Tuesday, March 29, 2022

किसान, कृषि और वर्तमान पहचान / Farmers, agriculture and current identity


                        (अभिव्यक्ति)

'कुछ बढ़े और जवान हो गए। कुछ ऐसे भी निकले जो इंसान हो गए। खाई कसम जिसने भूख मिटाने की, वो शेर-ए-दिल किसान हो गए।' कृषि जो मनुष्य के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। प्रारंभिक काल के उत्थान के पश्चात्  लेन-देन की पारम्परिक प्रथा में विनिमय प्रणाली से लेकर वर्तमान अर्थव्यवस्था के तानेबाने तक कृषि का योगदान अद्वितीय रही है। यानी दुनियाँ का सबसे प्राचीन कार्य कृषि है। वहीं पेशेवरों की पहली पीढ़ी किसानों की रही, जो उन्नत से उन्नत होते चले गए। कृषि के प्राथम्यता से वर्तमान ई-कॉमर्स के तेजतर्रार व्यापार तक सबकी आधारशिला कृषि रही है। कृषक जो दुनियाँ के सबसे पहले और प्राचीन पेशेवर हैं।
            सामाजिक वैज्ञानिकों के नजरिये से भी तलाश करने का प्रयास करते हैं की किसान और उसके तबके को वो किस प्रकार देखते हैं। नोर्वेक के अनुसार,' कृषक समाज एक बड़े स्तरीकृत समाज का वह उप-समाज है, जो या तो पूर्ण औद्योगिक अथवा अंशतः औद्योगिकृत है।' वहीं रेमण्ड फर्थ कृषक को उत्पादनकर्ता बताते हुए कहते हैं कि, 'लघु उत्पादकों का वह समाज जो कि केवल अपने निर्वाह के लिये ही खेती करता है, कृषक समाज कहा जा सकता है।' वहीं राबर्ट रेडफील्ड के अनुसार,'वे ग्रामीण लोग जो जीवन निर्वाह के लिए अपनी भूमि पर नियंत्रण बनाये रखते है और उसे जोतते है तथा कृषि जिनके जीवन के परम्परागत तरीके का एक भाग है और जो कुलीन वर्ग या नगरीय लोगों की ओर देखते है और उनसे प्रभावित होते है, जिनके जीवन का ढंग उनसे कुछ सभ्य होता है, कृषक समाज कहलाता है।'
           बहरहाल समाजशास्त्र में कई परिभाषाएं हैं जो किसान के पर्याय को परिभाषित करती हैं। भारत संरचनात्मक दृष्टि से गांवों का देश है, और सभी ग्रामीण समुदायों में अधिक मात्रा में कृषि कार्य किया जाता है इसी लिए भारत को भारत कृषि प्रधान देश की संज्ञा भी मिली हुई है। लगभग 70% भारतीय लोग किसान हैं। वे भारत देश के रीढ़ की हड्डी के समान है। जहाँ खेती पर निर्भर हैं 10.07 करोड़ परिवार कृषि कार्य करते हैं। यानी यह एक बड़ा रोजगार क्षेत्रों भी है। जो भारतीय इकॉनमी ग्रोथ में भी बड़ा योगदान करती है। लेकिन दुख का विषय यह भी है कि, वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण की रिर्पोट के अनुसार देश के 17 राज्यों में किसानों परिवारों की औसत आय सालाना 20,000 रूपये है। जो देश के औसत आय के लगभग आधी है। वर्ष 2015-16 के स्टेट आॅफ इंडियन एग्रीकल्चर की रिपोर्ट यह बताती है कि एक तरफ जहाँ देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ रहा है वहीं दूसरी तरफ इसका फायदा किसानों को नहीं मिल रहा है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश में सीमांत आकार के जोतों की संख्या बढ़ रही है यानि खेत सिकुड़ रहे हैं और किसान खेती के सहारे घर नहीं चला पा रहे हैं। देश में 2001 में जोतों की संख्या 75.41 मिलियन थी जो वर्तमान में 92.83 मिलियन हो गयी है। नेशनल सर्वे रिर्पोट के अनुसार देश के 9 करोड़ किसान परिवारों में लगभग छः करोड़ किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम खेती के योग्य जमीन है। इस रिर्पोट के आधार पर परिवार की महीने की आमदनी मुश्किल से पाँच हजार से लेकर छः हजार रूपये होती है। इन सरकारी रिर्पोट और किसानों के हालात को समझेंगे तो पायेंगे किसानों की आमदनी वर्षों से ठहरी हुई है।
            किसानों की हालत आज भी निम्न ही बनी हुई है। कारण और विफलताओं के कई प्रकार हो सकते हैं। लेकिन कृषकों के भोले भाले स्वभाव के कारण, अक्सर वे छले गए हैं। कर्ज और भुखमरी की मार झेलता किसान फांसी के फंदे में झूल जाता है। फिर उसके बाद इसी सामाजिक तंत्र में उसके मौत पर मीनमेंख निकालने की परम्परा चल निकलती है। आंदोलन होते हैं, चर्चाएं होती, पिपलीलाईव जैसे तमाशे तो आम है जनाब। किसान जो सबको अन्न देता है। बड़े शर्म की बात है की वह ही भूख से मर जाता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़