(परिदृश्य)
आदिम से सभ्यता के स्तरों में कई परिवर्तन हुए। आदिम मानव ने जिसने अपने आप को समूह में रखना सीख लिया। जिसने समूह की बाध्यता, महत्व और प्रासंगिकता को आत्मसात कर लिया। विभिन्न कबीलों और समुह ये समुदाय की ओर बढ़ते कदमों में कुछ वर्ग बनने लगे। जिनमें आर्थिक, पारिस्थितिक और सांस्कृतिक अंतरों के आधार पर कई वर्ग बने। जैसे सामान्य, पिछड़ा, अनुसुचित, अनुसुचित जनजाति इत्यादि इसे सारगर्भित रूप से समझाने के लिए भारतीय संविधान जो 26 जनवरी 1950 से अंगीकृत है। संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार, 'राज्य लोगों के कमजोर वर्गों और विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को विशेष देखभाल के साथ बढ़ावा देगा और उन्हें सामाजिक अन्याय, शोषण और सभी से रक्षा करेगा।' हालांकि, ऐसी जनजातियां हैं जो अनुसूचित जनजाति (एसटी) नहीं हैं। आमतौर पर भारत की आबादी के कमजोर वर्ग हैं, जैसे कि अनुसूचित जाति के श्रेणी में आते हैं।
बात करें जनजाति/आदिवासी सामाजिक परिस्थितियों के संदर्भ में थियोडोर साहलिन्स लिखते हैं कि 'जनजातीय समाज' शब्द को 'विभाजनीय व्यवस्था' तक सीमित रखा जाना चाहिए। खंडीय प्रणालियों के संबंध छोटे पैमाने पर होते हैं। वे स्वायत्तता का आनंद लेते हैं, और किसी दिए गए क्षेत्र में एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। हम इसे झारखंड के संतक, उरांव और मुंडाओं के बारे में या राजस्थान के भीलों, भील मीणाओं और गरासियाओं के बारे में देख सकते हैं। जनजातियों के विपरीत, जातियाँ प्रकृति में 'जैविक' होती हैं, क्योंकि प्रत्येक जाति 'जजमानी' प्रणाली, सहभोजता और संजातीयता के संदर्भ में एक जैविक संपूर्ण का हिस्सा होती है।'
सामाजिक संरचना और संगठनात्मक विषयों पर डीजी मंडेलबौम (1972) कहते हैं की, 'आदिवासी जीवन में पूरे समाज की प्रमुख कड़ियाँ नातेदारी पर आधारित होती हैं।' नातेदारी केवल सामाजिक संगठन का सिद्धांत नहीं है, यह विरासत, श्रम विभाजन और शक्ति और विशेषाधिकारों के वितरण का भी एक सिद्धांत है। आदिवासी समाज आकार में छोटे होते हैं। उनके पास अपने सामाजिक संबंधों के अनुरूप अपनी खुद की नैतिकता, धर्म और दृष्टिकोण है। हालाँकि, कुछ जनजातियाँ जैसे संथाल, गोंड और भील काफी बड़े हैं।
इन समुदायों की एक संगठनात्मक संरचना होती है। वह संरचना या समाज जो नवीन प्रासंगिकताओं या नव विचारों का अपने में संकलन या अडब्शन करती है। यह क्रिया सामाजिक परिवर्तन है। डेविस सामाजिक परिवर्तन को बताते हुए कहते हैं कि, 'सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना एवं प्रकार्यों में परिवर्तन है।' अर्थात् सामाजिक संरचना के कार्यशैली में परिवर्तन की जो नव नीति प्रायोजित होती है। वह परिवर्तन कहलाती है।
मकीवर एवं पेज ने अपनी पुस्तक सोसायटी में सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए कहा है कि समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष संबंध सामाजिक संबंधों से है और उसमें आए हुए नव परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन की संज्ञा दे सकते हैं।
लेकिन किन कारकों से परिवर्तन संभव होता है। मनुष्य ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और एक बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत तरह की खोज की है। नवीन प्रावस्था की खोज, जैसे आदिवासी पहले जंगलों में निवास करते थे। अब वे शहरीकरण और नागरिकता के दावपेच समझने लगे हैं। सामाजिक परिवर्तन के लिए दूसरे कारक के रूप में अविष्कार एक प्रमुख संसाधन है। तृतीय कारक, सांस्कृतिक जगत के परिवर्तन में प्रसार का प्रमुख योगदान रहा है। पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, एवं भूमंडलीकरण जैसी प्रक्रियाओं का मुख्य आधार प्रसार ही रहा है। चौथे कारक के रूप में आन्तरिक विभेदीकरण के देखा जा सकता है। इन्हीं चार प्रतिमानों की प्रासंगिकता में आदिवासी सामाजिक संरचना में परिवर्तन प्रदर्शित होते हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़