(अभिव्यक्ति)
परम्परा जो पूर्व समय से चली आ रही वह परिपाटी है जहाँ नियमों, विधानों और प्रथाओं की पीढ़ी दर पीढ़ी संचरण होता है। समाजशास्त्री गिन्सबर्ग लिखते है, 'परम्परा का अर्थ सम्पूर्ण विचारों ,आदतों और प्रथाओं के योग से है। जो एक समूह की विशेषता है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहती है।' वहीं रॉस के अनुसार, 'परम्परा का अर्थ चिंतन और विश्वास करने की विधि का हस्तान्तरण।' जेम्स ड्रीवर के अनुसार, 'परम्परा कानून प्रथा कहानी और पौराणिक कथाओं का वह संग्रह है जो मौखिक रूप में एक पीढ़ी द्वारा दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।'
कहने का तात्पर्य है की परम्परा का संरक्षण एवं पूरानी पीढ़ी से नव पीढ़ी में हस्तांतरण की जिम्मेदारी भी समाज के वरिष्ठों की होती है। परम्परा व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करती है। परंपरा, कुछ निश्चित व्यवहार प्रतिमानों को प्रस्तुत करती है और समाज के सदस्यों से यह आग्रह करती है कि वे उन्हीं प्रतिमानों का अनुसरण करें परम्परा के पीछे अनेक पीढ़ियों का अनुभव तथा सामाजिक अभिमति होती है, और इसीलिए इसमें व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करने को शक्ति होती है। सामाजिक निन्दा के डर से ही व्यक्ति परम्परा को तोड़ने का साहस सामान्यत: नहीं करते। परम्परा' किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं होती, वह तो 'सब' की होती है। यह सब प्रत्येक' पर अपना नियन्त्रणात्मक प्रभाव डालता है, और उसके व्यवहार को निर्देशित व संचालित करता है।
परम्परा यानी सामाजिक अनुशासन की संज्ञा भी दिया जा सकता है। चुंकि अनुशासन बनाए रखना है तो यह दायित्व भी होता है की जो वरिष्ठ हैं, उनके तेवर तल्ख हों, और वाद-प्रतिवाद में कटाक्ष की प्रचुर मात्रा का संकलन अवश्य हो। स्वाभाविक भी है की यदि समाज में वरिष्ठों की पकड़ का एब नहीं हो तो टूटने की प्रक्रिया भी जल्द ही घर कर लेती है। बहरहाल, पूरानी पीढ़ी जो परम्पराओं को संजोकर, संवर्धित और सर्वभौम रखना चाहती है। वहीं नव पीढ़ी के लोगों में परम्पराओं में अमूलचूल परिवर्तन करने की स्वीकार्यता रहती है। इसी वैचारिक संधि स्थल पर नव पीढ़ी और पूरातन पीढ़ी के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है। यह संघर्ष एक ओर जहाँ परिवर्तन की बयार लेकर आता है। वहीं दूसरी ओर आपसी वैमनस्य की जन्मस्थली बन जाती है।
जहाँ नवांकुरों में नव परिवर्तन को आत्मसात् और वृद्धों में अतित को संजोने की जीद के चलते यह संघर्ष बढ़ने से सामाजिक स्तर में द्वी-पक्षीय तनातनी की स्थिति स्वत: निर्मित हो जाती है। नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के फलन शहर की ओर बढ़ने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ा है। जो विभिन्न संस्कृति एवं परम्पराओं के मानने वाले होते है। नगर में निर्मित नवीन समाज में जहाँ परस्परता और लोगों में आपसी सौहार्द्र बढ़ता है। तो परम्पराओं में परिवर्तन तो लाजमी हैं। कभी कभी परम्पराओं के प्रदर्शन की परिपाटी से भी समाज में संघर्ष उत्पन्न होता है। जो समाज के उत्थान और सौहार्द्र के लिए उचित नहीं है।
लेखक
पुखराज प्राज