Tuesday, March 29, 2022

सामाजिक तंत्र में स्तरीकरण की प्रासंगिकता और आवश्यकता: प्राज / Relevance and need of stratification in social system


                                (परिदृश्य


प्राचीन काल से लेकर आज तक के मानव समाज के इतिहास में कोई ऐसा समय नहीं रहा जिसमें किसी भी एक समुदाय के सभी व्यक्तियों की सामाजिक,आर्थिक, सांस्कृतिक या राजनैतिक स्थिति समान रही हो।   आज के ग्रामीण समुदाय में भी विभिन्न व्यक्तियों के बीच अनेक आधारों पर ऊँच नीच का एक स्पष्ट विभाजन देखने को मिलता है जिसे हम सामाजिक स्तरीकरण की संज्ञा दे सकते हैं। सोरोकिन के अनुसार, अस्तरीकृत समाज जिसके सदस्यों में वास्तविक समानता हो,केवल एक कल्पना है जो मानव इतिहास में   कभी साकार नहीं हुई है। सामाजिक स्तरीकरण समाज के विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में विभिन्न सामाजिक स्तरों के मध्य संरचनात्मक असमानताओं की व्यवस्था है। सामाजिक स्तरों को सामाजिक अस्तीत्व, समाज के मूल्यों और नियमों के आधार पर ऊँची नीची श्रेणी में रखा जाता है।
            सभ्यता के उत्थान से लेकर सभ्यता के उत्कृष्ट बनने तक की सीढ़ी में सामाजिक स्तरीकरण की अवस्थिति रही है। इसे हम एक उदाहरण स्वरूप समझने का प्रयास करें तो, एक शिक्षक जो 100 विद्यार्थियों को समान शिक्षा देता है। लेकिन परीक्षा के परीणाम में विभिन्न स्तर जैसे प्रथम, द्वितीय, तृतीय, उत्तीर्ण, पूरक या अनुत्तीर्ण की स्थितियां प्राप्त होती है। कहने का तात्पर्य है कि जिस प्रकार शिक्षक सभी को समान शिक्षा देते हैं। जिसके परिणामस्वरूप विद्यार्थियों के समझ, विषय की रुचि, पठन-पाठन में ध्यानाकर्षण की स्थिति के कारण समझने की क्षमता कम या ज्यादा होती है। ठीक वैसे ही समस्त प्रकृति में मनुष्यों की भौतिक संरचना समान है। जिनमें मनुष्य ना तो, अधिक संरचनात्मक रूप लेता है और ना ही किसी विशेष क्षेत्र में अधिकता का प्रतिनिधित्व करता है। बल्कि वह रूचि के अनुसार अपने क्षेत्र का चयन करता है। उसी क्षेत्र में पारंगत भी होता है। मनुष्यों में यही भिन्नता का बोध, हम सामाजिक स्तरीकरण में विविधताओं के रूप में देख सकते हैं। सामाजिक तंत्र में यह स्तरीकरण होना आवश्यक भी है।
                   परंतू, जैसे की यह साफ किया गया है कि यह मनुष्यों के रूचि पर आधारित है। इसे परंपरागत रूढ़ीवादी विचारधारा में बदलना कभी भी उचित नहीं होगा। जैसे ग्रामीण परिवेश में हम सामाजिक स्तर को देखते हैं। जहां आर्थिक स्तर पर तीन वर्ग होते हैं। उच्च वर्ग, मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय ये तीन वर्ग ग्रामीण व्यवस्था में प्रदर्शित होते हैं। प्रत्येक वर्ग के लोगों में अपने वर्ग से परिवर्तन कर उन्नति को लक्ष्यित मानते हैं। वे निरंतर परिवर्तन के लिए प्रयास करते रहते हैं । इसका परिवर्तन भी एक समय के पश्चात देखा जा सकता है।
                 एक नियत समय के पश्चात् वर्गों की स्थिति में परिवर्तन होते रहता है। जैसे जो निम्न वर्ग है वह अपने स्तर में सुधार कर उच्च या मध्यम वर्ग में पहुँच जाते हैं। यहां पर एक सवाल यह भी उठता है कि यदि सामाजिक स्तरीकरण यदि ना हो, तो क्या होगा? इसका सीधा असर सामाजिक तंत्र की व्यवस्था को तहस-नहस करने वाली स्थिति को जन्म देगी। जैसे यदि सामाजिक स्तरीकरण न हो, मानकर चलें किसी कक्षा में सभी छात्र समान अंकों से उत्तीर्ण हो जाते हैं। तो सभी एक रोजगार के लिए पात्र होगें। वहीं यदि सभी अपने स्तर के सुधार के लिए उत्कर्ष औऱ संघर्ष का रास्ता लेंगें। यदि पूर्ति ना हो,तो यह भी संभव है की यह सामाजिक संरचनात्मक आधारभूत मॉडल को निष्क्रिय कर दें। जैसे मानकर चलिए सभी तृतीय और द्वितीय वर्ग के लिए कार्य करना चाहेंगे। जिससे चतुर्थ वर्ग में रिक्त या अव्यवस्था बढ़ेगी जो कहीं ना कहीं तंत्र को अस्थिर और जड़ता प्रदान कर देगी। भावी समय में लोगों में परिवर्तन और स्वालम्बन यदि रहे भी तब भी यह अस्तरण होना ही सामाजिक तंत्र की विफलता का बोध कहलायेगा। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़