहरहाल ये तो रही फैसलों की बात मगर आज कल एक गज़ब ही जीद और उसकी पूर्ति के संदर्भ में बात करना चाहूँगा। जहाँ दो साल तक हमने कोविड-19 तो झेला और झेल भी रहे हैं। लेकिन विद्यार्थियों के लिए कोविड के दौर में ऑनलाइन परीक्षा का विकल्प तो जैसे धन की कामना करने वाले उस लालची की है जिसके हाथ में कुबेर के खजाने की चाबी दे दिया गया हो। ले लूटने जितना मन किया। 3इडियाट्स के रंणछोरदास जी बोलते रह गए, 'काबिलियत के पीछे भागो, कामयाबी तो झक मारकर पीछे आयेगी।' लेकिन नहीं हमें तो प्रतिशत ऐसे चाहिए जैसे की सौ फीसदी में एक दो प्रतिशत ही कम रह जाये। शिक्षा के पावन उत्सव परीक्षा का लगभग मजाक का मुशायरा चलता रहा, और खासकर उच्च शिक्षा के विद्यार्थी जो फस्ट ईयर भी पास होने के पहले दो बार अपना मूहँ धोते वो भी फाइनल की दहलीज पर खड़े होकर कर रहे हैं। 'जहाँपनाह तुस्सी ग्रेट हो, तौफा कुबुल कीजिये..!'
         इस बार लगा की फाइनल में लटके जायेंगे। क्योंकि परीक्षा वर्चुअल नहीं धरातल में होना तो तय था। मगर फिर भतीजों को काका की याद आ ही गई। भतीजों ने पूकारा, 'कका, क्या गज़ब ढ़ा रहे हो। परीक्षा वर्चुअल नहीं धरातलीय करा रहे हैं।अपने विवि के वीसी तो हमको लटकाने पर तुले हैं,क्या ऐसे ही रिश्तेदारी निभा रहे हो? ' इस बात पर ज्यादा गौर ना करते हुए चाचा जी मुस्कुरा गए। पहले शिचुएशन देखा फिर बोले घबराना नहीं, 'कका अभी जिंदा है।' 
           इस बार तो जैसे अधपके आम बाजार में उतारे जायेंगे। ग्रेजुएशन के नाम पर 12वी फ्रेसर कल के प्रोफेशनल कहलाएंगे। रोजगार के लिए फिर अपने को क्या चिंता है, अभी तो 'कका जिंदा है।'


व्यंग्यकार
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

मैं... सारंगढ़ बोल रहा हूँ....! I am speaking...Sarangarh



         किसी क्षेत्र विशेष को जिला बनाने से विकास के बहुत से समीकरण सापेक्ष सामने आते है। जैसे उस क्षेत्र में प्रशासनिक पकड़, नव रोजगार सृजन, योजनात्मक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, संस्कृतिक संवर्धन के लिए भागिरथ प्रयास संयोजित होते है। आजकल छत्तीसगढ़ के पृष्ठभूमि में एक विवाद बेहद गहराया हुआ है। वह विवाद नव जिला के निर्माण के लिए सांरगढ़-बिलाईगढ़ के सागर मंथन का है। नामकरण से लेकर कार्यालयों के स्थापना के स्थलों तक और जातिगत समीकरण के तानेबाने के बीच राजनीति के स्वरों के टकराव हो रहे हैं। पूरा मामला तो वैसे अब माननीय उच्च न्यायालय के अदालती कटघरे में दलिलों और तारीख-पे-तारीख वाले पैरवी की ओर है। जो वर्ष 2022 में सारंगढ़ के जिला निर्माण को खट्टाई में डालकर चुनावी वर्ष 2023 तक की सीढ़ी तक खींचे जा सकते हैं।
           राजनीति के थाप पर यदि अपने-अपने पक्ष की बात दूसरे पक्ष पर ना उड़ेला जाये तो, यह कैसे संभव राजनीति हो रही है? जैसे जंगल में व्याघ्र का होना भय का प्रमाण नहीं अपितु व्याघ्र की दहाड़ दहशत बनाए रखता है। ठीक वैसे ही राजनितिक गलियारे में जिले के निर्माण के संदर्भ में एक- दूसरे पर छींटाकाशी का दौर भी चल रहा है। वहीं आपत्ति करने वाले याचिकाकर्ता के खिलाफ, होना भी न्यायोचित नहीं क्योंकि स्वच्छ लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का अधिकार है। यदि मर्म है तो फास होना भी जरूरी है। हो सकता है उनका नजरिया कुछ नया तलाश निकाले।
             जिला का गठन होने का तात्पर्य है पूर्व के जिला क्षेत्र से अलग होकर नव जिला का बनना है। सीधे शब्दों में कहें तो,स्थापित जिले से भिन्न होकर नव जिला का आकार-शाकार होता है। लेकिन नव जिले के सीमावर्ती इलाकों के लोगों के मन में पूर्व जिले में बने रहने की इच्छा सामाजिक,राजनितिक, क्षेत्रीय, या जातिगत समीकरण के मद्देनजर भी देखने को मिल ही जाता है। कई स्वरों में एक प्रधान स्वर यह भी कहता है की जिला निर्माण में केवल सारंगढ़ नाम से जिला बने, प्रशासनिक अमलों के दफ्तरों के बटवारे से स्वाभाविक है कार्य प्रभावित होंगें।
            दलिलें और विवादों के बीच, एक आवाज जो जिले के गठन की घोषणा से झुम उठा, वह हुजुम जो किसी भी कार्य के लिए कोसो दूर जिला मुख्यालय की यात्रा करते थे। वे लोग जिन्हे जिले के गठन के साथ रोजगारोंमुखी अवसर दिखे, वे व्यवसायी, उद्यमी जो नव जिला के कलेवर में अपने भावी कल के सुखद फ्लेवर तलाश रहे हैं। उनके लिए यह दौर आकांक्षाओं को तोड़ने वाला साबित हो रहा है। वे लोग जिन्होंने नवीन जिले के नाम से अपने आप को पहचाने जाने से गर्व महसूस करते, उन्हें अभी थोड़ा और इंतजार करना होगा। कुछ दिनों तक सायकिल के पहिए और ज्यादा उस युवा को घुमाने होंगे। क्योंकि जिले के गठन के लिए अभी रस्साकशी की पारंपरिक राजनीति जारी है। मौन मुस्कान लिए सारंगढ़ की जनता सब कुछ देख रही है। विकास को आमंत्रण देते, अभिनंदन करते वह क्षेत्र स्वागत् भाव से कह रहा है, 'आईये हमारे शहर में आपके स्वागत् का क्षण टटोल रहा हूँ। मैं सारंगढ़ बोल रहा हूँ।'


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

विचारधाराओं के संघर्ष में गिरता नैतिक मूल्य / Moral values ​​falling in conflict of ideologies

 
                           (अभिव्यक्ति



वर्तमान दौर में हम एक अदृश्य युद्ध लड़ रहे हैं। जरा ठहरिए जनाब यह युद्ध किसी बमों, गोलियों या हथियारों से नहीं लड़ रहे हैं। बल्कि यह जंग वैचारिक विचारधाराओं का है। जहाँ प्रत्येक विचारधारा के समर्थक अपने आप को अन्य विचारधाराओं से बड़ा समझने की चुक कर बैठता है। इस वहम में इतना मसलुफ रहता है कि उसे यह लगता है। जो कुछ भी वह अपने विचारधारा के उत्थान, प्रचार, एवं संयोजन के लिए योजन करता है। वह उसे उचित लगता है।
         कुछ ऐसे विचारधारा के प्रतिनिधि करने वाले लोगों का हुजूम होता है। जिन्हे अपने कृत्यों पर तानाशाही नही दिखलाई देता है। अपितु वह अपने तुलना में दूसरे विचारधारा के लोगों को बरगलाने का प्रयास करता है। इसी परिप्रेक्ष्य में विचारधाराओं में परिवर्तन या कहें विचारधारा के विचारों का परिवर्तन भी आज कल जोरो पर है। जैसे कोई सब्जी मंडी में भाव चल रहा हो, हमारे विचारधारा में आईये आपको अनुकूल वातावरण के साथ, अमूक-अमूक सुविधाओं का लाभ दिया जायेगा। इसके लिए दूसरे विचारधारा को नीचा, भद्दा और निम्न दिखाने का प्रयास किया जाता आया है। वहीं कई विचारधारा के पूर्व साथियों की घरवापसी का दौर भी एक ओर से चल रहा है। कुछ विचारधारा ऐसे भी हैं जो संख्याओं के मामले में बहुल्य है। लेकिन जो विचारधारा अभी -अभी बरसात के पश्चात् पनपें मच्छरों के समान है।उन्हे अपने संख्या बल में वृद्धि की होड़ मची है। इसके लिए वे साम, दाम, दंड और भेद का प्रयोग कर रहे हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है कि जो स्थापित विचारधारा हैं जिनकी संख्या बल भी और प्रतिनिधित्व में भी ठहराव है। वे अपना क्षरण देख रहे हैं। अपितु वे अपने-अपने विचारधाराओं के संरक्षण के लिए सतत् प्रयासरत है।
          विचारधाराओं के होल सेल मार्केट से बाहर निकलें तो एक पृष्ठभूमि और भी समाने आती है। वह है विचारधाराओं के बल पर राजनैतिक, आर्थिक और क्षेत्रीय अधिकारों में मज़बूत पकड़ बनाने की भी है। कुछ ऐसे ही घटनाओं के चलते दो विचारधाराओं के टकराव के बीच कम पड़ती संख्या बल वाले विचारधारा समर्थकों को अपने घर, क्षेत्र से बेदखल भी होना पड़ा गया। वहीं यह रार इतनी तेज हुई की दो विभिन्न विचारधारा के लोगों में आपसी वैमनष्यता इतनी बड़ी की, दोनो संघर्ष में एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। आपसी संघर्ष के बीच वो इतना लिप्त हुए की वे उचित और अनुचित में चयन करने की स्थिति भूल बैठे।
         बहरहाल, वर्तमान दौर शांति का है। जहाँ पूरा विश्व का प्रत्येक मानव शांति और सौहार्द्र के पक्ष का पक्षधर है। कोई जंग तो नहीं चाहते, लेकिन विचारधाराओं के अपने-अपने स्तर पर शाब्दिक, बौधिक, वैचारिक या फिर प्रदर्शन के मानकों में टकराव से खलल उत्पन्न होना तो लाजमी है। लेकिन वेदना तब झलकती है जब अल्प संख्या बल वाले विचारधारा के समर्थक अपने आप को शोषित दिखाने में सफल हो जाते हैं। और बाहुल्य संख्या वालों के लिए ध्रुवीयकरण की दोहरी मानसिकता का प्रदर्शन होता है। वहीं सूचना और प्रसारण के लिए तत्काल प्रसार की इच्छा रखने वाले प्रसारकों के लिए मुद्दा कम संख्या वाले विचारधारा के लोगों पर अत्याचार अधिक हो जाता है। वहीं बाहुल्य पर हुए आघात को नापने के लिए पृथक् दृष्टिकोण अपना लिया जाता है। 
         खैर यह तो बात उनकी है जो अपने-अपने स्वरूप में लेफ्ट-राईट की विचारधारा रखने वालों की मानसिकता है। वहीं जो लोग अपने-अपने विचारधारा के लिए दूसरों से सम्मान पाना चाहते हैं। तो उन्हे पहले उनके विचारधारा का सम्मान करना सीखना होगा। क्योंकि प्रत्येक क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया तो निश्चित होती है। अब विचार करना यह है की विचारधारा के समर्थक क्या चाहते हैं। सकारात्मक या नकारात्मक किस मार्ग की ओर आगे बढ़ना है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

भूख और गरीबी के दरमियान अग्नि परीक्षा : प्राज/ The ordeal between hunger and poverty


                             (अभिव्यक्ति

बैरंग भागती जिंदगी के दरमियाँ गरीबी के चादर और भी महंगे साबित होते हैं। वैसे तो संस्तरण की बात करें तो, उच्च, मध्य और निम्न की एक पारदर्शिता रखने वाली लाईन दो सफाई से दिखाई देती है। लेकिन हम बुद्धिजीवी मानवों में लगभग इन्सानियत और मानवता का जैसे इंक शुष्क होने के पड़ाव की ओर है। एक तरफ तो कुछ ऐसे लोगो भी है जिनके पास धन के नाम पर कुबेर के खजाने की चाबी हो। तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों का दल भी है जो प्रातः के धूप से लेकर रात्रि के चुल्हे में जलने वाली लकड़ी के मोल नहीं भर पाते हैं। मानों अर्थ की परीक्षा हो और वे ऐसे छात्र है जिन्होंने सिलेबस ही नहीं पढ़ा हो। वेदनाओं के डगर पर, छेद वाली नाव के सहारे सोचते हैं। जीवन पार कर लेंगे।
               गरीबी की बात चली है। तो राजनीति द्वार का खुलना भी आवश्यक है। जो नित्य ही गरीबी की उन्मूलन की बात तो अवश्य करते हैं। लेकिन योजना का सारा दारोमदार संभालने वाले काबिल कंधों के लालच की भेट चढ़ जाती है। गरीबी के उन्मूलन के नाम पर, मानसिक गरीबी दूर करने के प्रयास से गबन के पावन सृजन की उत्पत्ति ऐसे ही महान भ्रष्टों ने की है। जिनके पावन कर कमलों पर बड़ी से बड़ी जन कल्याणकारी योजनाओं को स्पर्श करते ही राख कर देने का यात्रिकी है।
                गरीबी के बीच एक और समीकरण तो अवश्य रखना चाहूंगा। वह समीकरण है जातिगत, वास्तव में मुफलिसी के दौर में जीवन गुजार रहे लोगों के पास तो तनिक भी समय यह नहीं होता है की वह जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ, विचार या बौद्धिक चिंतन करे। वह केवल इस बात से चिंतित रहता है की पेट का भरण कैसे हो। वैसे गरीबी के एक और स्वरूप के संदर्भ में मुझे याद आया की जब आप खुशहाल जीवन में रहे तो भूख भी सामान्य से कम लगती है। लेकिन दरिद्रता के पसरे पाँव देखते ही भूख के तो जैसे रौद्र रूप धारण कर लेता है। इसके पश्चात् तो चाहे जो हो, आदमी विवशता के बोझ में दबकर कुछ भी कर बैठता है। अंगों के विक्रय से लेकर देह व्यापार तक के घिनौना, और नीच कार्यों में संलिप्तता का प्रधान कारण भूख है। पेट की ज्वाला तो ज्वाला है जब तक भोज के कुछ कण नहीं डाले जायेंगे। तब तक तो शांत होने से रहा है। भूख के ह्रास से त्रास में जी रहा मनुष्य टूटता और बिखकर फर्श से भी मलिन हो जाता है।
                   लेकिन नैतिक और उच्च वर्गों के प्रतिनिधिमण्डल का चेहरा बने लोगों को यह कहां से समझ आता है। वे अपनी ठाठ तो प्रीतिभोज में छलकते रायते और टपकते पकवानों के झोर में तलाशतें हैं। पर कभी ये नहीं सोचते की पड़ोस में रहने वाले के घर चुल्हा जला है की नहीं?? यही विडम्बना है जो गरीबी से दो चार होते लोगों की सहयोग के लिए उठने वाले हाथो की संख्या में कमी गरीबी को सामान्तर और परस्पर बनाए हुए है। 



