Tuesday, March 29, 2022

जाना था स्कूल मगर, जीने की प्रयोगशाला बन गए पब्लिक प्लेस : प्राज/ Had to go to school, but the public place became the laboratory of living


                         (अभिव्यक्ति)

सार्वजनिक स्थलों पर अक्सर आपका भी सामना एक ऐसे भीड़ से हुआ होगा, जो दो-चार रूपये की मांग करते होंगे। चहरे पर करुणा और फटे मटैले कपड़े में धूल से सने बच्चे। जिन्हे देखकर हृदय पसीज ही जाता है। आप कभी करुणा से भरकर, दो चार रूपए दान भी कर देते होंगे। इसे भिक्षावृत्ति कहते हैं। बाम्बे भिक्षावृत्ति कानून-1945 के अनुसार, 'एक व्यक्ति जिसके जीवन-यापन का कोई साधन नही है और इधर-उधर घूमता रहता है या सार्वजनिक स्थानों पर पाया जाता है अथवा भीख मांगने के लिए अपना प्रदर्शन स्वीकार करता है।' वहीं मैसूर भिक्षावृत्त अधिनियम-1944 कहती है, 'भिक्षावृत्ति अर्थात् भीख मांगने के लिए दर-दर घूमना, घावों, शारीरिक पीड़ाओं अथवा दोषों का प्रदर्शन करना, अथवा भिक्षा प्राप्ति के लिए दया उत्पादन करने के लिये उनके झूठे बहाने बनाना सम्मिलित है।'
              भारत में जनगणना 2011 के अनुसार भिखारियों की कुल संख्या 4,13,670 जिनमें 2,21,673 पुरुष और 1,91,997 महिलाएँ है जो पिछली संख्या जनगणना 2001 से अधिक है। दरअसल, गरीबी, भुखमरी तथा आय की असमानताओं के चलते देश में एक वर्ग ऐसा भी है, जिसे भोजन, कपड़ा और आवास जैसी आधारभूत सुविधाएँ भी प्राप्त नहीं हो पातीं। यह वर्ग कई बार मजबूर होकर भीख मांगने का विकल्प अपना लेता है। भारत में आय की असमानता और भुखमरी की कहानी तो ग्लोबल लेवल की कुछ रिपोर्टों से ही जाहिर हो जाती है।दिसम्बर, 2017 में प्रकाशित वर्ल्ड इनइक्वैलिटी रिपोर्ट के अनुसार भारत के 10% लोगों के पास देश की आय का 56% हिस्सा है। वहीं इंटरनेशनल फूड पॉलिसी इनसिट्यूट नामक एक संगठन द्वारा 2017 में जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 119 देशों की सूची में भारत को 100वाँ स्थान मिला है। साथ ही भारत को भुखमरी के मामले में गंभीर स्थिति वाले देशों में रखा गया है। वहीं यही इंडेक्स में वर्ष 2021 के पून: भारतवर्ष 101वॉ स्थान पर बना हुआ है।
          वहीं एक आकड़ों के मुताबिक कुल भिखारियों की संख्या में एक तिहाई हिस्सा बाल भिक्षुओं की है। जिनमें छोटे शहरों में भुखमरी के चलते बच्चे भिक्षा को हीनता नहीं अपितु रोजगार के अवसर परक समझते हैं। वहीं बड़े शहरों में तो बकायदा बाल भिक्षुओं की भीड़ दिनोदिन बढ़ रही है। जिसके पीछे बड़े-बड़े गिरोह कार्य कर रहे हैं। जो छोटे शहरों, गावों, कसबों से बच्चों को अपहरण कर अपाहिज़ बनाकर, उन्हें नशे की लत की ओर ढ़केल देते हैं। नये रंगरूटों को पहले ट्रेनिंग जैसे कैसे चलना है? कैसे बोलना है? कितना रोना है-कितना सुनाना है? वेदना के स्वरों की पूनर्रावृत्ति से लेकर आँसूओं के प्रत्येक किस्तों तक की ट्रेनिंग दी जाती है। फिर उसके पश्चात ही बाजार में इनकोम उतारा जाता है। बहरहाल, इससे इतर कुछ ऐसे भी भिक्षू होते हैं। जो भूखमरी और पारिवारिक अस्थिरता के चलते भीख मांगने के लिए विवश रहते हैं। दोनो ओर से एक तरफ कुआ दूसरी ओर खाई की स्थितियों में रस्साकशी होती रहती है।
                 देश में भीख माफिया बहुत बड़ा उद्योग  है, जो गायब बच्चों के सहारे संचालित होता है। भिक्षावृत्ति को रोकने और भीख माफिया पर लगाम कसने के लिए एक केन्द्रीय कानून की आवश्यकता है। वहीं जो बच्चे अनाथ और असहाय है उन्हे पूनर्वास और शिक्षा के लिए प्रेरित करना एवं सहयोग देना आवश्यक है। वर्ना, जिन बच्चों को स्कूल की कक्षाओं में बैठकर भावी कल को संजोना चाहिए। वो पब्लिक प्लेस में अपने आज को जलाकर भावी कल के लिए कालिख भरे समाज की अवधारणा को स्पष्ट करने में देर नहीं लगाएंगे। क्योंकि जो बच्चा भीख और भूखमरी को झेलता है। वह सामाजिक तंत्र में कहीं ना कहीं एक पृथक विरोध के स्वरों को भरते हुए, अपराध की गलियों में दाखिला ले लेता है। जो समाज के लिए किसी भी स्थिति में श्रेयस्कर नहीं है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़