(परिदृश्य)
किसी तर्क या विचार पर विश्वास करना या होना एक सकारात्मक दृष्टिकोण है। हम किसी मत को स्वीकार करते हैं और उस मतानुसार जो लोग मत की ओर अग्रसर होते हैं। उनसे मेलजोल और संबंध भी प्रगाढ़ होते हैं। जैसे विचारधारा को ही ले लीजिए यदि किसी व्यक्ति विशेष पर हम विश्वास रखते हैं। उसके प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित करते हैं। लेकिन जब विश्वास की पराकाष्ठा को पर कर विश्वास की प्रगाढ़ से कहीं आगे, जो सोचने, विचार करने और तर्किक होने से अवरुद्ध कर देता है, वह अंधविश्वास है।
मार्क्सवादी दृष्टिकोण में अंधविश्वास वह विचार पद्धति है जिसे आमतौर पर धर्मशास्त्रीय तथा बुर्जुआ साहित्य में सच्ची आस्था के मुकाबले रखा जाता है। जो आदिम जादू से जुड़ा होता है। किसी भी धर्म के अनुयायी के दृष्टिकोण से अन्य धर्मों के सिद्धांत तथा अनुष्ठान अंधविश्वास की श्रेणी में आते हैं। मार्क्सवादी निरीश्वरवाद धार्मिक आस्था तथा किसी भी तरह के अंधविश्वास को पूर्णतः अस्वीकार करता है।
कहने का तात्पर्य है अंधविश्वास में व्यक्ति किसी घटना या कार्य पर प्रश्न चिन्ह खड़े नहीं करता है। उदाहरणतः समझने का प्रयास करें तो, जैसे ग्रामीण अंचलों में युवक-युवतियों में प्रेम प्रसंग को वशीकरण एवं मायाजाल से सम्मोहित किया जाना माना जाता है। लोग इससे बचाने के लिए तंत्र-मंत्र झाड़-फूँक और ओझा के सहारे से इस निवारण करने के उपाय ढूँढने लग जाते हैं। जबकि वास्तव में, यह आकर्षण है जो योवनास्था में प्रारंभ के दौर में दो विपरीत लिंगीय लोगों के बीच में होता है। जो शनैः-शनैः प्रेम का रूप धारण कर लेती है।
ठीक ऐसे ही उदाहरणों में एक उदाहरण है, महिला का टोन्ही या डायन होने के मिथ्याचारी विचारधारा, जैसे ओझा के द्वारा तंत्र-मंत्र या झाड़-फूँक की प्रक्रिया की जाती है।जो सकारात्मक ऊर्जा के रूप में अंधविश्वासी लोगों की कल्पना होती है। ठीक वैसे ही काली शक्ति या नकारात्मक ऊर्जा से जादू-टोना सीखने वाली तर्क देकर, महिला को डायन, टोन्ही की संज्ञा देकर प्रताड़ित किया जाता है। जबकि यह वास्तविक नहीं है। इसी तरह से कई अँधविश्वास हमारे समाज में कहीं ना कहीं, किसी ना किसी रूप में आज भी विद्यमान है। ऐसे भी नहीं है की केवल ग्रामीण समाज ही अंधविश्वास के गिरफ्त में है। अपितु, नगरीय स्तर पर भी इन अंधविश्वासों को मानने वालों की कमी नहीं है।
आदिम मनुष्य अनेक क्रियाओं और घटनाओं के कारणों को नहीं जान पाता था। वह अज्ञानवश समझता था कि इनके पीछे कोई अदृश्य शक्ति है। वर्षा, बिजली, रोग, भूकंप, वृक्षपात, विपत्ति आदि अज्ञात तथा अज्ञेय देव, भूत, प्रेत और पिशाचों के प्रकोप के परिणाम माने जाते थे। ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर भी ऐसे विचार विलीन नहीं हुए, प्रत्युत ये अंधविश्वास माने जाने लगे। आदिकाल में मनुष्य का क्रिया क्षेत्र संकुचित था इसलिए अंधविश्वासों की संख्या भी अल्प थी। ज्यों ज्यों मनुष्य की क्रियाओं का विस्तार हुआ त्यों-त्यों अंधविश्वासों का जाल भी फैलता गया और इनके अनेक भेद-प्रभेद हो गए। अंधविश्वास सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं। विज्ञान के प्रकाश में भी ये छिपे रहते हैं। अभी तक इनका सर्वथा उच्द्वेद नहीं हुआ है। वर्तमान में लोगों की धारणाओं में परिवर्तन होना आवश्यक है। किसी भी विचार की मानकता और वैज्ञानिक प्रमाणन होना आवश्यक है। यदि यह नहीं हुआ तो, समाज वर्ग के उत्थान में यह भी एक बड़ी समस्या है।
लेखक
पुखराज प्राज