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

अवधारणाओं के क्षितिज पर विचारों का परास : प्राज/range of ideas on the horizon of concepts


                         (अभिव्यक्ति)


माइथोलॉजिकल, कुछ वैचारिक तथ्यों और तर्क के संबंध अनायास ही सहीं लेकिन ध्यानाकर्षण तो निश्चय ही हुआ। जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं। ठीक वैसे ही हम जो चींजे जैसे देखते है। और जैसा उसे समझने का प्रयास करते हैं। यह संभव है की वह उस प्रथम दृश्या के श्रेणी से बेहतर अलग और भिन्न हो। जैसे पांचों उंगलियाँ बराबर नहीं होते हैं। ठीक वैसे ही लोगों के वैचारिक कल्पनाशिलता और मतों में विविधता आवश्यक है। जंगल में किसी व्याघ्र से यदि सामना हो, तो संभव है आप दो स्थितियों में होंगे। पहली स्थिति यह है की आप आक्रमकता दिखाने का प्रयास करेंगे। इसके लिए हो सकता है। आप उस पर आक्रमणकारी क्रियाओं का निष्पादन भी कर दें। फलन वह भी अपनी आत्मरक्षा में प्रति उत्तर तो निश्चित ही प्रदत्त करेगा। 
           ये कोई डिबेटिक मोड नहीं है की आप कहें की अनायास ही आपके क्षेत्र में आ गए और आप ने बताया भी नहीं की इस क्षेत्र में आपका इस समय आना होगा। आप ने प्रोटोकॉल की भूमिका का निर्वाहन नहीं किया है। वहीं दूसरी शैली की बात करें तो आप समर्पण की भूमिका में आ जायेंगे। यह भी निश्चित है की इस स्थिति में भी नुक्सान आपका ही होना तय है। क्योंकि व्याघ्र तो वैसे भी प्रकृति से हिंसक है। लेकिन इस अवस्था में आप अपने आप को क्षीण और डरा पायेंगे। वहीं मनोबल का टूटना तो स्वाभाविक है तभी तो जाकर आप ने समर्पण के मार्ग का चुनाव किया है।
             दोनो ही स्थितियों के आकलन के उपरांत आप पाते हैं की दोनो ही स्थिति में नुक्सान तो केवल उस मनुष्य का हुआ। वहीं व्याघ्र की भूमिका पर आपकी वैचारिक दृष्टिकोण यह होगा की, व्याघ्र एक हिंसक जानवर है। जो अपने क्षेत्र में आये हुए, किसी भी जीवन पर हिंसक करने के लिए आतुरता दिखलाता है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। आईये अब सिक्के को उल्ट कर देखने का प्रयास करते हैं। यहां पर वह एक्यूस्ड नहीं है बल्की जो व्यक्ति विशेष उसके सम्राज्य क्षेत्र के अंदर प्रवेशित किया है, वह ही प्रधान एक्यूस्ड है। क्योंकि उसका कानन तो शांति के चादर में उदासीनता प्रधानत्व से लब्धिनिधानाय था। जिस पर कोलाहल की प्रविष्टियाँ तो उस व्यक्ति विशेष ने दिखलाई। वह इंसान को देखकर हीं डिफेंसिव मोड में आया और रक्षात्मक रवैय्या अपने हुए उसने हमला किया। यहाँ पर गलती किसी है?
            यहाँ पर हम थोड़े बायस भी नज़र आते है। क्योंकि इंसान तो अपने प्रजाति का है। जो एक समय पर चलने के लिए एक ही पैर उठाता है। जबकी व्याघ्र जो खूद को भी एक्यूस्ड बताता है उसकी दलिलें हम नज़र-अंदाज करने में देर कहाँ लगते हैं। ठीक ऐसे ही समाज में विभिन्न वर्गों के लोगों के संस्तरों से समाज बना है। कभी-कभी अपनी विशालता और महानता दिखलाने के लिए प्रदर्शन इतना कर बैठते हैं की संस्तरों की सीमा लांघ जाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप दो विभिन्न वर्गों में टकराव और एक वैचारिक खाई पनपने लगती है। जो समय के साथ बड़ी भी होते जाती है। सोशल से शोषण की ओर बढ़ने के लिए विभिन्न विचारधाराओं के टकराव की अवधारणा ही काफी है। जो समाज और नैतिकमूल्य को छिन्न-भिन्न करने के लिए अकाट्य वज्र के समान है। शेष चिंता और चिंतन आपके हाथों में है। सिक्के के एक पहलु और पक्षपात से रहित होकर अनुकरण करेंगे या भीड़ की संख्या में अपना अमुल्य योगदान देंगे। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

परम्पराओं के संरक्षण और अद्यतन में रस्साकशी का खेल : प्राज / A game of tug of war in the preservation and updating of traditions


                          (अभिव्यक्ति)


परम्परा जो पूर्व समय से चली आ रही वह परिपाटी है जहाँ नियमों, विधानों और प्रथाओं की पीढ़ी दर पीढ़ी संचरण होता है। समाजशास्त्री गिन्सबर्ग लिखते है, 'परम्परा का अर्थ सम्पूर्ण विचारों ,आदतों और प्रथाओं के योग से है। जो एक समूह की विशेषता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती है।' वहीं रॉस के अनुसार, 'परम्परा का अर्थ चिंतन और विश्वास करने की विधि का हस्तान्तरण।' जेम्स ड्रीवर के अनुसार, 'परम्परा कानून प्रथा कहानी और पौराणिक कथाओं का वह संग्रह है जो मौखिक रूप में एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।'
            कहने का तात्पर्य है की परम्परा का संरक्षण एवं पूरानी पीढ़ी से नव पीढ़ी में हस्तांतरण की जिम्मेदारी भी समाज के वरिष्ठों की होती है। परम्परा व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करती है। परंपरा, कुछ निश्चित व्यवहार प्रतिमानों को प्रस्तुत करती है और समाज के सदस्यों से यह आग्रह करती है कि वे उन्हीं प्रतिमानों का अनुसरण करें परम्परा के पीछे अनेक पीढ़ियों का अनुभव तथा सामाजिक अभिमति होती है, और इसीलिए इसमें व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करने को शक्ति होती है। सामाजिक निन्दा के डर से ही व्यक्ति परम्परा को तोड़ने का साहस सामान्यत: नहीं करते। परम्परा' किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं होती, वह तो 'सब' की होती है। यह सब प्रत्येक' पर अपना नियन्त्रणात्मक प्रभाव डालता है, और उसके व्यवहार को निर्देशित व संचालित करता है।
              परम्परा यानी सामाजिक अनुशासन की संज्ञा भी दिया जा सकता है। चुंकि अनुशासन बनाए रखना है तो यह दायित्व भी होता है की जो वरिष्ठ हैं, उनके तेवर तल्ख हों, और वाद-प्रतिवाद में कटाक्ष की प्रचुर मात्रा का संकलन अवश्य हो। स्वाभाविक भी है की यदि समाज में वरिष्ठों की पकड़ का एब नहीं हो तो टूटने की प्रक्रिया भी जल्द ही घर कर लेती है। बहरहाल, पूरानी पीढ़ी जो परम्पराओं को संजोकर, संवर्धित और सर्वभौम रखना चाहती है। वहीं नव पीढ़ी के लोगों में परम्पराओं में अमूलचूल परिवर्तन करने की स्वीकार्यता रहती है। इसी वैचारिक संधि स्थल पर नव पीढ़ी और पूरातन पीढ़ी के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है। यह संघर्ष एक ओर जहाँ परिवर्तन की बयार लेकर आता है। वहीं दूसरी ओर आपसी वैमनस्य की जन्मस्थली बन जाती है। 
              जहाँ नवांकुरों में नव परिवर्तन को आत्मसात् और वृद्धों में अतित को संजोने की जीद के चलते यह संघर्ष बढ़ने से सामाजिक स्तर में द्वी-पक्षीय तनातनी की स्थिति स्वत: निर्मित हो जाती है। नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के फलन शहर की ओर बढ़ने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ा है। जो विभिन्न संस्कृति एवं परम्पराओं के मानने वाले होते है। नगर में निर्मित नवीन समाज में जहाँ परस्परता और लोगों में आपसी सौहार्द्र बढ़ता है। तो परम्पराओं में परिवर्तन तो लाजमी हैं। कभी कभी परम्पराओं के प्रदर्शन की परिपाटी से भी समाज में संघर्ष उत्पन्न होता है। जो समाज के उत्थान और सौहार्द्र के लिए उचित नहीं है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

कंकरीट के शहर में खोया ठहाकों का एक जंगल/ A forest of laughter lost in the city of concrete


                          (अभिव्यक्ति)

   पारिवारिक संरचना से लेकर सामाजिक परिवेश तक मानवीय व्यवहार कौशल में प्रत्यास्थता का बोध होने लगा है। जो जटिल है और अपरिभाषित भी है। जैसे नगरीकरण पर चोट करती एक पंक्ति कहती है कि, 'अब तो सिर्फ इस शहर में मकान बसते है। और कंकरीटों में क्या इन्सानियत ढूढ़ रहा है। जिन्दा भी है की नहीं क्या पता, शहर में बस परेशान बसते हैं।' जिन्दगी की आपाधापी और पूंजीवाद के बिखेरे सुख भोगने के पीछे भागते इंसान की हालत उस श्वान से कम नहीं जो हड्डी की लालच में चमार के सायकल में लटकते जानवरों के अस्थि-पंजर के पीछे दौड़ता है। मिलने के लिए तो सिर्फ डाट और डंडा ही है। लेकिन क्या पता कुछ टूट कर गिर जाये। इसी मरीचिका के फिराक में दौड़ता इंसान अपनी इंसानियत से हाथ धोकर गिरगिट के खोल ओढ़ने लगा है।
         व्यवहार शैली जहाँ पहले अपनत्व प्रधान थी। वर्तमान में प्रोफेशनल हो गई है। जैसे आवश्यकता अनुसार गिरगिट के रंग बदलते हैं। ठीक वैसे ही हवा के रूख बदलते देखते हैं, तो लोगों में रंग बदलने की परम्परा का निर्वाह करना तो जैसे निर्बंध कार्य हो। स्वाभाविक है की व्यवहार प्रत्यास्थता के पीछे भी कुछ वजह हों। जैसे पूंजी, ऐश्वर्य और अपने स्तर में परिवर्तन को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च मानना होता है। पहले जहाँ लोगों में आपसी अपनत्व और सामाजिक बंधुता प्रमुख था। लेकिन आधुनिकता के इस पावन बेला में समाज के प्राणियों का अपग्रेडेड वर्जन इतना भारी है की बतायें क्या? अभी की वर्तमान जनरेशन, अनुभव से ज्यादा तो उदाहरणों को प्रासंगिक मानने लगी है। जो प्रदर्शन और दूसरे लोगों को ईर्ष्यालु प्रवृत्ति से जलाने की रहगुज़र पर निकल पड़े हैं।
             नगरीकरण के गोद में पूंजीवाद का लालन-पालन हुआ। जो लोगों में बौधिक की अपेक्षा भौतिक सुख के लिए प्रेरित करने पर आमादा है। इसके लिए चाहे मनुष्य छली, जालसाज़ी, भ्रष्ट और अमानवीयता की ओर जाना क्यों पड़े कोई गुरेज़ नहीं है की प्रकृति के साधक बन बैठा है। शहर की हवा में जहाँ एक ओर प्रदुषण तो दूसरी ओर मानवता में संबंधों में आवश्यकता की प्रधानता, और व्यावहारिकता का गौण होना भी सामाजिक पारिस्थितिकी के लिए हानिकारक प्रदुषित वातावरण के समान है। कठोर और काम चलाऊ प्रकृति के संबंधों के चलते जीवनकाल में मनुष्य नाम,मित्र और स्नेह के बजाय आपसी वैमनस्य बनाए फिरता है। जो उसके भावी कल के समय में केवल शुन्यता के काल कोठरी में भूलने वालें यादों की तरह रखकर भूला दिये जायेंगे।
           हास-परिहास तो छोड़िये जनाब, नगरीकरण के इस कठोर दलदल में कंकरीट के सड़कें, मकान और ईमारतें तो काबिज हो गए हैं। लेकिन इन्सानियत का बसाहट अभी कोसो दूर है। निर्जल सीमेंट के मरूथल में लोग रहते तो है। लेकिन सिर्फ अपनी जिंदगी के सुगमता और जीवन में भौतिकता के लोभी बनकर, अपनों से पराये होने लगे हैं। यहाँ पड़ोसी को इस बात की चिंता नहीं की मेरा पड़ोस कैसा है? क्या उनके घर में खैरियत है की नहीं? अपितु वह चिंता इस बात से है की उसके घर का उपस्कर मेरे घर से ज्यादा अच्छा, ऊँचा और महंगा तो नहीं है। लोगों में एक दूसरे को दिखाने के लिए हास्य विनोद की बातें तो जैसे बचकानी हरकतों से कम नहीं लगते हैं। बहरहाल, नगरीकरण के अप्रकृति सौंदर्य के दर्शन में आप सभी का स्वागत है क्योंकि नगरों की ओर तो हर परेशान व्यक्ति अपनी हल खोजने की तलाश में माइग्रेट हो जाता है। इसके पश्चात नगर का होकर, मानवता को ठूंठ बनाने में देर नहीं करता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

अपनों के सताए और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों से बंधे...!! Persecuted by loved ones and bound by family responsibilities...!!


