(परिदृश्य)
भारतवर्ष विविधताओं से भरा राष्ट्र है। जहाँ हर 10 किलोमीटर में भाष्यात्मक विविधता और प्रत्येक 20 किलोमीटर में सांस्कृतिक पृथक्करण का बोध होता है। जहाँ कई भाषा, संस्कृति, जाति, धर्म और विचारधारा के लोग निवास करते हैं। अनेकता में एकता इस मातृभूमि की पहचान है। जहाँ प्रत्येक पर्व को सभी देशवासी बड़े ही हर्षोल्लास से मनाते हैं। इस विविधतापूर्ण राष्ट्र में होली का महा रंगोत्सव पूरे राष्ट्र में बड़े धुमधाम से मनाया जाता है। होली के रंगोत्सव को लोग सांस्कृति, धार्मिक महत्व के कारण हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। भारतवर्ष में होली के मनाने के प्राथम्य प्रासंगिकता के संदर्भ में अतीत के कई प्रमाण मिलते हैं। होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता है।
इस उत्सव के प्रारंभ से पूर्व ही प्रकृति भी रंगों के कलेवर में रंग जाती है। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है। इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों के उद्भव काल से ही इस पर्व का प्रचलन था। इसके कई उल्लेख और पूरालेख मिलते हैं। लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गाह्य-सूत्र। नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से 300 वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। सुप्रसिध्द मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगलकाल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहां के जमाने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिध्द है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे। मध्ययुगीन हिंदी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्तप्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के 16वीं शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। 16वीं शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएं नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक-दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदांत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएं गुलाल मल रही हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि होली हर भारतवासियों के लिए हर्षोल्लास का त्योहार है।
बहरहाल, होली नव एवं संवर्धित स्वरूप में डीजिटल होली भी प्रचलित होने लगा है। जहाँ मार्केटिंग के तानेबाने से लेकर, प्रमोशनल एड्वटाइज्मेंट तक होली की रौनक देखते ही बनती है। युवाओं में कुछ वाट्सऐप के स्टेट्स से लेकर सोशलमीडिया के हर प्लेटफार्म पर होली की धमक रहती है। हां यह पर्व विविधता में एकता का प्रतीक है। लेकिन कुछ असामाजिक तत्व इस विशाल और विस्तृत पर्व की छवि धूमिल करने का प्रयास करते हैं। समाज जो निरंतर परिवर्तनों को अद्यतन करती है। उसमें यह डोपिंग भी सुधारात्मक स्वरूप में है, आवश्यक केवल सकारात्मकता और बौधिक प्रवणता है।
लेखक
पुखराज प्राज