(अभिव्यक्ति)
माइथोलॉजिकल, कुछ वैचारिक तथ्यों और तर्क के संबंध अनायास ही सहीं लेकिन ध्यानाकर्षण तो निश्चय ही हुआ। जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं। ठीक वैसे ही हम जो चींजे जैसे देखते है। और जैसा उसे समझने का प्रयास करते हैं। यह संभव है की वह उस प्रथम दृश्या के श्रेणी से बेहतर अलग और भिन्न हो। जैसे पांचों उंगलियाँ बराबर नहीं होते हैं। ठीक वैसे ही लोगों के वैचारिक कल्पनाशिलता और मतों में विविधता आवश्यक है। जंगल में किसी व्याघ्र से यदि सामना हो, तो संभव है आप दो स्थितियों में होंगे। पहली स्थिति यह है की आप आक्रमकता दिखाने का प्रयास करेंगे। इसके लिए हो सकता है। आप उस पर आक्रमणकारी क्रियाओं का निष्पादन भी कर दें। फलन वह भी अपनी आत्मरक्षा में प्रति उत्तर तो निश्चित ही प्रदत्त करेगा।
ये कोई डिबेटिक मोड नहीं है की आप कहें की अनायास ही आपके क्षेत्र में आ गए और आप ने बताया भी नहीं की इस क्षेत्र में आपका इस समय आना होगा। आप ने प्रोटोकॉल की भूमिका का निर्वाहन नहीं किया है। वहीं दूसरी शैली की बात करें तो आप समर्पण की भूमिका में आ जायेंगे। यह भी निश्चित है की इस स्थिति में भी नुक्सान आपका ही होना तय है। क्योंकि व्याघ्र तो वैसे भी प्रकृति से हिंसक है। लेकिन इस अवस्था में आप अपने आप को क्षीण और डरा पायेंगे। वहीं मनोबल का टूटना तो स्वाभाविक है तभी तो जाकर आप ने समर्पण के मार्ग का चुनाव किया है।
दोनो ही स्थितियों के आकलन के उपरांत आप पाते हैं की दोनो ही स्थिति में नुक्सान तो केवल उस मनुष्य का हुआ। वहीं व्याघ्र की भूमिका पर आपकी वैचारिक दृष्टिकोण यह होगा की, व्याघ्र एक हिंसक जानवर है। जो अपने क्षेत्र में आये हुए, किसी भी जीवन पर हिंसक करने के लिए आतुरता दिखलाता है। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। आईये अब सिक्के को उल्ट कर देखने का प्रयास करते हैं। यहां पर वह एक्यूस्ड नहीं है बल्की जो व्यक्ति विशेष उसके सम्राज्य क्षेत्र के अंदर प्रवेशित किया है, वह ही प्रधान एक्यूस्ड है। क्योंकि उसका कानन तो शांति के चादर में उदासीनता प्रधानत्व से लब्धिनिधानाय था। जिस पर कोलाहल की प्रविष्टियाँ तो उस व्यक्ति विशेष ने दिखलाई। वह इंसान को देखकर हीं डिफेंसिव मोड में आया और रक्षात्मक रवैय्या अपने हुए उसने हमला किया। यहाँ पर गलती किसी है?
यहाँ पर हम थोड़े बायस भी नज़र आते है। क्योंकि इंसान तो अपने प्रजाति का है। जो एक समय पर चलने के लिए एक ही पैर उठाता है। जबकी व्याघ्र जो खूद को भी एक्यूस्ड बताता है उसकी दलिलें हम नज़र-अंदाज करने में देर कहाँ लगते हैं। ठीक ऐसे ही समाज में विभिन्न वर्गों के लोगों के संस्तरों से समाज बना है। कभी-कभी अपनी विशालता और महानता दिखलाने के लिए प्रदर्शन इतना कर बैठते हैं की संस्तरों की सीमा लांघ जाते हैं। जिसके परिणामस्वरूप दो विभिन्न वर्गों में टकराव और एक वैचारिक खाई पनपने लगती है। जो समय के साथ बड़ी भी होते जाती है। सोशल से शोषण की ओर बढ़ने के लिए विभिन्न विचारधाराओं के टकराव की अवधारणा ही काफी है। जो समाज और नैतिकमूल्य को छिन्न-भिन्न करने के लिए अकाट्य वज्र के समान है। शेष चिंता और चिंतन आपके हाथों में है। सिक्के के एक पहलु और पक्षपात से रहित होकर अनुकरण करेंगे या भीड़ की संख्या में अपना अमुल्य योगदान देंगे।
लेखक
पुखराज प्राज