                          (परिदृश्य)

परिवार एवं पारिवारिक पारिस्थितिकी तंत्र में कई पड़ाव और स्तर होते हैं। जैसे समाज में परिवार एक इकाई है। जिसमें परिवार के मुखिया, पत्नि और बच्चों की अवस्थिति सुनिश्चित है। वहीं रक्त संबंधितों को भी परिवार की संज्ञा दिया जाना आवश्यक है। क्योंकि वो भी परिवार का ही हिस्सा है। ना कि सामाजिक परिक्षेत्र के हैं। यानी इन्हें हम बोलचाल की भाषा में सगे संबंधियों की संज्ञा दे सकते हैं। समाज में प्रत्येक चर का होना जैसे अनिवार्य है ठीक वैसे ही संबंधों का होना पारिवारिक सौहार्द्र के लिए नितांत आवश्यक है। 
              परिवार को परिभाषित करते हुए जुकरमैन कहते हैं की,'एक परिवार समूह, पुरुष, स्वामी उसकी स्त्री और उनके बच्चों को मिलाकर बनता है और कभी-कभी एक या अधिक विवाहित पुरुषों को भी सम्मिलित किया जा सकता है।' इनकी परिभाषित शब्दों में पुरूष प्रधान समाज की प्रमुखता झलक रहा है।इसी संदर्भ को विस्तृत रूप में मैकाइवर और पेज कहते हैं की, 'परिवार वह समूह है जो कि लिंग संबंध के आधार पर किया गया काफी छोटा और स्थाई है कि बच्चों की उत्पत्ति और पालन-पोषण करने योग्य है।' यहां पर किसी व्यक्ति विशेष को मुखिया नहीं कहा गया। इस परिभाषा में जो सक्षम हो वह पारिवारिक समूह का नेतृत्व कर सकता या सकती हैं।  सर्वश्री वील्स तथा हाॅइजर कहते हैं कि, 'परिवार को संक्षेप में एक सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके सदस्य रक्त के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।'
             अब बात करें रिश्ते-नातों और संबंधों की जो परिवार के द्वितीयक स्तर में होते हैं। जिनकी अभिव्यक्ति हम संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता के आधार पर भी कर सकते हैं। बहरहाल किसी ने संबंधों पर कटाक्ष करते हुए बड़ा खुब कहा कि, 'घाव तो वहीं देते हैं जिनसे लगाव हो।' पारिवारिक पारिस्थितिकी में एक दूसरे से लगाव, प्रेम, स्नेह तो होना स्वाभाविक है। लेकिन रिश्तों के बदलते प्रासंगिकता प्रारूपों के आधार पर व्यवहारिक संबंधों के बीच छल, कपट, आपसी वैमनस्य और नीचा दिखाने की प्रकृति का होना भी किसी आश्चर्य की बात नहीं है।
              पारिवारिक पारिस्थितिकी में कुछ ऐसे पारिवारिक चर भी होते हैं। जिनका कार्य केवल दोषारोपण और अवक्षेपण करना होता है। वे किसी भी काम के पीछे के उद्देश्यों में भी मीनमेंख निकल ही देते हैं। कुछ पारिवारिक संबंध तो ऐसे भी होते हैं। जो सिर्फ इसलिए मिलते हैं तांकि एक दूसरे की कमजोरी भांप सकें और उसका दूषप्रचार सामाजिक तंत्र के विभिन्न स्तरों तक प्रसारण कर सकें। कहने के लिए तो संबंधों की डोर में अपनों की श्रेणी में रहते हैं। लेकिन परिवारिक संसर्जन से कहीं अधिक पारिवारिक खंडन और हनन की ओर रस्साकशी करने में कोई कोताही नहीं बरततें हैं।
              संयुक्त परिवारों में बटवारें और घरों के बीच दीवार का खड़ा होना। मेरे तर्क को मजबूती अवश्य ही प्रदान करेगा। जहाँ भाई-भाई से अनबन कर बैठता है। जहाँ पिता -पुत्र के संबंधों में अपनेपन का ह्रास हो जाता है। जहां माता अपने संतान को नहीं भाती है। जहाँ लड़कर एक परिवार दो फाड़ में नजर आता है। वहीं ही परिवार का मुखिया मौन दृढ़राष्ट्र के भांति जिम्मेदारी के कलेवर को संभालने के लिए अपने नैतिक मूल्यों के विरूद्ध चुनौती पूर्ण फैसले करने पर मजबूर हो जाता है। संबंधों और पारिवार के जिम्मेदारियों के बीच मुखिया मानों रस्साकशी का केंद्र हो और रस्सी की फाँस गले में फसी हो। और जोर दोनो ओर से लगाया जा रहा है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

दिहाड़ियों की नैय्या किसके सहारे पहुचें किनारे? / With whose help did the daily wagers reach the shore?


                       (अभिव्यक्ति)

'सिर से बहता पसीना, घुटने तक बह आते हैं। 
तब जाकर साहब, दो वक्त की रोटी खा पाते हैं।'
             एक दिहाड़ी मजबूर की परिभाषा इन पंक्तियों के अतिरिक्त क्या हो सकता है? कामगार वर्ग (या श्रमिक वर्ग) एक ऐसा शब्द है, जिसका उपयोग सामाजिक विज्ञानों और साधारण बातचीत में वैसे लोगों के वर्णन के लिए होता है। जो निम्न स्तरीय कार्यों जैसे दक्षता, शिक्षा और निम्न आय द्वारा मापदंड में लगे होते हैं। अक्सर इस अर्थ का विस्तार बेरोजगारी या औसत से नीचे आय वाले लोगों तक भी होता है। कामगार वर्ग मुख्यत: औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं और गैर-औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं वाले शहरी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। इसे ऐसे समझते है की जो लोग, दैनिक काम ढूढ़ते हैं। उसके लिए एक निश्चित रोजी प्राप्त होता है। जिससे उसके जीवन-यापन चलता है। विश्वकोश वैसे तो दिहाड़ी मजदूरों की परिभाषा में ज्यादा कुछ नहीं कहती है। लेकिन यह भी साफ करती है कि ऐसे मजदूरों को सप्ताह के दो-तीन दिन ही काम मिलता है। इनके लिए घर के चूल्हे जलाना जैसे, प्यास लगने पर कुएं खोदने के समान कार्य करना प्रतीत होता है।
            दिहाड़ी मजदूर जिनकी सामाजिक संरचना एवं पारिवारिक पारिस्थितिकी के संदर्भ में अवश्य ही प्रकाश डालने का प्रयास करूँगा। परिवार का मुखिया जो परिवार का पालक है और परिवार का शासक भी, जिसके ऊपर परिवार के लालन-पालन से लेकर हर क्षेत्र में ध्यान रखना आवश्यक और नैतिक जिम्मेदारी है। मुखिया जिसे बच्चों की पढ़ाई से लेकर बच्चों के शादी तक सफर की चिंता रोज रात को करवटें बदलने के लिए मजबूर कर देता है। सुबह तक के खाने की व्यवस्था तो आज जैसे-तैसे हो गई। कल की चिंता आज के सुख को कम कर देता है। सुबह से शाम तक सिर्फ श्रम के बेचने और श्रम में अर्जित धन की चिंता लगा ही रहता है। चिंता इस बात की नहीं है कि खर्च कहाँ और कैसे होगा? बल्कि इतने पैसे में पहली प्राथमिकता किस वस्तु को दें, सोचकर मन छोटा होता है। परिवार का मुखिया जो सामाजिक तंत्र का सदस्य भी होता है। जो समाज के लिए भी आवश्यक है। लेकिन दिहाड़ी को यदि सप्ताह में सिर्फ तीन दिन ही रोजगार मिले तो घर संसार कैसे चले यह एक बड़ा प्रश्न है? यही प्रश्न उसे सामाजिक अलगाववादी विचारों की ओर ढ़केलता है। इसी अलगाव विचार या मानसिक के चलते या तो वह अपराध की ओर बढ़ता है या फिर आत्महत्या की सीढ़ी चढ़ जाता है। इसी संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं , 'जब जिंदा रहने की इच्छा खत्म हो जाती है और समाज से पूरा अलगाव हो जाता है तो आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है।' वे कहते हैं , 'अलगाव मानसिक परिस्थितियों से पैदा होता है और यदि आप किसी के साथ इसे साझा नहीं कर पाते तो क्या करेंगे। आपको लगता है कि कुछ नहीं बचा है, कोई आपका नहीं है तो आपकी मदद कौन करेगा?'
              वह रोज टूटता, बिखरता और अपने आप को संभालता जाता है। संभालना तो तब तक है, जब तक हिम्मत और शरीर साथ दे। जहाँ शरीर ने शिथिलता और मनोस्थिति ने समाज से घृणा घर लिया। फिर व्यक्ति या तो रोज-रोज मरने की अपेक्षा एक बार मरना ज्यादा उचित समझता है। वही दूसरी स्थिति में वह समाज से प्रतिशोध की भावना लेकर, समाज के विरोधत्व की श्रेणी को ग्राही हो जाता है। जो अपने स्थिति और अपनी गरीबी के लिए समाज को दोषी मानता है। वह मनोरोग से भर उठता है। यह वहीं स्थिति है जब उसके लिए चोरी और अपराध को अंजाम देना भी पुनीत कार्य हो जाता है। क्योंकि इससे उसके परिवार की पारिस्थितिकी को मजबूतीकरण में सहायता मिलती है। बहरहाल, दिहाड़ियों में कुछ की कहानियाँ तो ऐसे भी हैं जो घर के पारिस्थितिकी को सुचारू रूप से चलाने के लिए शहरों में शरणार्थियों की भाँति जीवन यापन करने के लिए मजबूर है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

जाना था स्कूल मगर, जीने की प्रयोगशाला बन गए पब्लिक प्लेस : प्राज/ Had to go to school, but the public place became the laboratory of living


                         (अभिव्यक्ति)

सार्वजनिक स्थलों पर अक्सर आपका भी सामना एक ऐसे भीड़ से हुआ होगा, जो दो-चार रूपये की मांग करते होंगे। चहरे पर करुणा और फटे मटैले कपड़े में धूल से सने बच्चे। जिन्हे देखकर हृदय पसीज ही जाता है। आप कभी करुणा से भरकर, दो चार रूपए दान भी कर देते होंगे। इसे भिक्षावृत्ति कहते हैं। बाम्बे भिक्षावृत्ति कानून-1945 के अनुसार, 'एक व्यक्ति जिसके जीवन-यापन का कोई साधन नही है और इधर-उधर घूमता रहता है या सार्वजनिक स्थानों पर पाया जाता है अथवा भीख मांगने के लिए अपना प्रदर्शन स्वीकार करता है।' वहीं मैसूर भिक्षावृत्त अधिनियम-1944 कहती है, 'भिक्षावृत्ति अर्थात् भीख मांगने के लिए दर-दर घूमना, घावों, शारीरिक पीड़ाओं अथवा दोषों का प्रदर्शन करना, अथवा भिक्षा प्राप्ति के लिए दया उत्पादन करने के लिये उनके झूठे बहाने बनाना सम्मिलित है।'
              भारत में जनगणना 2011 के अनुसार भिखारियों की कुल संख्या 4,13,670 जिनमें 2,21,673 पुरुष और 1,91,997 महिलाएँ है जो पिछली संख्या जनगणना 2001 से अधिक है। दरअसल, गरीबी, भुखमरी तथा आय की असमानताओं के चलते देश में एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे भोजन, कपड़ा और आवास जैसी आधारभूत सुविधाएँ भी प्राप्त नहीं हो पातीं। यह वर्ग कई बार मजबूर होकर भीख मांगने का विकल्प अपना लेता है। भारत में आय की असमानता और भुखमरी की कहानी तो ग्लोबल लेवल की कुछ रिपोर्टों से ही जाहिर हो जाती है।दिसम्बर, 2017 में प्रकाशित वर्ल्ड इनइक्वैलिटी रिपोर्ट के अनुसार भारत के 10% लोगों के पास देश की आय का 56% हिस्सा है। वहीं इंटरनेशनल फूड पॉलिसी इनसिट्यूट नामक एक संगठन द्वारा 2017 में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 119 देशों की सूची में भारत को 100वाँ स्थान मिला है। साथ ही भारत को भुखमरी के मामले में गंभीर स्थिति वाले देशों में रखा गया है। वहीं यही इंडेक्स में वर्ष 2021 के पून: भारतवर्ष 101वॉ स्थान पर बना हुआ है।
          वहीं एक आकड़ों के मुताबिक कुल भिखारियों की संख्या में एक तिहाई हिस्सा बाल भिक्षुओं की है। जिनमें छोटे शहरों में भुखमरी के चलते बच्चे भिक्षा को हीनता नहीं अपितु रोजगार के अवसर परक समझते हैं। वहीं बड़े शहरों में तो बकायदा बाल भिक्षुओं की भीड़ दिनोदिन बढ़ रही है। जिसके पीछे बड़े-बड़े गिरोह कार्य कर रहे हैं। जो छोटे शहरों, गावों, कसबों से बच्चों को अपहरण कर अपाहिज़ बनाकर, उन्हें नशे की लत की ओर ढ़केल देते हैं। नये रंगरूटों को पहले ट्रेनिंग जैसे कैसे चलना है? कैसे बोलना है? कितना रोना है-कितना सुनाना है? वेदना के स्वरों की पूनर्रावृत्ति से लेकर आँसूओं के प्रत्येक किस्तों तक की ट्रेनिंग दी जाती है। फिर उसके पश्चात ही बाजार में इनकोम उतारा जाता है। बहरहाल, इससे इतर कुछ ऐसे भी भिक्षू होते हैं। जो भूखमरी और पारिवारिक अस्थिरता के चलते भीख मांगने के लिए विवश रहते हैं। दोनो ओर से एक तरफ कुआ दूसरी ओर खाई की स्थितियों में रस्साकशी होती रहती है।
                 देश में भीख माफिया बहुत बड़ा उद्योग  है, जो गायब बच्चों के सहारे संचालित होता है। भिक्षावृत्ति को रोकने और भीख माफिया पर लगाम कसने के लिए एक केन्द्रीय कानून की आवश्यकता है। वहीं जो बच्चे अनाथ और असहाय है उन्हे पूनर्वास और शिक्षा के लिए प्रेरित करना एवं सहयोग देना आवश्यक है। वर्ना, जिन बच्चों को स्कूल की कक्षाओं में बैठकर भावी कल को संजोना चाहिए। वो पब्लिक प्लेस में अपने आज को जलाकर भावी कल के लिए कालिख भरे समाज की अवधारणा को स्पष्ट करने में देर नहीं लगाएंगे। क्योंकि जो बच्चा भीख और भूखमरी को झेलता है। वह सामाजिक तंत्र में कहीं ना कहीं एक पृथक विरोध के स्वरों को भरते हुए, अपराध की गलियों में दाखिला ले लेता है। जो समाज के लिए किसी भी स्थिति में श्रेयस्कर नहीं है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

