(परिदृश्य)
सामाजिक संरचना को हम रेडक्लिफ ब्राउन के मतानुसार समझनें का प्रयास करेंगे। उनके अनुसार, 'जब कभी हम सामाजिक संरचना का उल्लेख करते हैं, तो सामाजिक सरंचना से हमारा अभिप्राय एक व्यवस्था से होता है। जिसमें उस व्यवस्था व सरंचना के विभिन्न तत्व एक-दूसरे से जुड़े होते है। तत्वों के इस समीकरण और व्यवस्थित पद्धति को ही सरंचना कहा जा सकता है। सामाजिक सरंचना के संदर्भ में व्यक्ति को उस संरचना की इकाई मानते हैं।' सार में कहें तो मनुष्य, उसकी सभ्यता का पैटर्न, संबंधों की व्यवहारिकता सामाजिक संरचना है।
सामाजिक संरचना में समरसता बेहद आवश्यक तत्व है। जहाँ मानव-मानव को समानता से देखे। जिस प्रकार मनुष्यों के बुद्धि लब्धि शक्तियों में भिन्नता होती है। ठीक उसी स्वरूप में सामाजिक स्तरीय संरचना में वर्गों में विभिन्नता का प्रादुर्भाव आर्थिक रूप में परिलक्षित होता है। जहां अधिक कुशल और कामगार लोगों में धनार्जन के लिए सरलता से संसाधन मिल जाते हैं। जो अपने साथ-साथ अपने नवीन पीढ़ी के जीवन को सरल और धनार्जन के संसाधन के लिए कामगार और प्रवीण बनाने के लिए ज्यादा मशक्कत और मेहनत की आवश्यकता नहीं होती है। एक समय पश्चात शनैः-शनै: ही सहीं लेकिन, उसी समूह के परिवारिक इकाई की सबलता धनार्जन और धन संचयन के फलन समाज में उसे उच्च वर्ग के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
वहीं कुछ लोगों की स्थिति ऐसी होती है। जो दिन और रात मेहनत करते हैं। लेकिन अर्थ की उपयोगिता और नियोजिन में घोंघा बसंत साबित होने वाले लोगों के लिए आर्थिक स्तर पर जीवन निर्वाह बेहद विकट हो जाता है। वे अपने स्तर से संघर्ष तो करते रहते हैं। लेकिन उस स्थिति से पार करने में अक्षम प्रतीत होने लगते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि अकुशल और असंगठित प्रयासों के कारण भी वह अर्थार्जन में विफल और सामाजिक स्तर पर उच्च वर्गीय श्रेणी के नीचे रहना पड़ता है।
बहरहाल, अार्थिक स्थितियों के आधार पर दो वर्ग सुनिश्चित हो गए। एक वह वर्ग जो आर्थिक स्तर पर उच्च है और दूसरा वह वर्ग जो आर्थिक स्तर पर कमजोर है। इन्हे उच्च वर्गीय और निम्न वर्गीय कहा जा सकता है। इसके साथ एक दोनो वर्गों के बीच एक वर्ग जो संघर्षरत् रहता है। अपनी स्थिति सुधारने में वह वर्ग है, मध्यमवर्ग। जहाँ एक ओर उच्च वर्ग अपने आप को सामाजिक संरचना में सर्वोच्च समझता है। और अपने स्तर को निरंतर बनाए रखने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सभी हथकंडे अपनाने के लिए पीछे नहीं हटता है। वहीं दूसरा वर्ग जो निम्न है। वह सामाजिक संरचना में अपने स्तर को निम्न और जीवन शैली से असंतोषजनक समझता है। मानसिक रूप से ये स्थितियां कहीं ना कहीं उनके मनोमस्तिष्क में अपने स्तर को लेकर शुन्य ही सहीं लेकिन खलल तो स्थापित रहती है। वहीं उच्च वर्ग की सर्वोच्चता की भावना से वह निम्न या मध्यम वर्ग को तिरस्कृत दृष्टि से देखता है। जिससे वर्गों में संघर्षों का उत्कर्ष होता है और संरचना में अस्थिरता व्याप्त होने लगती है।
सामाजिक संरचना रचना में जन्में इस असंतोषजनक व्यवाहर शैली या संघर्ष से समाज में अपराध बढ़ने लगते है। इस संघर्ष को परिभाषित करते हुए दुर्खीम कहते हैं, 'मनुष्य समाज की उपज हैं और जैसा समाज होगा वैसे मानव होंगे।' कहने का तात्पर्य है यदि मनुष्य अपने समाज में असंतोष में है तो पूरा समाज और संरचना असंतोषित होंगे। वहीं इन संघर्षों के उत्पति के संबंध में सदरलैण्ड कहते हैं, 'अपराधी जन्म से नही होते वरन् अपराधी बनाने का काम समाज करता है।'
वर्तमान में समाज में व्याप्त यह संघर्ष चरमोत्कर्ष पर है। जहाँ गरीब या निम्न वर्गीय व्यक्ति अपनी गरीबी का कारण उच्च और मध्यम् वर्ग के भ्रष्टाचार के कारण पनपने का कारक मानते हैं। वहीं इसी के फल स्वरूप एक से दूसरे स्तर पर छींटाकशी निरंतर करते रहते हैं। संघर्ष की दरारें अब इतने बड़ गए हैं की विरोध के लिए अपराधिकतत्वों के संगठन भी समाज में प्रदर्शित होने लगे हैं। यह अपरिभाषित संघर्ष या युद्ध किसी ना किसी रूप में समाज के हर स्तर पर जारी है। समरसता के लिए प्रतिक्षा की घड़ी अभी बहुत लम्बी है, वक्त को भी उस घड़ी की बेसब्री से तलाश है।
लेखक
पुखराज प्राज