(परिदृश्य)
परिवार एवं पारिवारिक पारिस्थितिकी तंत्र में कई पड़ाव और स्तर होते हैं। जैसे समाज में परिवार एक इकाई है। जिसमें परिवार के मुखिया, पत्नि और बच्चों की अवस्थिति सुनिश्चित है। वहीं रक्त संबंधितों को भी परिवार की संज्ञा दिया जाना आवश्यक है। क्योंकि वो भी परिवार का ही हिस्सा है। ना कि सामाजिक परिक्षेत्र के हैं। यानी इन्हें हम बोलचाल की भाषा में सगे संबंधियों की संज्ञा दे सकते हैं। समाज में प्रत्येक चर का होना जैसे अनिवार्य है ठीक वैसे ही संबंधों का होना पारिवारिक सौहार्द्र के लिए नितांत आवश्यक है।
परिवार को परिभाषित करते हुए जुकरमैन कहते हैं की,'एक परिवार समूह, पुरुष, स्वामी उसकी स्त्री और उनके बच्चों को मिलाकर बनता है और कभी-कभी एक या अधिक विवाहित पुरुषों को भी सम्मिलित किया जा सकता है।' इनकी परिभाषित शब्दों में पुरूष प्रधान समाज की प्रमुखता झलक रहा है।इसी संदर्भ को विस्तृत रूप में मैकाइवर और पेज कहते हैं की, 'परिवार वह समूह है जो कि लिंग संबंध के आधार पर किया गया काफी छोटा और स्थाई है कि बच्चों की उत्पत्ति और पालन-पोषण करने योग्य है।' यहां पर किसी व्यक्ति विशेष को मुखिया नहीं कहा गया। इस परिभाषा में जो सक्षम हो वह पारिवारिक समूह का नेतृत्व कर सकता या सकती हैं। सर्वश्री वील्स तथा हाॅइजर कहते हैं कि, 'परिवार को संक्षेप में एक सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके सदस्य रक्त के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।'
अब बात करें रिश्ते-नातों और संबंधों की जो परिवार के द्वितीयक स्तर में होते हैं। जिनकी अभिव्यक्ति हम संयुक्त परिवार की प्रासंगिकता के आधार पर भी कर सकते हैं। बहरहाल किसी ने संबंधों पर कटाक्ष करते हुए बड़ा खुब कहा कि, 'घाव तो वहीं देते हैं जिनसे लगाव हो।' पारिवारिक पारिस्थितिकी में एक दूसरे से लगाव, प्रेम, स्नेह तो होना स्वाभाविक है। लेकिन रिश्तों के बदलते प्रासंगिकता प्रारूपों के आधार पर व्यवहारिक संबंधों के बीच छल, कपट, आपसी वैमनस्य और नीचा दिखाने की प्रकृति का होना भी किसी आश्चर्य की बात नहीं है।
पारिवारिक पारिस्थितिकी में कुछ ऐसे पारिवारिक चर भी होते हैं। जिनका कार्य केवल दोषारोपण और अवक्षेपण करना होता है। वे किसी भी काम के पीछे के उद्देश्यों में भी मीनमेंख निकल ही देते हैं। कुछ पारिवारिक संबंध तो ऐसे भी होते हैं। जो सिर्फ इसलिए मिलते हैं तांकि एक दूसरे की कमजोरी भांप सकें और उसका दूषप्रचार सामाजिक तंत्र के विभिन्न स्तरों तक प्रसारण कर सकें। कहने के लिए तो संबंधों की डोर में अपनों की श्रेणी में रहते हैं। लेकिन परिवारिक संसर्जन से कहीं अधिक पारिवारिक खंडन और हनन की ओर रस्साकशी करने में कोई कोताही नहीं बरततें हैं।
संयुक्त परिवारों में बटवारें और घरों के बीच दीवार का खड़ा होना। मेरे तर्क को मजबूती अवश्य ही प्रदान करेगा। जहाँ भाई-भाई से अनबन कर बैठता है। जहाँ पिता -पुत्र के संबंधों में अपनेपन का ह्रास हो जाता है। जहां माता अपने संतान को नहीं भाती है। जहाँ लड़कर एक परिवार दो फाड़ में नजर आता है। वहीं ही परिवार का मुखिया मौन दृढ़राष्ट्र के भांति जिम्मेदारी के कलेवर को संभालने के लिए अपने नैतिक मूल्यों के विरूद्ध चुनौती पूर्ण फैसले करने पर मजबूर हो जाता है। संबंधों और पारिवार के जिम्मेदारियों के बीच मुखिया मानों रस्साकशी का केंद्र हो और रस्सी की फाँस गले में फसी हो। और जोर दोनो ओर से लगाया जा रहा है।
लेखक
पुखराज प्राज