किसान, कृषि और वर्तमान पहचान / Farmers, agriculture and current identity


                        (अभिव्यक्ति)

'कुछ बढ़े और जवान हो गए। कुछ ऐसे भी निकले जो इंसान हो गए। खाई कसम जिसने भूख मिटाने की, वो शेर-ए-दिल किसान हो गए।' कृषि जो मनुष्य के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। प्रारंभिक काल के उत्थान के पश्चात्  लेन-देन की पारम्परिक प्रथा में विनिमय प्रणाली से लेकर वर्तमान अर्थव्यवस्था के तानेबाने तक कृषि का योगदान अद्वितीय रही है। यानी दुनियाँ का सबसे प्राचीन कार्य कृषि है। वहीं पेशेवरों की पहली पीढ़ी किसानों की रही, जो उन्नत से उन्नत होते चले गए। कृषि के प्राथम्यता से वर्तमान ई-कॉमर्स के तेजतर्रार व्यापार तक सबकी आधारशिला कृषि रही है। कृषक जो दुनियाँ के सबसे पहले और प्राचीन पेशेवर हैं।
            सामाजिक वैज्ञानिकों के नजरिये से भी तलाश करने का प्रयास करते हैं की किसान और उसके तबके को वो किस प्रकार देखते हैं। नोर्वेक के अनुसार,' कृषक समाज एक बड़े स्तरीकृत समाज का वह उप-समाज है, जो या तो पूर्ण औद्योगिक अथवा अंशतः औद्योगिकृत है।' वहीं रेमण्ड फर्थ कृषक को उत्पादनकर्ता बताते हुए कहते हैं कि, 'लघु उत्पादकों का वह समाज जो कि केवल अपने निर्वाह के लिये ही खेती करता है, कृषक समाज कहा जा सकता है।' वहीं राबर्ट रेडफील्ड के अनुसार,'वे ग्रामीण लोग जो जीवन निर्वाह के लिए अपनी भूमि पर नियंत्रण बनाये रखते है और उसे जोतते है तथा कृषि जिनके जीवन के परम्परागत तरीके का एक भाग है और जो कुलीन वर्ग या नगरीय लोगों की ओर देखते है और उनसे प्रभावित होते है, जिनके जीवन का ढंग उनसे कुछ सभ्य होता है, कृषक समाज कहलाता है।'
           बहरहाल समाजशास्त्र में कई परिभाषाएं हैं जो किसान के पर्याय को परिभाषित करती हैं। भारत संरचनात्मक दृष्टि से गांवों का देश है, और सभी ग्रामीण समुदायों में अधिक मात्रा में कृषि कार्य किया जाता है इसी लिए भारत को भारत कृषि प्रधान देश की संज्ञा भी मिली हुई है। लगभग 70% भारतीय लोग किसान हैं। वे भारत देश के रीढ़ की हड्डी के समान है। जहाँ खेती पर निर्भर हैं 10.07 करोड़ परिवार कृषि कार्य करते हैं। यानी यह एक बड़ा रोजगार क्षेत्रों भी है। जो भारतीय इकॉनमी ग्रोथ में भी बड़ा योगदान करती है। लेकिन दुख का विषय यह भी है कि, वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण की रिर्पोट के अनुसार देश के 17 राज्यों में किसानों परिवारों की औसत आय सालाना 20,000 रूपये है। जो देश के औसत आय के लगभग आधी है। वर्ष 2015-16 के स्टेट आॅफ इंडियन एग्रीकल्चर की रिपोर्ट यह बताती है कि एक तरफ जहाँ देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ रहा है वहीं दूसरी तरफ इसका फायदा किसानों को नहीं मिल रहा है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश में सीमांत आकार के जोतों की संख्या बढ़ रही है यानि खेत सिकुड़ रहे हैं और किसान खेती के सहारे घर नहीं चला पा रहे हैं। देश में 2001 में जोतों की संख्या 75.41 मिलियन थी जो वर्तमान में 92.83 मिलियन हो गयी है। नेशनल सर्वे रिर्पोट के अनुसार देश के 9 करोड़ किसान परिवारों में लगभग छः करोड़ किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम खेती के योग्य जमीन है। इस रिर्पोट के आधार पर परिवार की महीने की आमदनी मुश्किल से पाँच हजार से लेकर छः हजार रूपये होती है। इन सरकारी रिर्पोट और किसानों के हालात को समझेंगे तो पायेंगे किसानों की आमदनी वर्षों से ठहरी हुई है।
            किसानों की हालत आज भी निम्न ही बनी हुई है। कारण और विफलताओं के कई प्रकार हो सकते हैं। लेकिन कृषकों के भोले भाले स्वभाव के कारण, अक्सर वे छले गए हैं। कर्ज और भुखमरी की मार झेलता किसान फांसी के फंदे में झूल जाता है। फिर उसके बाद इसी सामाजिक तंत्र में उसके मौत पर मीनमेंख निकालने की परम्परा चल निकलती है। आंदोलन होते हैं, चर्चाएं होती, पिपलीलाईव जैसे तमाशे तो आम है जनाब। किसान जो सबको अन्न देता है। बड़े शर्म की बात है की वह ही भूख से मर जाता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ति की चुनौतियां और सामाजिक तंत्र : प्राज / Challenges of meeting basic needs and social system


                         (परिदृश्य




मनुष्य जो प्रारंभ काल से जिज्ञासा और नव परिवर्तन के लिए अग्रसर रहा है। उसने वस्तुओं के क्रय-विक्रय के लिए विनिमय प्रणाली से लेकर मुद्रा के चलन तक सा सफर देखा है। जहाँ वह सभ्यता से अर्थव्यवस्था के मधूर स्वरों का साक्षी भी रहा है। मुद्रा और मुद्रा से अर्थव्यवस्था का नियंत्रण भी कमाल का है। किसी ने मुद्रा पर कटाक्ष करते हुए लिखा है, 'जो ठोकरों में जहाँ रखते है, वो जेब में पैसा कहाँ रखते है?' लेकिन यह भी वास्तविक है की मुद्रा, मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ति की प्रारंभिक सीढ़ी है। जिन लोगों के पास मुद्रा, धन की कमी होती है। वे मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ति में अक्षम होते हैं। 
           देश दुनिया में ऐसे बहुत से लोग है। जिनके पास जीवन यापन करने के लिए किसी भी प्रकार की कोई भी सुविधा नहीं होती है। और बहुत से लोग ऐसे भी होते है। जिनके पास अधिक सुविधा नहीं होने के बजाय जीवन यापन के लिए कुछ पर्याप्त सुविधाएं होती है। जिससे उन्हें जीवन यापन करने में अधिक परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है। लेकिन जो लोग बहुत ही अधिक गरीब होते है। उन लोगों को अपना जीवन यापन करने के लिए कई समस्याओं का सामना करना पड़ जाता है | जिन लोगों के पास जीवन यापन करने के लिए रहने के लिए घर, खाने के लिए भोजन और पहनने के लिए कपड़े नहीं होते है। ऐसे लोग गरीबी रेखा के अंतर्गत आते है। क्योंकि उन्हें खाने से लेकर पहनने तक की समस्याओं का सामना करना पड़ता है और दूसरों की अपेक्षा वो अपना जीवन नहीं जी पाते है | ऐसे लोगों को वहां की राष्ट्र गरीबी रेखा के निचे जीवन यापन करने वालों की श्रेणी में रखती है।
         गरीबी की एक तस्वीर आपके सामने रखने का प्रयास अवश्य करता हूँ कि, 2021 में अफगानिस्तान में 85 किडनी ट्रांसप्लांट ऑपरेशन हुए थे। ये मामूली ट्रांसप्लांट नहीं थे। यूरोलॉजिस्ट और किडनी ट्रांसप्लांट सर्जन डॉ नासिर अहमद ने बताया कि उन्होंने 2021 में 85 किडनी ट्रांसप्लांट ऑपरेशन किए हैं। उनका कहना है कि किडनी डोनर और खरीदार की आपसी सहमति से एक कंप्लीट किडनी ट्रांसप्लांट ऑपरेशन किया जाता है। डॉ. अहमद ने बताया कि अपनी किडनी बेचने वाले बहुत से लोग बहुत गरीब हैं। जिन्हें अपने परिवार का पेट पालने के लिए इस तरह के कठोर फैसले लेने पड़ रहे हैं। हालांकि, डॉक्टर्स बार-बार चेतावनी दे रहे हैं कि इस तरह के कदम से होने वाले परिणाम बहुत ही ज्यादा गंभीर हो सकते हैं। अपनी किडनी बेचने के लिए आगे आने वाले अधिकांश डोनर अफगानिस्तान में विनाशकारी आर्थिक संकट से प्रभावित गरीब परिवारों से हैं। यही नहीं, वे उन खतरों से भी अनजान हैं, जो एक किडनी के न रहने से उन्हें उठाने पड़ सकते हैं। मगर मुफलिसी से लड़ने के खातिर ये भी झेल रहे हैं।
            बहरहाल ये दर्द तो उन लोगों का है जो गरीबी में जी रहे हैं। लड़ रहे हैं। मगर कुछ और उदाहरणों में देखें तो भौतिक वस्तुओं के लोभ या कहें मूलभूत की पूर्ति के लिए लोग कर्ज लेने के लिए भी आमादा हो जाते हैं। भारत जैसे प्रगतिशील देश में, नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के 2012 और 2018 के सर्वे के मुताबिक, 2012 में देश के शहरी इलाकों में 22.4 फिसदी परिवारों पर कर्ज था। 2018 में भी ये आंकड़ा 22.4फिसदी ही रहा। लेकिन ग्रामीण इलाकों में ये आंकड़ा बढ़ गया। 2012 में जहां 31 प्रतिशत ग्रामीण परिवार कर्जदार थे तो 2018 में इनका आंकड़ा बढ़कर 35 प्रतिशत पहुंच गया। हालांकि, कुछ राज्यों को छोड़ दिया तो ज्यादातर राज्यों के शहरी इलाकों में भी कर्जदार परिवारों का आंकड़ा बढ़ा था। एक ओर मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ति का बोझ दूसरी ओर कर्ज के दलदल में फसते पांव से बचने के लिए रास्ता नहीं मिलने से लोग अवसाद ग्रसित हो जाते हैं। ये कर्ज के तले दबे लोगों के लिए मानसिक रूप से छिन्नभिन्न कर देने वाली स्थिति है। 
              मनोचिकित्सक डॉ. अंबरीश धर्माधिकारी बताते हैं, 'आत्महत्या का विचार प्राकृतिक नहीं होता है। मस्तिष्क में बायो न्यूरोलॉजिकल बदलावों के चलते लोगों को लगने लगता है कि जीवन किसी काम का नहीं है। इसके बाद व्यक्ति आत्महत्या करने का विचार आता है। आत्महत्या के 90 प्रतिशत मामले मानसिक विकार के चलते होते हैं।' इसी बात की ओर इशारा करती एनसीआरबी के ही आंकड़े बताते हैं कि कर्ज से तंग आकर हर साल हजारों जानें जाती हैं। 2020 में 5 हजार 213 लोग ऐसे थे जिन्होंने कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या कर ली। इस हिसाब से हर दिन औसतन 15 लोगों ने सुसाइड की। हालांकि, 2019 की तुलना में 2020 में थोड़ा सुधार भी हुई। 2019 में 5 हजार 908 लोगों ने कर्ज से तंग आकर खुदकुशी की थी। गरीबी उन्मूलन के लिए योजनाएं तो बनती रही है और बन भी रही है। लेकिन गरीबी के निशान हर शहर के बाहर झुग्गी झोपड़ियों, गावों और भूख से तड़पते बच्चो सूने चुल्हे की ओर निहारते पलकों में देखा जा सकता है। यह समस्या सामाजिक तंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती है।

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

होली की प्राथम्यता से वर्तमान के बिखरते रंगों का महोत्सव : एक अध्ययन / The Festival of Colors of the Present Shattered by the Priority of Holi: A Study


