Tuesday, March 29, 2022

कंकरीट के शहर में खोया ठहाकों का एक जंगल/ A forest of laughter lost in the city of concrete


                          (अभिव्यक्ति)

   पारिवारिक संरचना से लेकर सामाजिक परिवेश तक मानवीय व्यवहार कौशल में प्रत्यास्थता का बोध होने लगा है। जो जटिल है और अपरिभाषित भी है। जैसे नगरीकरण पर चोट करती एक पंक्ति कहती है कि, 'अब तो सिर्फ इस शहर में मकान बसते है। और कंकरीटों में क्या इन्सानियत ढूढ़ रहा है। जिन्दा भी है की नहीं क्या पता, शहर में बस परेशान बसते हैं।' जिन्दगी की आपाधापी और पूंजीवाद के बिखेरे सुख भोगने के पीछे भागते इंसान की हालत उस श्वान से कम नहीं जो हड्डी की लालच में चमार के सायकल में लटकते जानवरों के अस्थि-पंजर के पीछे दौड़ता है। मिलने के लिए तो सिर्फ डाट और डंडा ही है। लेकिन क्या पता कुछ टूट कर गिर जाये। इसी मरीचिका के फिराक में दौड़ता इंसान अपनी इंसानियत से हाथ धोकर गिरगिट के खोल ओढ़ने लगा है।
         व्यवहार शैली जहाँ पहले अपनत्व प्रधान थी। वर्तमान में प्रोफेशनल हो गई है। जैसे आवश्यकता अनुसार गिरगिट के रंग बदलते हैं। ठीक वैसे ही हवा के रूख बदलते देखते हैं, तो लोगों में रंग बदलने की परम्परा का निर्वाह करना तो जैसे निर्बंध कार्य हो। स्वाभाविक है की व्यवहार प्रत्यास्थता के पीछे भी कुछ वजह हों। जैसे पूंजी, ऐश्वर्य और अपने स्तर में परिवर्तन को सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च मानना होता है। पहले जहाँ लोगों में आपसी अपनत्व और सामाजिक बंधुता प्रमुख था। लेकिन आधुनिकता के इस पावन बेला में समाज के प्राणियों का अपग्रेडेड वर्जन इतना भारी है की बतायें क्या? अभी की वर्तमान जनरेशन, अनुभव से ज्यादा तो उदाहरणों को प्रासंगिक मानने लगी है। जो प्रदर्शन और दूसरे लोगों को ईर्ष्यालु प्रवृत्ति से जलाने की रहगुज़र पर निकल पड़े हैं।
             नगरीकरण के गोद में पूंजीवाद का लालन-पालन हुआ। जो लोगों में बौधिक की अपेक्षा भौतिक सुख के लिए प्रेरित करने पर आमादा है। इसके लिए चाहे मनुष्य छली, जालसाज़ी, भ्रष्ट और अमानवीयता की ओर जाना क्यों पड़े कोई गुरेज़ नहीं है की प्रकृति के साधक बन बैठा है। शहर की हवा में जहाँ एक ओर प्रदुषण तो दूसरी ओर मानवता में संबंधों में आवश्यकता की प्रधानता, और व्यावहारिकता का गौण होना भी सामाजिक पारिस्थितिकी के लिए हानिकारक प्रदुषित वातावरण के समान है। कठोर और काम चलाऊ प्रकृति के संबंधों के चलते जीवनकाल में मनुष्य नाम,मित्र और स्नेह के बजाय आपसी वैमनस्य बनाए फिरता है। जो उसके भावी कल के समय में केवल शुन्यता के काल कोठरी में भूलने वालें यादों की तरह रखकर भूला दिये जायेंगे।
           हास-परिहास तो छोड़िये जनाब, नगरीकरण के इस कठोर दलदल में कंकरीट के सड़कें, मकान और ईमारतें तो काबिज हो गए हैं। लेकिन इन्सानियत का बसाहट अभी कोसो दूर है। निर्जल सीमेंट के मरूथल में लोग रहते तो है। लेकिन सिर्फ अपनी जिंदगी के सुगमता और जीवन में भौतिकता के लोभी बनकर, अपनों से पराये होने लगे हैं। यहाँ पड़ोसी को इस बात की चिंता नहीं की मेरा पड़ोस कैसा है? क्या उनके घर में खैरियत है की नहीं? अपितु वह चिंता इस बात से है की उसके घर का उपस्कर मेरे घर से ज्यादा अच्छा, ऊँचा और महंगा तो नहीं है। लोगों में एक दूसरे को दिखाने के लिए हास्य विनोद की बातें तो जैसे बचकानी हरकतों से कम नहीं लगते हैं। बहरहाल, नगरीकरण के अप्रकृति सौंदर्य के दर्शन में आप सभी का स्वागत है क्योंकि नगरों की ओर तो हर परेशान व्यक्ति अपनी हल खोजने की तलाश में माइग्रेट हो जाता है। इसके पश्चात नगर का होकर, मानवता को ठूंठ बनाने में देर नहीं करता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़