Tuesday, March 29, 2022

दिहाड़ियों की नैय्या किसके सहारे पहुचें किनारे? / With whose help did the daily wagers reach the shore?


                       (अभिव्यक्ति)

'सिर से बहता पसीना, घुटने तक बह आते हैं। 
तब जाकर साहब, दो वक्त की रोटी खा पाते हैं।'
             एक दिहाड़ी मजबूर की परिभाषा इन पंक्तियों के अतिरिक्त क्या हो सकता है? कामगार वर्ग (या श्रमिक वर्ग) एक ऐसा शब्द है, जिसका उपयोग सामाजिक विज्ञानों और साधारण बातचीत में वैसे लोगों के वर्णन के लिए होता है। जो निम्न स्तरीय कार्यों जैसे दक्षता, शिक्षा और निम्न आय द्वारा मापदंड में लगे होते हैं। अक्सर इस अर्थ का विस्तार बेरोजगारी या औसत से नीचे आय वाले लोगों तक भी होता है। कामगार वर्ग मुख्यत: औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं और गैर-औद्योगीकृत अर्थव्यवस्थाओं वाले शहरी क्षेत्रों में पाये जाते हैं। इसे ऐसे समझते है की जो लोग, दैनिक काम ढूढ़ते हैं। उसके लिए एक निश्चित रोजी प्राप्त होता है। जिससे उसके जीवन-यापन चलता है। विश्वकोश वैसे तो दिहाड़ी मजदूरों की परिभाषा में ज्यादा कुछ नहीं कहती है। लेकिन यह भी साफ करती है कि ऐसे मजदूरों को सप्ताह के दो-तीन दिन ही काम मिलता है। इनके लिए घर के चूल्हे जलाना जैसे, प्यास लगने पर कुएं खोदने के समान कार्य करना प्रतीत होता है।
            दिहाड़ी मजदूर जिनकी सामाजिक संरचना एवं पारिवारिक पारिस्थितिकी के संदर्भ में अवश्य ही प्रकाश डालने का प्रयास करूँगा। परिवार का मुखिया जो परिवार का पालक है और परिवार का शासक भी, जिसके ऊपर परिवार के लालन-पालन से लेकर हर क्षेत्र में ध्यान रखना आवश्यक और नैतिक जिम्मेदारी है। मुखिया जिसे बच्चों की पढ़ाई से लेकर बच्चों के शादी तक सफर की चिंता रोज रात को करवटें बदलने के लिए मजबूर कर देता है। सुबह तक के खाने की व्यवस्था तो आज जैसे-तैसे हो गई। कल की चिंता आज के सुख को कम कर देता है। सुबह से शाम तक सिर्फ श्रम के बेचने और श्रम में अर्जित धन की चिंता लगा ही रहता है। चिंता इस बात की नहीं है कि खर्च कहाँ और कैसे होगा? बल्कि इतने पैसे में पहली प्राथमिकता किस वस्तु को दें, सोचकर मन छोटा होता है। परिवार का मुखिया जो सामाजिक तंत्र का सदस्य भी होता है। जो समाज के लिए भी आवश्यक है। लेकिन दिहाड़ी को यदि सप्ताह में सिर्फ तीन दिन ही रोजगार मिले तो घर संसार कैसे चले यह एक बड़ा प्रश्न है? यही प्रश्न उसे सामाजिक अलगाववादी विचारों की ओर ढ़केलता है। इसी अलगाव विचार या मानसिक के चलते या तो वह अपराध की ओर बढ़ता है या फिर आत्महत्या की सीढ़ी चढ़ जाता है। इसी संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं , 'जब जिंदा रहने की इच्छा खत्म हो जाती है और समाज से पूरा अलगाव हो जाता है तो आदमी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है।' वे कहते हैं , 'अलगाव मानसिक परिस्थितियों से पैदा होता है और यदि आप किसी के साथ इसे साझा नहीं कर पाते तो क्या करेंगे। आपको लगता है कि कुछ नहीं बचा है, कोई आपका नहीं है तो आपकी मदद कौन करेगा?'
              वह रोज टूटता, बिखरता और अपने आप को संभालता जाता है। संभालना तो तब तक है, जब तक हिम्मत और शरीर साथ दे। जहाँ शरीर ने शिथिलता और मनोस्थिति ने समाज से घृणा घर लिया। फिर व्यक्ति या तो रोज-रोज मरने की अपेक्षा एक बार मरना ज्यादा उचित समझता है। वही दूसरी स्थिति में वह समाज से प्रतिशोध की भावना लेकर, समाज के विरोधत्व की श्रेणी को ग्राही हो जाता है। जो अपने स्थिति और अपनी गरीबी के लिए समाज को दोषी मानता है। वह मनोरोग से भर उठता है। यह वहीं स्थिति है जब उसके लिए चोरी और अपराध को अंजाम देना भी पुनीत कार्य हो जाता है। क्योंकि इससे उसके परिवार की पारिस्थितिकी को मजबूतीकरण में सहायता मिलती है। बहरहाल, दिहाड़ियों में कुछ की कहानियाँ तो ऐसे भी हैं जो घर के पारिस्थितिकी को सुचारू रूप से चलाने के लिए शहरों में शरणार्थियों की भाँति जीवन यापन करने के लिए मजबूर है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़