                          (परिदृश्य

भारतवर्ष विविधताओं से भरा राष्ट्र है। जहाँ हर 10 किलोमीटर में भाष्यात्मक विविधता और प्रत्येक 20 किलोमीटर में सांस्कृतिक पृथक्करण का बोध होता है। जहाँ कई भाषा, संस्कृति, जाति, धर्म और विचारधारा के लोग निवास करते हैं। अनेकता में एकता इस मातृभूमि की पहचान है। जहाँ प्रत्येक पर्व को सभी देशवासी बड़े ही हर्षोल्लास से मनाते हैं। इस विविधतापूर्ण राष्ट्र में होली का महा रंगोत्सव पूरे राष्ट्र में बड़े धुमधाम से मनाया जाता है। होली के रंगोत्सव को लोग सांस्कृति, धार्मिक महत्व के कारण हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। भारतवर्ष में होली के मनाने के प्राथम्य प्रासंगिकता के संदर्भ में अतीत के कई प्रमाण मिलते हैं। होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता है। 
           इस उत्सव के प्रारंभ से पूर्व ही प्रकृति भी रंगों के कलेवर में रंग जाती है। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों के उद्भव काल से ही इस पर्व का प्रचलन था। इसके कई उल्लेख और पूरालेख मिलते हैं। लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गाह्य-सूत्र। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। सुप्रसिध्द मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगलकाल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहां के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिध्द है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिंदी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्तप्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16वीं शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। 16वीं शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएं नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक-दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदांत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएं गुलाल मल रही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि होली हर भारतवासियों के लिए हर्षोल्लास का त्योहार है।
          बहरहाल, होली नव एवं संवर्धित स्वरूप में डीजिटल होली भी प्रचलित होने लगा है। जहाँ मार्केटिंग के तानेबाने से लेकर, प्रमोशनल एड्वटाइज्मेंट तक होली की रौनक देखते ही बनती है। युवाओं में कुछ वाट्सऐप के स्टेट्स से लेकर सोशलमीडिया के हर प्लेटफार्म पर होली की धमक रहती है। हां यह पर्व विविधता में एकता का प्रतीक है। लेकिन कुछ असामाजिक तत्व इस विशाल और विस्तृत पर्व की छवि धूमिल करने का प्रयास करते हैं। समाज जो निरंतर परिवर्तनों को अद्यतन करती है। उसमें यह डोपिंग भी सुधारात्मक स्वरूप में है, आवश्यक केवल सकारात्मकता और बौधिक प्रवणता है। 

लेखक 
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

महा रंगोत्सव का समाजशास्त्री परिदृश्य में एक अध्ययन : प्राज / A Study of the Maha Rangotsav in a Sociological Scenario

                         (अभिव्यक्ति


भारतीय संस्कृति में पर्वों का विशेष स्थान है। यहाँ तक कि इसे त्यौहारों की संस्कृति कहना गलत नहीं होगा। साल भर कोई न कोई पर्व या उत्सव चलता ही रहता है। हर ॠतु में, हर महीने में कम से कम एक प्रमुख त्यौहार अवश्य मनाया जाता है। कुछ उत्सव किसी अंचल में मनाए जाते हैं तो कुछ भारत भर में भले ही नाम अलग-अलग हों। भारतीय सामाजिक तंत्र में पर्व के आयोजन से लेकर पर्व के समापन तक विभिन्न चरण होते हैं।
               होली की सामाजिक तंत्र में प्रासंगिकता पर समाजशास्त्रीय अध्ययन की ओर एक प्रयास करने के लिए इच्छुक हूँ। होली जो भारतीय उपमहाद्वीप में बड़ा पर्व है। जिसे भारत के सभी वर्गों के लोगों में मनाया जाता है। यह पर्व जातिगत, क्षेत्रीय, धार्मिक, बौधिक एवं सामाजिक पहलुओं के बीच की दूरी को कम करने वाला पर्व है। होली, जो रंगोत्सव का पर्व है। यह भारत सही कई देशों तक प्रसिद्ध है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में होली कई स्वरूपों में मनाया जाता है। जैसे लट्ठमार होली, रंगोत्सव, पुष्प होली हैं। होली जो लोगों को आपस में जोड़ने का प्रयास है। यह पर्व एकता का प्रतीक है। रंगोत्सव के लक्ष्यों के विषय में यदि दार्शनिक होकर विचार करें तो प्रतीत होता है कि यह संदेश देती है की विविध रंगों के मेल से होली का उत्सव सम्पन्न होता है। ठीक उसी प्रकार भारत वर्ष में विभिन्न जाति, धर्म, पंथ और रंग को लोगों की विविधता में एकता भारतवर्ष की सबलता है।
                  सामाजिक तंत्र में विभिन्न स्तर और अलग-अलग बुद्धि लब्धता के लोगों का होना तो निश्चित है। ठीक वैसे ही कुछ ऐसे भी चर होते हैं। जो रंगोत्सव को एक अलग ही मानसिकता के नजरिये से देखते हैं। उन्हे लगता है,यह फुहड़ता प्रधान है। जबकी उनकी सोच ही उन्हें इस स्थिति में ला खड़ा करती है। उनके बारे में या उनके विचारों से मैं सहमत नहीं हूँ। क्योंकि होली की प्रासंगिकता से लेकर वास्तविक अवधारणा की तलाश करें तो, यह पर्व एकता और आपसी वैमनस्य को भूला कर सौहार्द्रता को बढ़ाने का पर्व है।
                होली महोत्सव मनाने के पीछे लोगों की एक मजबूत सांस्कृतिक धारणा है। इस त्योहार का जश्न मनाने के पीछे विविध गाथाऍ लोगों का बुराई पर सच्चाई की शक्ति की जीत पर पूर्ण विश्वास है। लोग को विश्वास है कि परमात्मा हमेशा अपने प्रियजनों और सच्चे भक्तो को अपने बङे हाथो में रखते है। वे उन्हें बुरी शक्तियों से कभी भी हानि नहीं पहुँचने देते। यहां तक कि लोगों को अपने सभी पापों और समस्याओं को जलाने के लिए होलिका दहन के दौरान होलिका की पूजा करते हैं और बदले में बहुत खुशी और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं। होली महोत्सव मनाने के पीछे एक और सांस्कृतिक धारणा है, जब लोग अपने घर के लिए खेतों से नई फसल लाते है तो अपनी खुशी और आनन्द को व्यक्त करने के लिए होली का त्यौहार मनाते हैं।
             होलिकोत्सव केवल हिंदुओं ही नहीं, अपितु विश्व के समस्त मानवों का प्रथम नवीन वर्षोत्सव तथा शीत रक्षा कवच के रूप में भी देखा जा सकता है। होली पुराने वर्ष की विदाई और नए वर्ष के स्वागत का पर्व है । इसका संबंध आनंदोत्सव तथा मदनोत्सव से भी है । आदिम अवस्था में जबकि आदि मानव नंगे बदन जंगलों में गुफाओं में निवास करता था, जंगल में आग लगने के साथ होली का जन्म हुआ। पहले गुफा होली का जन्म हुआ। बाद में बस्ती बनने पर शीत से बचने के लिए वही गुफा होली प्रत्येक घर में अलावा (कौड़ा) के रूप में जलने लगी। अंत में जब शीत ऋतु बीत जाती है तो गांव भर की बड़ी होली जलाकर उसे विदा किया जाने लगा क्योंकि होली ने शीत से जीवन रक्षा की थी। अतः उसे होलिका माता कहा गया । अगली होली भी इसी होली की आग को घरों में सुरक्षित रखकर जलायी जाती रही। इस प्रकार करोड़ों वर्षों से वही होली की पवित्र आग अगली होली को जलाती रही । इसलिए अंग्रेजी में होली का अर्थ ही पवित्र होता है। वही दूसरे धार्मिक ग्रंथों के अनुसार देखें तो, होलिका दहन, हिन्दुओं का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें होली के एक दिन पहले यानी पूर्व सन्ध्या को होलिका का सांकेतिक रूप से दहन किया जाता है। होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व के रूप में मनाया जाता है। निष्कर्षात्मक शब्दों में कहें तो होली की लोकप्रियता या होली का धार्मिक बंधन से मुक्त होली का वैश्विक रूप में उत्सव शनैः-शनै: बढ़ रहा है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

पूर्वाग्रह की अवधारणा के वर्तमान में जागृत अवशेष : प्राज/ The currently awake remnant of the concept of prejudice


                          (परिदृश्य)

सर्वप्रथम तो पूर्वाग्रह के शब्द का आकलन आवश्यक है। वर्ना मेरे पाठक मुझे अवश्य ही कहेंगे की मतलब का मर्तबान तो खोला ही नहीं और लगे स्वाद की चाशनी बघारने में, पूर्वाग्रह यानी किसी विषय, वस्तु के लिए वह धारणा है। जो उसके नाम सुनते ही सर्वप्रथम मन:पटल पर छवी दिखलाई पड़ती है। जैसे आप ने किसी व्यक्ति विशेष के बारे में सुना या देखा की उसने लम्बी दाड़ी रखी है। आँखें बड़ी-बड़ी है, तो निश्चय ही आप उसके व्यवहारिक पृष्ठभूमि में सोचेंगे की वह हिंसक और उद्दंड प्रधान शैली का होगा। यह उस व्यक्ति विशेष के बारे में सुनने या देखने से उसके व्यवाहर के आकलन के पूर्व धारणा का निर्माण करना ही पूर्वाग्रह है।
           एक ओर विश्वकोश भी कहती है कि, पूर्वाग्रह का अर्थ 'पूर्व-निर्णय' है, अर्थात् किसी मामले के तथ्यों की जाँच किये बिना ही राय बना लेना या मन में निर्णय ले लेना। इस शब्द का उस स्थिति में प्रयोग किया जाता है जब किसी व्यक्ति या लोगों के किसी समूह के विरुद्ध निर्णय दिया गया हो और वह व्यक्ति या लोग किसी विशेष लिंग, राजनैतिक विचार, वर्ग, उम्र, धर्म, जाति, भाषा, राष्ट्रीयता के हों। वहीं ब्रिटेनिका के अनुसार, किसी समूह या उसके व्यक्तिगत सदस्यों के प्रति पूर्वाग्रह , प्रतिकूल या शत्रुतापूर्ण रवैया , आमतौर पर बिना किसी आधार या पर्याप्त सबूत के। यह तर्कहीन, रूढ़ीवादी मान्यताओं की विशेषता है। सामाजिक विज्ञान में, इस शब्द का प्रयोग अक्सर जातीय समूहों ( नस्लवाद भी देखें ) के संदर्भ में किया जाता है, लेकिन किसी भी व्यक्ति या समूह के प्रति पूर्वाग्रह उन कारकों के आधार पर मौजूद हो सकता है जिनका जातीयता से कोई लेना-देना नहीं है , जैसे कि वजन , विकलांगता, यौन अभिविन्यास , या धार्मिक संबद्धता।
               अब आप कहेंगे की प्रथम दृश्या में किसी के लिए सुरक्षात्मक रूप में ऐसी कल्पना बनानें में क्या नुक्सान है। और सामाजिक तंत्र में इसकी उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करने वालों की कमी नहीं है। बहरहाल, पूर्वाग्रह से ग्रसित मनुष्य कहीं ना कहीं सामाजिक पारिस्थितिकी में खलल उत्पन्न करता है। न्यून स्वरूप में समझने के लिए पारिवारिक कलह के लिए शक भी एक प्रकार की पूर्वाग्रह है।
            पूर्वाग्रह, जो सामाजिक तंत्र में हिंसा के लिए भी कारक होते हैं। जैसे विशेष वर्ग के लिए पूर्वाग्रह की अवधारणा से लोगों में पूरे समुदाय के लिए एक समान विचार होना सुनिश्चित होता है। जबकी विविधता तो प्रत्येक मनोमष्तिष्क में होती है। कुछ पूर्वाग्रह ऐसे भी होते हैं। जो व्यक्ति को रूढ़ीवाद का गुलाम बनने पर मजबूर कर देते हैं। जैसे 'चोर का बेटा चोर' शब्दावली में पिता और पुत्र दोनों को एक ही नजरिये से तौला जाता है। संभव है की वह पुत्र आगे चलकर, अन्यत्र सेवा में लगे और सामाजिक तंत्र के सौन्दर्यीकरण में सहायक हो। जबकि इसी पूर्वाग्रह के बार-बार पूनर्रावृत्ति से तंग आकर वह पुत्र भी उसी ओर बढ़ चलता है। ठीक वैसे ही समूह विशेष के लिए पूर्वाग्रह की अवधारणा सामाजिक तंत्र में संघर्ष और वैमनष्यता के भावों का अंकुरण कर देता है। जिससे टकराव के भविष्य में विशालकाय वृक्ष का निर्माण होना ही परीणिति है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

सामाजिक तंत्र में निहित अंधविश्वासों की अवधारणा : प्राज / The concept of superstitions embedded in the social system

