(अभिव्यक्ति)
बैरंग भागती जिंदगी के दरमियाँ गरीबी के चादर और भी महंगे साबित होते हैं। वैसे तो संस्तरण की बात करें तो, उच्च, मध्य और निम्न की एक पारदर्शिता रखने वाली लाईन दो सफाई से दिखाई देती है। लेकिन हम बुद्धिजीवी मानवों में लगभग इन्सानियत और मानवता का जैसे इंक शुष्क होने के पड़ाव की ओर है। एक तरफ तो कुछ ऐसे लोगो भी है जिनके पास धन के नाम पर कुबेर के खजाने की चाबी हो। तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों का दल भी है जो प्रातः के धूप से लेकर रात्रि के चुल्हे में जलने वाली लकड़ी के मोल नहीं भर पाते हैं। मानों अर्थ की परीक्षा हो और वे ऐसे छात्र है जिन्होंने सिलेबस ही नहीं पढ़ा हो। वेदनाओं के डगर पर, छेद वाली नाव के सहारे सोचते हैं। जीवन पार कर लेंगे।
गरीबी की बात चली है। तो राजनीति द्वार का खुलना भी आवश्यक है। जो नित्य ही गरीबी की उन्मूलन की बात तो अवश्य करते हैं। लेकिन योजना का सारा दारोमदार संभालने वाले काबिल कंधों के लालच की भेट चढ़ जाती है। गरीबी के उन्मूलन के नाम पर, मानसिक गरीबी दूर करने के प्रयास से गबन के पावन सृजन की उत्पत्ति ऐसे ही महान भ्रष्टों ने की है। जिनके पावन कर कमलों पर बड़ी से बड़ी जन कल्याणकारी योजनाओं को स्पर्श करते ही राख कर देने का यात्रिकी है।
गरीबी के बीच एक और समीकरण तो अवश्य रखना चाहूंगा। वह समीकरण है जातिगत, वास्तव में मुफलिसी के दौर में जीवन गुजार रहे लोगों के पास तो तनिक भी समय यह नहीं होता है की वह जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ, विचार या बौद्धिक चिंतन करे। वह केवल इस बात से चिंतित रहता है की पेट का भरण कैसे हो। वैसे गरीबी के एक और स्वरूप के संदर्भ में मुझे याद आया की जब आप खुशहाल जीवन में रहे तो भूख भी सामान्य से कम लगती है। लेकिन दरिद्रता के पसरे पाँव देखते ही भूख के तो जैसे रौद्र रूप धारण कर लेता है। इसके पश्चात् तो चाहे जो हो, आदमी विवशता के बोझ में दबकर कुछ भी कर बैठता है। अंगों के विक्रय से लेकर देह व्यापार तक के घिनौना, और नीच कार्यों में संलिप्तता का प्रधान कारण भूख है। पेट की ज्वाला तो ज्वाला है जब तक भोज के कुछ कण नहीं डाले जायेंगे। तब तक तो शांत होने से रहा है। भूख के ह्रास से त्रास में जी रहा मनुष्य टूटता और बिखकर फर्श से भी मलिन हो जाता है।
लेकिन नैतिक और उच्च वर्गों के प्रतिनिधिमण्डल का चेहरा बने लोगों को यह कहां से समझ आता है। वे अपनी ठाठ तो प्रीतिभोज में छलकते रायते और टपकते पकवानों के झोर में तलाशतें हैं। पर कभी ये नहीं सोचते की पड़ोस में रहने वाले के घर चुल्हा जला है की नहीं?? यही विडम्बना है जो गरीबी से दो चार होते लोगों की सहयोग के लिए उठने वाले हाथो की संख्या में कमी गरीबी को सामान्तर और परस्पर बनाए हुए है।
लेखक
पुखराज प्राज