Tuesday, March 29, 2022

समरसता के ध्येय में बढ़ते सामाजिक संघर्ष की प्रासंगिकता : प्राज/


                            (परिदृश्य
                


समाज लोगों से बनता है, वे लोग जो विभिन्न स्तरों एवं क्षेत्रों से आते हैं। आज हम कल्पना करेंगे, कार्ल मार्क्स के सामाजिक संघर्ष के विचारों की वर्तमान समय में क्या यह आज भी समाज में प्रासंगिक है या अप्रासंगिक हैं। कार्ल मार्क्स को सामाजिक संघर्ष सिद्धांत का जनक माना जाता है। सर्वप्रथम तो हमें यह समझना आवश्यक है की समाज में संघर्ष क्या है? या सामाजिक संघर्ष की वास्तविक व्याख्या क्या हो सकती हैं? 
           संघर्ष या द्वन्द्व से तात्पर्य दो या अधिक समूहों के बीच मतभेद, प्रतिरोध, विरोध आदि से है। एक ही समूह के अन्दर भी द्वन्द्व हो सकता है। इस स्थिति में अन्तःसमूह द्वन्द्व कहते हैं। ठीक उसी प्रकार सामाजिक संघर्ष में समाज में निहित लोगों के बीच मत एवं टकराव को सामाजिक संघर्ष की संज्ञा दे सकते हैं। 
                जो तर्क देता है कि समाज के भीतर व्यक्ति और समूह ( सामाजिक वर्ग ) आम सहमति के बजाय संघर्ष के आधार पर बातचीत करते हैं । विभिन्न प्रकार के संघर्षों के माध्यम से, समूह अलग-अलग मात्रा में भौतिक और गैर-भौतिक संसाधनों (जैसे अमीर बनाम गरीब) प्राप्त करने के लिए प्रवृत्त होंगे। अधिक शक्तिशाली समूह सत्ता को बनाए रखने और कम शक्ति वाले समूहों का शोषण करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करेंगे।
                   संघर्ष सिद्धांतकार संघर्ष को परिवर्तन के एक इंजन के रूप में देखते हैं, क्योंकि संघर्ष विरोधाभास पैदा करता है जिसे कभी-कभी हल किया जाता है, एक चल रही द्वंद्वात्मकता में नए संघर्ष और विरोधाभास पैदा करता है । ऐतिहासिक भौतिकवाद के उत्कृष्ट उदाहरण में,कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तर्क दिया कि सभी मानव इतिहास वर्गों के बीच संघर्ष का परिणाम है, जो समय के साथ समाज की भौतिक जरूरतों को पूरा करने के साधनों में परिवर्तन के अनुसार विकसित हुआ, अर्थात समाज के तरीके में परिवर्तन होना प्रदर्शित होता है।
                   कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के अनुसार, 'अब तक विद्यमान समस्त समाज का इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है। फ्रीमैन और दास, पेट्रीशियन और प्लेबीयन, लॉर्ड और सर्फ़, गिल्ड-मास्टर और ट्रैवलमैन। एक शब्द में, उत्पीड़क और उत्पीड़ित, एक दूसरे के लगातार विरोध में खड़े थे। एक निर्बाध, अब छिपी हुई, अब खुली लड़ाई, एक लड़ाई है कि प्रत्येक समय समाप्त हो गया। या तो बड़े पैमाने पर समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन में या विरोधी वर्गों के सामान्य विनाश में प्रतीत होता है।
             कार्ल मार्क्स के सामाजिक संघर्ष का सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है। समाज में किसी ना किसी रूप में लोगों में असंतोष है। कभी स्तर, कभी जातिगत, कभी आर्थिक, कभी राजनीतिक या क्षेत्रीय विभिन्न वर्गों में उच्च से निम्न के बीच छिड़ी यह जंग अपरिभाषित है लेकिन जंग निरंतर और निर्बाध रूप से चल रही है। जहाँ निम्न-उच्च वर्ग और उच्च वर्ग अपनी वर्चस्व के लिए लड़ते आ रहे हैं। यह सामाजिक संघर्ष केवल अपडेट हुआ है। सामाजिक संरचना से गया नहीं है। 

लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़