 
                          (परिदृश्य

किसी तर्क या विचार पर विश्वास करना या होना एक सकारात्मक दृष्टिकोण है। हम किसी मत को स्वीकार करते हैं और उस मतानुसार जो लोग मत की ओर अग्रसर होते हैं। उनसे मेलजोल और संबंध भी प्रगाढ़ होते  हैं। जैसे विचारधारा को ही ले लीजिए यदि किसी व्यक्ति विशेष पर हम विश्वास रखते हैं। उसके प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करते हैं। लेकिन जब विश्वास की पराकाष्ठा को पर कर विश्वास की प्रगाढ़ से कहीं आगे, जो सोचने, विचार करने और तर्किक होने से अवरुद्ध कर देता है, वह अंधविश्वास है। 
        मार्क्सवादी दृष्टिकोण में अंधविश्वास वह विचार पद्धति है जिसे आमतौर पर धर्मशास्त्रीय तथा बुर्जुआ साहित्य में सच्ची आस्था के मुकाबले रखा जाता है। जो आदिम जादू से जुड़ा होता है। किसी भी धर्म के अनुयायी के दृष्टिकोण से अन्य धर्मों के सिद्धांत तथा अनुष्ठान अंधविश्वास की श्रेणी में आते हैं। मार्क्सवादी निरीश्वरवाद धार्मिक आस्था तथा किसी भी तरह के अंधविश्वास को पूर्णतः अस्वीकार करता है। 
       कहने का तात्पर्य है अंधविश्वास में व्यक्ति किसी घटना या कार्य पर प्रश्न चिन्ह खड़े नहीं करता है। उदाहरणतः समझने का प्रयास करें तो, जैसे ग्रामीण अंचलों में युवक-युवतियों में प्रेम प्रसंग को वशीकरण एवं मायाजाल से सम्मोहित किया जाना माना जाता है। लोग इससे बचाने के लिए तंत्र-मंत्र झाड़-फूँक और ओझा के सहारे से इस निवारण करने के उपाय ढूँढने लग जाते हैं। जबकि वास्तव में, यह आकर्षण है जो योवनास्था में प्रारंभ के दौर में दो विपरीत लिंगीय लोगों के बीच में होता है। जो शनैः-शनैः प्रेम का रूप धारण कर लेती है।
          ठीक ऐसे ही उदाहरणों में एक उदाहरण है, महिला का टोन्ही या डायन होने के मिथ्याचारी विचारधारा, जैसे ओझा के द्वारा तंत्र-मंत्र या झाड़-फूँक की प्रक्रिया की जाती है।जो सकारात्मक ऊर्जा के रूप में अंधविश्वासी लोगों की कल्पना होती है। ठीक वैसे ही काली शक्ति या नकारात्मक ऊर्जा से जादू-टोना सीखने वाली तर्क देकर, महिला को डायन, टोन्ही की संज्ञा देकर प्रताड़ित किया जाता है। जबकि यह वास्तविक नहीं है। इसी तरह से कई अँधविश्वास हमारे समाज में कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रूप में आज भी विद्यमान है। ऐसे भी नहीं है की केवल ग्रामीण समाज ही अंधविश्वास के गिरफ्त में है। अपितु, नगरीय स्तर पर भी इन अंधविश्वासों को मानने वालों की कमी नहीं है। 
            आदिम मनुष्य अनेक क्रियाओं और घटनाओं के कारणों को नहीं जान पाता था। वह अज्ञानवश समझता था कि इनके पीछे कोई अदृश्य शक्ति है। वर्षा, बिजली, रोग, भूकंप, वृक्षपात, विपत्ति आदि अज्ञात तथा अज्ञेय देव, भूत, प्रेत और पिशाचों के प्रकोप के परिणाम माने जाते थे। ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर भी ऐसे विचार विलीन नहीं हुए, प्रत्युत ये अंधविश्वास माने जाने लगे। आदिकाल में मनुष्य का क्रिया क्षेत्र संकुचित था इसलिए अंधविश्वासों की संख्या भी अल्प थी। ज्यों ज्यों मनुष्य की क्रियाओं का विस्तार हुआ त्यों-त्यों अंधविश्वासों का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक भेद-प्रभेद हो गए। अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। विज्ञान के प्रकाश में भी ये छिपे रहते हैं। अभी तक इनका सर्वथा उच्द्वेद नहीं हुआ है। वर्तमान में लोगों की धारणाओं में परिवर्तन होना आवश्यक है। किसी भी विचार की मानकता और वैज्ञानिक प्रमाणन होना आवश्यक है। यदि यह नहीं हुआ तो, समाज वर्ग के उत्थान में यह भी एक बड़ी समस्या है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

समरसता के ध्येय में बढ़ते सामाजिक संघर्ष की प्रासंगिकता : प्राज/


                            (परिदृश्य
                


समाज लोगों से बनता है, वे लोग जो विभिन्न स्तरों एवं क्षेत्रों से आते हैं। आज हम कल्पना करेंगे, कार्ल मार्क्स के सामाजिक संघर्ष के विचारों की वर्तमान समय में क्या यह आज भी समाज में प्रासंगिक है या अप्रासंगिक हैं। कार्ल मार्क्स को सामाजिक संघर्ष सिद्धांत का जनक माना जाता है। सर्वप्रथम तो हमें यह समझना आवश्यक है की समाज में संघर्ष क्या है? या सामाजिक संघर्ष की वास्तविक व्याख्या क्या हो सकती हैं? 
           संघर्ष या द्वन्द्व से तात्पर्य दो या अधिक समूहों के बीच मतभेद, प्रतिरोध, विरोध आदि से है। एक ही समूह के अन्दर भी द्वन्द्व हो सकता है। इस स्थिति में अन्तःसमूह द्वन्द्व कहते हैं। ठीक उसी प्रकार सामाजिक संघर्ष में समाज में निहित लोगों के बीच मत एवं टकराव को सामाजिक संघर्ष की संज्ञा दे सकते हैं। 
                जो तर्क देता है कि समाज के भीतर व्यक्ति और समूह ( सामाजिक वर्ग ) आम सहमति के बजाय संघर्ष के आधार पर बातचीत करते हैं । विभिन्न प्रकार के संघर्षों के माध्यम से, समूह अलग-अलग मात्रा में भौतिक और गैर-भौतिक संसाधनों (जैसे अमीर बनाम गरीब) प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त होंगे। अधिक शक्तिशाली समूह सत्ता को बनाए रखने और कम शक्ति वाले समूहों का शोषण करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करेंगे।
                   संघर्ष सिद्धांतकार संघर्ष को परिवर्तन के एक इंजन के रूप में देखते हैं, क्योंकि संघर्ष विरोधाभास पैदा करता है जिसे कभी-कभी हल किया जाता है, एक चल रही द्वंद्वात्मकता में नए संघर्ष और विरोधाभास पैदा करता है । ऐतिहासिक भौतिकवाद के उत्कृष्ट उदाहरण में,कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तर्क दिया कि सभी मानव इतिहास वर्गों के बीच संघर्ष का परिणाम है, जो समय के साथ समाज की भौतिक जरूरतों को पूरा करने के साधनों में परिवर्तन के अनुसार विकसित हुआ, अर्थात समाज के तरीके में परिवर्तन होना प्रदर्शित होता है।
                   कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के अनुसार, 'अब तक विद्यमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है। फ्रीमैन और दास, पेट्रीशियन और प्लेबीयन, लॉर्ड और सर्फ़, गिल्ड-मास्टर और ट्रैवलमैन। एक शब्द में, उत्पीड़क और उत्पीड़ित, एक दूसरे के लगातार विरोध में खड़े थे। एक निर्बाध, अब छिपी हुई, अब खुली लड़ाई, एक लड़ाई है कि प्रत्येक समय समाप्त हो गया। या तो बड़े पैमाने पर समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन में या विरोधी वर्गों के सामान्य विनाश में प्रतीत होता है।
             कार्ल मार्क्स के सामाजिक संघर्ष का सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है। समाज में किसी ना किसी रूप में लोगों में असंतोष है। कभी स्तर, कभी जातिगत, कभी आर्थिक, कभी राजनीतिक या क्षेत्रीय विभिन्न वर्गों में उच्च से निम्न के बीच छिड़ी यह जंग अपरिभाषित है लेकिन जंग निरंतर और निर्बाध रूप से चल रही है। जहाँ निम्न-उच्च वर्ग और उच्च वर्ग अपनी वर्चस्व के लिए लड़ते आ रहे हैं। यह सामाजिक संघर्ष केवल अपडेट हुआ है। सामाजिक संरचना से गया नहीं है। 

लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़

रूढ़ीवाद बनाम समाजवाद के सुलगते सवाल : प्राज/ The burning question of conservatism vs socialism


                       (परिदृश्य
सामाजिक पारिस्थितिकी में बहुत से रिवाज़, परम्परा, संस्कृति, चर एवं अचर होना आवश्यक है। जैसे प्रत्येक समाज का इतिहास, उसके वर्तमान में घटित घटनाओं के पुरातन होने के साथ होता है। सामाजिक ताने-बाने के बीच एक आवश्यक और विस्तृत विषय को परिचर्चा के बीच लाने का प्रयास करता हूँ। वास्तव में कुछ पूर्वाग्रहों के बवंडरों से यह विचार बाहर आया की क्या प्रासंगिक तौर पर रूढ़ीवाद की अवस्थिति आज भी समाज में है। विचाराधीन तर्कों के मद्देनज़र किसी ना किसी रूप में रूढ़िवादी विचारधाराओं का प्रवाह हो रहा है। खासकर, समाज पिछड़े और आर्थिक स्थिति से कमजोर तबकों में सोदाहरण देखे जा सकते हैं। ऐसा तो बिलकुल नहीं है,केवल पिछड़े इलाकों में रूढ़ीवाद हो, शहरों के बीच गलियों में भी इसके प्रादुर्भाव और वर्तमान स्थिति में प्रासंगिक हो सकते हैं।
              वर्ष 2017 में सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) ने बाल मृत्यु दर पर देशभर की रिपोर्ट जारी की थी। इस रिर्पोट के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर 3.9 फीसदी बेटियां मौत की शिकार होती हैं। रिर्पोट के अनुसार, दस साल में राष्ट्रीय स्तर पर बाल मृत्यु दर में 33.2 प्रतिशत की कमी आयी है। जिसमे चौकाने वाले ऑकड़े यह भी हैं की भ्रूणहत्या के लिए वनांचलों/ग्रामीण क्षेत्रों के दर शहरों की तुलना में कम है।  रूढ़ीवादी विचारों में बेटी की अपेक्षा बेटों को ज्यादा तर्जी दी जाती है। वहीं कन्या को बोझ से ज्यादा ऊपर नहीं समझा जाता है। 
                    रूढ़ीवाद एक ऎसी विचारधारा है, जिसमें व्यक्ति बिना तार्किकता और वैज्ञानिकता के केवल आस्था का अनुकरण करता है। पीढ़ी दर पीढ़ी समाजिक और राजनैतिक परंपरा का अनुसरण करता है। रूढ़ीवाद को बढ़ावा देने में सहायक रूप में सामाजिक परिस्थितियों एवं सामाजिक विचारकों, नेतृत्वकर्ता के अवैज्ञानिक और पूर्वाग्रहों के बंधनों के फलन होता है।
                  डेविड ह्यूम और एडमंड बर्क रूढ़िवाद के प्रमुख उन्नायक माने जाते हैं। समकालीन विचारकों में माइकेल ओकशॉट को रूढ़िवाद का प्रमुख सिद्धांतकार माना जाता है।राजनीतिक सिद्धांतकार जैसे कोरी रॉबिन रूढ़िवाद को मुख्य रूप से 'सामाजिक और आर्थिक असमानता की सामान्य रक्षा के संदर्भ में परिभाषित करते हैं।' 
                   नोएल ओ'सुल्लीवन द्वारा रूढ़िवाद को "मानव अपूर्णता का दर्शन" कहा गया है। जो इसके अनुयायियों के बीच मानव प्रकृति के नकारात्मक दृष्टिकोण और 'यूटोपियन' योजनाओं के माध्यम से इसे सुधारने की क्षमता के निराशावाद को दर्शाता है।  'यथार्थवादी अधिकार के बौद्धिक गॉडफादर', थॉमस हॉब्स ने तर्क दिया कि मनुष्यों के लिए प्रकृति की स्थिति 'खराब, बुरा, क्रूर और छोटा' है, जिसके लिए केंद्रीकृत अधिकार की आवश्यकता होती है।
              संकीर्ण मानसिकता के चलते कुछ लोग परिवर्तन इसलिए भी नहीं करना चाहते क्योंकि इससे उनके सामाजिक ढांचें पर साख और नियंत्रण खोने का भय रहता है। यदि रूढ़ीवाद की परम्परा का निर्वाह ना किया गया तो उन्हे लगता है। उसके बीना उनकी पूछपरख करने के लिए कोई श्वान भी ना रूकेगा। संभवतः ऐसे मानसिकता के धनि लोगों के हाथों में सामाजिक तंत्र की डोर होती है। जो समय बे-समय खलल उत्पन्न करते हैं। परंतु, वास्तविक में क्या रूढ़ीवादी कुरीतियों के महलों को ढ़हाने का वक्त नहीं आ गया है। वर्तमान समाज के नव पीढ़ी को यह विचार अवश्य करना चाहिए।तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो हमें कल की ओर अग्रसर करेंगें वर्ना रूढ़ीवादी विचारधाराओं के बवडंर हमें गर्त की ओर ले जाने के लिए काफी है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

महिलाओं के संदर्भ में सामाजिक तंत्र की पृथक व्याख्या : प्राज / Separate explanation of social system with respect to women

 
                          (फेमिनिज्म)

महिला, लड़की स्त्री के विभिन्न नाम है इन्ही पर्यायों को छानकर देखने का प्रयास करते हैं। स्त्री शब्द का प्रयोग प्रकृति में महिला से लिए होता है। जिसमें यह स्वभाव वाचक शब्द प्रतीत है। नारी वह शब्द है जिसमें देवत्व का बोध होता है। यह महिला के लिए इंगित गुणवाचक शब्द है। वहीं महिला शब्द की प्रयोगशाला सामाजिक प्रस्थिति के लिए होता है, जो यह अधिकार वाचक बोध कराता है। औरत शब्द मजहबी मीनारों में उपयोगिता के लिए प्रायोजित है। जिसका अर्थ, यह उपभोग बोधक शब्द है। वहीं मादा शब्द की प्रासंगिकता जैविक तंत्र के अंतर्गत देखा जा सकता है। यह प्रजनन बोधक शब्द है। बात करें आंग्ल भाषा की तो अंग्रेजी में फीमेल महिला के लिए प्रयोग है जो संदर्भित प्रतीत होता है। वहीं वोमेन यानी पराधीनता, यह शब्द जिसका अर्थ है वाईफ ऑफ मेन, यह पराधीनत बोधक शब्द है।
              यह तो महिला शब्द के विभिन्न पर्यायों के विस्तार रहे। जिसमें उसे आदमी के परछाई के रूप में दर्शाया गया है। बड़ी विडम्बना यह है कि महिला के लिए क्या अन्य शाब्दिक परिभाषा नहीं है। पुरातन काल से लेकर प्रकृति के हर एक परिवर्तन में पुरूष और महिला दोनो ही चरों ने भाग लिया। पारिस्थितिक चुनौतियों का सामना किया, आदिम से सभ्यता की ओर बढ़े। लेकिन कहीं ना कहीं महिलाओं के लिए एक स्थान पीछे खिसकते ही रहा। जब राजशाही शासन की स्थितियां  संचालित रही तो, राज्य विस्तार के लिए राजकुमारी का विवाह संधि के पत्र के साथ भेट की रूप में दी जाने लगी। जब कहीं आक्रमण हुआ तो, हारे हुए राजा को और लज्जित करने के लिए इंसानियत को तारतार करते हुए विजयी राजा के द्वारा स्त्रियों के साथ बालात् दूर्व्यवहार किये जाते थे। शास्त्र और शास्त्रों से दूर भी तो पुरूषों ने किया था। जैसे केवल और केवल घर के चुला-चौका चलाने के लिए पैदा हुई हो।
                   समय के पहिए में चक्र चलते रहे, परिवर्तन के कई दौर पलते रहे। हम पुरातन से आधुनिक होते रहे। कभी गणिका, कभी सौन्दर्य, कभी कोठेवाली, कभी महफिलों की शान, कभी मार्केटिंग का समान बनाकर, आँखों से नग्नता तलाश करने वालों भूखे भेड़ियों के लिए महिलाओं को मुलायम गोस्त की तरह परोसा गया। पर कभी महिला के अधिकारों और उसकी सामाजिक स्थितियों को तलाशने की जहमत कौन उठाये? सोचने की बात तो छोड़ ही दिजीए जनाब क्योंकि सौ फीसदी में एक-दो फीसदी लोग निकलेंगे जो महिलाओं के लिए बिलो द बेल्ट नहीं सोचते वर्ना दुनिया तो महिलाओं के लिए हैवानों से भरी पड़ी है।
                     बहरहाल परिवर्तन तो होना निश्चित है। जिस प्रकार से किसी जलती वस्तु को बंद मुट्ठी से कितने देर तक पकड़ कर रख सकोगे। ठीक वैसे ही महिलाओं में सशक्तिकरण और अपने अधिकारों की लड़ाई में उनको खूद के लिए लड़ना पड़ा। अपनी स्थिति और वर्चस्वता को साबित करना पड़ा है। वर्तमान कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ महिलाओं ने दस्तक देना प्रारंभ किया है। कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिलाओं ने अपनी वर्चस्व बना ली है। अधिकारों की कानूनी लड़ाई तो संभव है महिलाओं के द्वारा जीत लिया गया है। लेकिन सामाजिक स्तर पर आज भी एक छद्म लड़ाई चल रही है। पुरूष प्रधान तबका आज भी महिलाओं को सामाजिक स्तर पर एक अलग ही माप तौल की तराजू से तौलता है। जो आज भी सामाजिक बैठकों से लेकर संस्कारों तक महिलाओं को पृथक्करण करने का प्रयास किसी ना किसी रूप में देखा ही जा सकता है। महिलाएं जागृत हुई है और फलन जल्द ही वे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं विधिक समस्त क्षेत्रों में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करेगी। उसे कोई सहायिकाओं में बल्की नायिकाओं का दर्जा प्राप्त होगा। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

सामाजिक परिवर्तन की वेदी पर जनजाति समुदाय की प्रासंगिकता : प्राज / Relevance of tribal community on the altar of social change


                            (परिदृश्य)
  

आदिम से सभ्यता के स्तरों में कई परिवर्तन हुए। आदिम मानव ने जिसने अपने आप को समूह में रखना सीख लिया। जिसने समूह की बाध्यता, महत्व और प्रासंगिकता को आत्मसात कर लिया। विभिन्न कबीलों और समुह ये समुदाय की ओर बढ़ते कदमों में कुछ वर्ग बनने लगे। जिनमें आर्थिक, पारिस्थितिक और सांस्कृतिक अंतरों के आधार पर कई वर्ग बने। जैसे सामान्य, पिछड़ा, अनुसुचित, अनुसुचित जनजाति इत्यादि इसे सारगर्भित रूप से समझाने के लिए भारतीय संविधान जो 26 जनवरी 1950 से अंगीकृत है। संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार, 'राज्य लोगों के कमजोर वर्गों और विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को विशेष देखभाल के साथ बढ़ावा देगा और उन्हें सामाजिक अन्याय, शोषण और सभी से रक्षा करेगा।' हालांकि, ऐसी जनजातियां हैं जो अनुसूचित जनजाति (एसटी) नहीं हैं। आमतौर पर भारत की आबादी के कमजोर वर्ग हैं, जैसे कि अनुसूचित जाति के श्रेणी में आते हैं।
             बात करें जनजाति/आदिवासी सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में थियोडोर साहलिन्स लिखते हैं कि 'जनजातीय समाज' शब्द को 'विभाजनीय व्यवस्था' तक सीमित रखा जाना चाहिए। खंडीय प्रणालियों के संबंध छोटे पैमाने पर होते हैं। वे स्वायत्तता का आनंद लेते हैं, और किसी दिए गए क्षेत्र में एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। हम इसे झारखंड के संतक, उरांव और मुंडाओं के बारे में या राजस्थान के भीलों, भील ​​मीणाओं और गरासियाओं के बारे में देख सकते हैं। जनजातियों के विपरीत, जातियाँ प्रकृति में 'जैविक' होती हैं, क्योंकि प्रत्येक जाति 'जजमानी' प्रणाली, सहभोजता और संजातीयता के संदर्भ में एक जैविक संपूर्ण का हिस्सा होती है।'
              सामाजिक संरचना और संगठनात्मक विषयों पर डीजी मंडेलबौम (1972) कहते हैं की, 'आदिवासी जीवन में पूरे समाज की प्रमुख कड़ियाँ नातेदारी पर आधारित होती हैं।' नातेदारी केवल सामाजिक संगठन का सिद्धांत नहीं है, यह विरासत, श्रम विभाजन और शक्ति और विशेषाधिकारों के वितरण का भी एक सिद्धांत है। आदिवासी समाज आकार में छोटे होते हैं। उनके पास अपने सामाजिक संबंधों के अनुरूप अपनी खुद की नैतिकता, धर्म और दृष्टिकोण है। हालाँकि, कुछ जनजातियाँ जैसे संथाल, गोंड और भील काफी बड़े हैं। 
            इन समुदायों की एक संगठनात्मक संरचना होती है। वह संरचना या समाज जो नवीन प्रासंगिकताओं या नव विचारों का अपने में संकलन या अडब्शन करती है। यह क्रिया सामाजिक परिवर्तन है। डेविस सामाजिक परिवर्तन को बताते हुए कहते हैं कि, 'सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना एवं प्रकार्यों में परिवर्तन है।' अर्थात् सामाजिक संरचना के कार्यशैली में परिवर्तन की जो नव नीति प्रायोजित होती है। वह परिवर्तन कहलाती है। 
               मकीवर एवं पेज ने अपनी पुस्तक सोसायटी में सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष संबंध सामाजिक संबंधों से है और उसमें आए हुए नव परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन की संज्ञा दे सकते हैं।
           लेकिन किन कारकों से परिवर्तन संभव होता है।  मनुष्य ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और एक बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत तरह की खोज की है। नवीन प्रावस्था की खोज, जैसे आदिवासी पहले जंगलों में निवास करते थे। अब वे शहरीकरण और नागरिकता के दावपेच समझने लगे हैं। सामाजिक परिवर्तन के लिए दूसरे कारक के रूप में अविष्कार एक प्रमुख संसाधन है। तृतीय कारक, सांस्कृतिक जगत के परिवर्तन में प्रसार का प्रमुख योगदान रहा है। पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, एवं भूमंडलीकरण जैसी प्रक्रियाओं का मुख्य आधार प्रसार ही रहा है। चौथे कारक के रूप में आन्तरिक विभेदीकरण के देखा जा सकता है। इन्हीं चार प्रतिमानों की प्रासंगिकता में आदिवासी सामाजिक संरचना में परिवर्तन प्रदर्शित होते हैं। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

आधुनिक और पुरातन परम्पराओं की रस्साकशी में परिवर्तन का अंकुरण : प्राज/ Germination of change in the tug of war between modern and ancient traditions


                        (समाजवाद


परम्परा, जिसे आंग्ल भाषा में ट्रेडिशन कहते हैं। जिसकी उत्पत्ति ट्रेडेरा अर्थात् हस्तांतरण करना है। वहीं हमारी जननी भाषा संस्कृति में परम्परा का अर्थ है। विरासत में प्राप्त या ऐतिहासिक विरासत होता है। शब्द के संयोजन को यदि सटीकता से समझने का प्रयास करें तो यह कहलाता है कि, 'प्राचीन/पुरातन काल से चली आ रही बातों का पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होना ही परम्परा है।' उदाहरण के लिए जैसे समझने का प्रयास करें, बच्चे के जन्म के पश्चात् नामकरण संस्कार रखने की परम्परा किसी ना किसी मूलक ने प्रारंभ की होगी, उस समय यह नव प्रयोजन वर्तमान में आवश्यक परम्परागत संस्कारों में शुमार हो चुकी है।
          रॉस परंपरा को सारकरण में समझाते हुए लिखते हैं की, 'परम्परा का अर्थ चिंतन और विश्वास करने की विधि का पीढ़ीगत् हस्तांतरण है।' रॉस ने परम्परा को विचार और विश्वास दो प्रारंभिक अवस्थाओं का संयोजन और उसने लगतार चलन की बात कहीं। इस विषय पर एक दृष्टिकोण देखते हैं, प्राचीन काल से घरों के आँगन में तुलसी का पौधा लगाने की परम्परा रही है। जिसमें देवत्व का वास बतलाया गया है। यह विचार एक चिंतन के रूप में समाज में व्याप्त हुआ। वहीं वैज्ञानिक रूप में देखें तो तुलसी के पौधे से अत्याधिक मात्रा में ऑक्सीजन निकलती है। यह शुद्धिकरण से लब्धित पौधे का समीप स्थापना आवश्यक है। लोगों मे वैज्ञानिक विचार के बजाय पारम्परिक विचाराधारा तीव्रता से ग्रहण करने की मनोवृत्ति तो रहता है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होती रही और यह परंपरा आज भी जीवित है। 
             जिन्सबर्ग लिखते हैं कि, 'परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है।' वहीं जेम्स ड्रीवर ने लिखा है, 'परम्परा – कानून, प्रकट कहानी तथा किवदन्ती का वह संग्रह है, जो मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।'
              परम्परा जो एक समय के पश्चात् कानून के रूप में समुदाय में व्याप्त हो जाता है। वहीं परम्पराएं हैं तो उनका क्षेत्र, जातिगत समीकरण और धार्मिकता के पृष्ठभूमि पृथक हो सकते हैं। जहाँ परम्पराओं में विविधता और उनके प्रायोगिक शैली भी पृथक होगी। 
            पुरातन काल से चली आ रही परम्परा का प्रभाव वर्तमान में देखने के प्रयास के पूर्व आधुनिकता को समझने का प्रयास करते हैं। एलाटास  (1972) आधुनिकता को समझाते हुए कहते हैम कि, 'आधुनिकीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है। जिसके द्वारा सम्बद्ध समाज में अधिक अच्छे व संतोषजनक जीवन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य से आधुनिक ज्ञान को पहुँचाया जाता है।' वहीं समाज वैज्ञानिक पई(1963) ने आधुनिकीकरण को  'व्यक्ति व समाज अनुसंधानात्मक व आविष्कारशील   व्यक्तित्व का विकास माना है जो तकनीकी तथा मशीनों के प्रयोग में निहित होता है तथा नए प्रकार के सामाजिक संबंधों को प्रेरित करता है।' 
              आधुनिकता के इस दौर में रोजगारपरक संसाधनों के लिए लोग लगातार माइग्रेट होते रहते हैं। जहाँ बसते है वहाँ दो भिन्न या विविध परम्पराओं के लोगों से व्यवहारिक संबंध बनते हैं। इसके साथ ही परम्परात्मक विचारों में यातो परिवर्तन होगा या फिर घर्षण होता है। जहाँ परिवर्तन प्रथा/परंपरा में नवांकुरण है। तो संघर्ष परम्परा के वर्चस्व की लड़ाई बनते देर नहीं लगता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

सामाजिक संरचना में अपरिभाषित वर्ग युद्ध बनाम पारदर्शी दरारें : प्राज / Undefined class war versus transparent cracks in the social structure


                          (परिदृश्य



सामाजिक संरचना को हम रेडक्लिफ ब्राउन के मतानुसार समझनें का प्रयास करेंगे। उनके अनुसार, 'जब कभी हम सामाजिक संरचना का उल्लेख करते हैं, तो सामाजिक सरंचना से हमारा अभिप्राय एक व्यवस्था से होता है। जिसमें उस व्यवस्था व सरंचना के विभिन्न तत्व एक-दूसरे से जुड़े होते है। तत्वों के इस समीकरण और व्यवस्थित पद्धति को ही सरंचना कहा जा सकता है। सामाजिक सरंचना के संदर्भ में व्यक्ति को उस संरचना की इकाई मानते हैं।' सार में कहें तो मनुष्य, उसकी सभ्यता का पैटर्न, संबंधों की व्यवहारिकता सामाजिक संरचना है। 
                सामाजिक संरचना में समरसता बेहद आवश्यक तत्व है। जहाँ मानव-मानव को समानता से देखे। जिस प्रकार मनुष्यों के बुद्धि लब्धि शक्तियों में भिन्नता होती है। ठीक उसी स्वरूप में सामाजिक स्तरीय संरचना में वर्गों में विभिन्नता का प्रादुर्भाव आर्थिक रूप में परिलक्षित होता है। जहां अधिक कुशल और कामगार लोगों में धनार्जन के लिए सरलता से संसाधन मिल जाते हैं। जो अपने साथ-साथ अपने नवीन पीढ़ी के जीवन को सरल और धनार्जन के संसाधन के लिए कामगार और प्रवीण बनाने के लिए ज्यादा मशक्कत और मेहनत की आवश्यकता नहीं होती है। एक समय पश्चात शनैः-शनै: ही सहीं लेकिन, उसी समूह के परिवारिक इकाई की सबलता धनार्जन और धन संचयन के फलन समाज में उसे उच्च वर्ग के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
           वहीं कुछ लोगों की स्थिति ऐसी होती है। जो दिन और रात मेहनत करते हैं। लेकिन अर्थ की उपयोगिता और नियोजिन में घोंघा बसंत साबित होने वाले लोगों के लिए आर्थिक स्तर पर जीवन निर्वाह बेहद विकट हो जाता है। वे अपने स्तर से संघर्ष तो करते रहते हैं। लेकिन उस स्थिति से पार करने में अक्षम प्रतीत होने लगते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अकुशल और असंगठित प्रयासों के कारण भी वह अर्थार्जन में विफल और सामाजिक स्तर पर उच्च वर्गीय श्रेणी के नीचे रहना पड़ता है।
            बहरहाल, अार्थिक स्थितियों के आधार पर दो वर्ग सुनिश्चित हो गए। एक वह वर्ग जो आर्थिक स्तर पर उच्च है और दूसरा वह वर्ग जो आर्थिक स्तर पर कमजोर है। इन्हे उच्च वर्गीय और निम्न वर्गीय कहा जा सकता है। इसके साथ एक दोनो वर्गों के बीच एक वर्ग जो संघर्षरत् रहता है। अपनी स्थिति सुधारने में वह वर्ग है, मध्यमवर्ग। जहाँ एक ओर उच्च वर्ग अपने आप को सामाजिक संरचना में सर्वोच्च समझता है। और अपने स्तर को निरंतर बनाए रखने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सभी हथकंडे अपनाने के लिए पीछे नहीं हटता है। वहीं दूसरा वर्ग जो निम्न है। वह सामाजिक संरचना में अपने स्तर को निम्न और जीवन शैली से असंतोषजनक समझता है। मानसिक रूप से ये स्थितियां कहीं ना कहीं उनके मनोमस्तिष्क में अपने स्तर को लेकर शुन्य ही सहीं लेकिन खलल तो स्थापित रहती है। वहीं उच्च वर्ग की सर्वोच्चता की भावना से वह निम्न या मध्यम वर्ग को तिरस्कृत दृष्टि से देखता है। जिससे वर्गों में संघर्षों का उत्कर्ष होता है और संरचना में अस्थिरता व्याप्त होने लगती है।
            सामाजिक संरचना रचना में जन्में इस असंतोषजनक व्यवाहर शैली या संघर्ष से समाज में अपराध बढ़ने लगते है। इस संघर्ष को परिभाषित करते हुए दुर्खीम कहते हैं, 'मनुष्य समाज की उपज हैं और जैसा समाज होगा वैसे मानव होंगे।' कहने का तात्पर्य है यदि मनुष्य अपने समाज में असंतोष में है तो पूरा समाज और संरचना असंतोषित होंगे। वहीं इन संघर्षों के उत्पति के संबंध में सदरलैण्ड कहते हैं, 'अपराधी जन्म से नही होते वरन् अपराधी बनाने का काम समाज करता है।' 
              वर्तमान में समाज में व्याप्त यह संघर्ष चरमोत्कर्ष पर है। जहाँ गरीब या निम्न वर्गीय व्यक्ति अपनी गरीबी का कारण उच्च और मध्यम् वर्ग के भ्रष्टाचार के कारण पनपने का कारक मानते हैं। वहीं इसी के फल स्वरूप एक से दूसरे स्तर पर छींटाकशी निरंतर करते रहते हैं। संघर्ष की दरारें अब इतने बड़ गए हैं की विरोध के लिए अपराधिकतत्वों के संगठन भी समाज में प्रदर्शित होने लगे हैं। यह अपरिभाषित संघर्ष या युद्ध किसी ना किसी रूप में समाज के हर स्तर पर जारी है। समरसता के लिए प्रतिक्षा की घड़ी अभी बहुत लम्बी है, वक्त को भी उस घड़ी की बेसब्री से तलाश है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

सामाजिक तंत्र में स्तरीकरण की प्रासंगिकता और आवश्यकता: प्राज / Relevance and need of stratification in social system


                                (परिदृश्य


प्राचीन काल से लेकर आज तक के मानव समाज के इतिहास में कोई ऐसा समय नहीं रहा जिसमें किसी भी एक समुदाय के सभी व्यक्तियों की सामाजिक,आर्थिक, सांस्कृतिक या राजनैतिक स्थिति समान रही हो।   आज के ग्रामीण समुदाय में भी विभिन्न व्यक्तियों के बीच अनेक आधारों पर ऊँच नीच का एक स्पष्ट विभाजन देखने को मिलता है जिसे हम सामाजिक स्तरीकरण की संज्ञा दे सकते हैं। सोरोकिन के अनुसार, अस्तरीकृत समाज जिसके सदस्यों में वास्तविक समानता हो,केवल एक कल्पना है जो मानव इतिहास में   कभी साकार नहीं हुई है। सामाजिक स्तरीकरण समाज के विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में विभिन्न सामाजिक स्तरों के मध्य संरचनात्मक असमानताओं की व्यवस्था है। सामाजिक स्तरों को सामाजिक अस्तीत्व, समाज के मूल्यों और नियमों के आधार पर ऊँची नीची श्रेणी में रखा जाता है।
            सभ्यता के उत्थान से लेकर सभ्यता के उत्कृष्ट बनने तक की सीढ़ी में सामाजिक स्तरीकरण की अवस्थिति रही है। इसे हम एक उदाहरण स्वरूप समझने का प्रयास करें तो, एक शिक्षक जो 100 विद्यार्थियों को समान शिक्षा देता है। लेकिन परीक्षा के परीणाम में विभिन्न स्तर जैसे प्रथम, द्वितीय, तृतीय, उत्तीर्ण, पूरक या अनुत्तीर्ण की स्थितियां प्राप्त होती है। कहने का तात्पर्य है कि जिस प्रकार शिक्षक सभी को समान शिक्षा देते हैं। जिसके परिणामस्वरूप विद्यार्थियों के समझ, विषय की रुचि, पठन-पाठन में ध्यानाकर्षण की स्थिति के कारण समझने की क्षमता कम या ज्यादा होती है। ठीक वैसे ही समस्त प्रकृति में मनुष्यों की भौतिक संरचना समान है। जिनमें मनुष्य ना तो, अधिक संरचनात्मक रूप लेता है और ना ही किसी विशेष क्षेत्र में अधिकता का प्रतिनिधित्व करता है। बल्कि वह रूचि के अनुसार अपने क्षेत्र का चयन करता है। उसी क्षेत्र में पारंगत भी होता है। मनुष्यों में यही भिन्नता का बोध, हम सामाजिक स्तरीकरण में विविधताओं के रूप में देख सकते हैं। सामाजिक तंत्र में यह स्तरीकरण होना आवश्यक भी है।
                   परंतू, जैसे की यह साफ किया गया है कि यह मनुष्यों के रूचि पर आधारित है। इसे परंपरागत रूढ़ीवादी विचारधारा में बदलना कभी भी उचित नहीं होगा। जैसे ग्रामीण परिवेश में हम सामाजिक स्तर को देखते हैं। जहां आर्थिक स्तर पर तीन वर्ग होते हैं। उच्च वर्ग, मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय ये तीन वर्ग ग्रामीण व्यवस्था में प्रदर्शित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोगों में अपने वर्ग से परिवर्तन कर उन्नति को लक्ष्यित मानते हैं। वे निरंतर परिवर्तन के लिए प्रयास करते रहते हैं । इसका परिवर्तन भी एक समय के पश्चात देखा जा सकता है।
                 एक नियत समय के पश्चात् वर्गों की स्थिति में परिवर्तन होते रहता है। जैसे जो निम्न वर्ग है वह अपने स्तर में सुधार कर उच्च या मध्यम वर्ग में पहुँच जाते हैं। यहां पर एक सवाल यह भी उठता है कि यदि सामाजिक स्तरीकरण यदि ना हो, तो क्या होगा? इसका सीधा असर सामाजिक तंत्र की व्यवस्था को तहस-नहस करने वाली स्थिति को जन्म देगी। जैसे यदि सामाजिक स्तरीकरण न हो, मानकर चलें किसी कक्षा में सभी छात्र समान अंकों से उत्तीर्ण हो जाते हैं। तो सभी एक रोजगार के लिए पात्र होगें। वहीं यदि सभी अपने स्तर के सुधार के लिए उत्कर्ष औऱ संघर्ष का रास्ता लेंगें। यदि पूर्ति ना हो,तो यह भी संभव है की यह सामाजिक संरचनात्मक आधारभूत मॉडल को निष्क्रिय कर दें। जैसे मानकर चलिए सभी तृतीय और द्वितीय वर्ग के लिए कार्य करना चाहेंगे। जिससे चतुर्थ वर्ग में रिक्त या अव्यवस्था बढ़ेगी जो कहीं ना कहीं तंत्र को अस्थिर और जड़ता प्रदान कर देगी। भावी समय में लोगों में परिवर्तन और स्वालम्बन यदि रहे भी तब भी यह अस्तरण होना ही सामाजिक तंत्र की विफलता का बोध कहलायेगा। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

आदिम से सभ्यता और समाजशास्त्र तक की दौड़ : प्राज / The race from primitive to civilization and sociology



                            (परिदृश्य)

मनुष्य यानी होमो-सेपियन्स 65 हजार वर्ष पूर्व पृथ्वी पर विकसित हुए थे। अफ्रीका महाद्वीप से पनपी यह विशेष आदिम प्रजाति मानव अपने प्रारंभिक पीढ़ीयों में खानाबदोश और पूर्णतः वनवासी था। जिसने धीरे-धीरे अपने आप को विकसित करना सीखा। सीखने के इसी क्रम में आदिम या आदिमानवों में क्रांतिकारी खोज रही आग की। आदिमानवों में झुंड और एक साथ रहने की परम्परा उनके संरक्षण और दल की मजबूतीकरण के लिए सहायक हुए। जिसके चलते समूह के लोगों के प्रति लोगों में अनभिज्ञता ही सही लेकिन प्रेम और एकता सांकेतिक रूप में अवस्थित रही। साथ में शिकार करते, मिल बाटकर भोजन करते अनायास ही सही लेकिन आदिम समाज की अवधारणा यहां पर प्रदर्शित होती है। चक्रण युहीं चलते गया, वो पहले एकत्र हुए फिर, स्तरों में सुधार हुआ। इसके पश्चात वे स्तरों को और उत्कृष्ट बनाने के प्रयास में जिज्ञासु और खोजी प्रवृत्ति के विकास करने में उत्कृष्ट हो गए। इस दौर के पश्चात, वह दौर आया जहां वे अच्छे से बेहतर और बेहतर से बेहतरीन की सीढ़ी की ओर बढ़ने लगे।
             मेसोपोटामिया सभ्यता सबसे प्राचीन मानव सभ्यताओं में से एक है। जिसे सुमेरियन सभ्‍यता के रूप में भी जाना जाता है, यह अब तक मानव इतिहास में दर्ज सबसे प्राचीन सभ्यता है। मेसोपोटामिया नाम ग्रीक शब्द मेसोस से लिया गया है, जिसका अर्थ है मध्य और पोटामोस, जिसका अर्थ है नदी। मेसोपोटामिया यूफ्रेट्स और टाइग्रिस नदियों के बीच में स्थित एक जगह है जो अब इराक का हिस्सा है। यह सभ्यता प्रमुख रूप से अपनी समृद्धि, शहरी जीवन, विशाल साहित्य, गणित और खगोल विज्ञान के लिए जाना जाता है। उरुक के शुरुआती शासकों में से एक, एनमेरकर के बारे में एक लंबी सुमेरियन महाकाव्य कविता में यहां के शहरी जीवन, व्यापार और लेखन और उपब्धियों के बारे में विस्तृत वर्णन किया है। 
            भारतवर्ष में सिंधु और हड़प्पा सभ्यता के अवशेष आज भी अतीत के रहस्यों को उजागर करते हैं। हम बात कर रहे हैं मानवों के उत्थान के स्तर के साथ समाज की कल्पना और समाज का वैज्ञानिक स्वरूप में अध्ययन के लिए विषय के रूप में संगठन के उत्पत्ति के कारण एवं अवस्थाओं के विषय में। सिंधु और हडप्पा संस्कृति में विशेष कर सिविलाइज्ड कॉलोनियों के प्रमाण मिलते हैं। 6500 ईसा पूर्व के बाद, खाद्य फसलों और जानवरों के वर्चस्व के लिए सबूत, स्थायी संरचनाओं का निर्माण और कृषि अधिशेष का भण्डारण मेहरगढ़ और अब बलूचिस्तान के अन्य स्थलों में दिखाई दिया। ये धीरे-धीरे सिंधु घाटी सभ्यता में विकसित हुए, दक्षिण एशिया में पहली शहरी संस्कृति, जो अब पाकिस्तान और पश्चिमी भारत में 2500-1900 ई.पू. के दौरान पनपी। इस दौर में समाज की अवधारणा, महत्व और प्रासंगिकता के विषय में लोग समझ गए थे।
          समाज के गठनोपरांत, आधुनिक युग में समाज पर आधारित अध्ययनों की शाखा को समाजशास्त्र कहते हैं। बाटोमोर के अनुसार, 'समाजशास्त्र एक आधुनिक विज्ञान है जो एक शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है। वास्तव में अन्य सामाजिक विज्ञानों की तुलना में समाजशास्त्र एक नवीन विज्ञान है।' एक विशिष्ट एवं पृथक विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र की उत्पत्ति का श्रेय फ्रांस के दार्शनिक आगस्त काम्टे को है। जिन्होंने सन 1838 में समाज के इस नवीन विज्ञान को समाजशास्त्र नाम दिया । तब से समाजशास्त्र का निरंतर विकास होता जा रहा है। लेकिन यहां यह प्रश्न उठता है कि क्या आगस्त काम्टे के पहले समाज का व्यवस्थित अध्ययन किसी के द्वारा भी नहीं किया गया । इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यह कहा जा सकता है कि आगस्त काम्टे के पूर्व भी अनेक विद्वानों ने समाज का व्यवस्थित अध्ययन करने का प्रयत्न किया लेकिन एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में समाजशास्त्र अस्तित्व में नहीं आ सका।
                 भारतीय उपनिषदों, वेदों और महाकाव्यों में वर्णित समाज की व्यवस्था से लेकर वर्तमान भारतवर्ष के महान समाज प्रेमी मनु की मनुस्मृतियों में समाज के विभिन्न क्षेत्रों का वर्णन, प्रथा, संस्कृति, संरचना, व्यवस्था इत्यादि का लेखन तो वर्षो पूर्व हो गया था। लेकिन पेटेंट या अपने नाम पर क्रेडिट सिस्टम के उन्होंने अपने नाम करने के बजाय दर्शन के लिए लोगों के बीच अमृत कलश स्वरूप जनमानस और समाज को समर्पित कर चले गए। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़