(परिदृश्य)
सर्वप्रथम तो पूर्वाग्रह के शब्द का आकलन आवश्यक है। वर्ना मेरे पाठक मुझे अवश्य ही कहेंगे की मतलब का मर्तबान तो खोला ही नहीं और लगे स्वाद की चाशनी बघारने में, पूर्वाग्रह यानी किसी विषय, वस्तु के लिए वह धारणा है। जो उसके नाम सुनते ही सर्वप्रथम मन:पटल पर छवी दिखलाई पड़ती है। जैसे आप ने किसी व्यक्ति विशेष के बारे में सुना या देखा की उसने लम्बी दाड़ी रखी है। आँखें बड़ी-बड़ी है, तो निश्चय ही आप उसके व्यवहारिक पृष्ठभूमि में सोचेंगे की वह हिंसक और उद्दंड प्रधान शैली का होगा। यह उस व्यक्ति विशेष के बारे में सुनने या देखने से उसके व्यवाहर के आकलन के पूर्व धारणा का निर्माण करना ही पूर्वाग्रह है।
एक ओर विश्वकोश भी कहती है कि, पूर्वाग्रह का अर्थ 'पूर्व-निर्णय' है, अर्थात् किसी मामले के तथ्यों की जाँच किये बिना ही राय बना लेना या मन में निर्णय ले लेना। इस शब्द का उस स्थिति में प्रयोग किया जाता है जब किसी व्यक्ति या लोगों के किसी समूह के विरुद्ध निर्णय दिया गया हो और वह व्यक्ति या लोग किसी विशेष लिंग, राजनैतिक विचार, वर्ग, उम्र, धर्म, जाति, भाषा, राष्ट्रीयता के हों। वहीं ब्रिटेनिका के अनुसार, किसी समूह या उसके व्यक्तिगत सदस्यों के प्रति पूर्वाग्रह , प्रतिकूल या शत्रुतापूर्ण रवैया , आमतौर पर बिना किसी आधार या पर्याप्त सबूत के। यह तर्कहीन, रूढ़ीवादी मान्यताओं की विशेषता है। सामाजिक विज्ञान में, इस शब्द का प्रयोग अक्सर जातीय समूहों ( नस्लवाद भी देखें ) के संदर्भ में किया जाता है, लेकिन किसी भी व्यक्ति या समूह के प्रति पूर्वाग्रह उन कारकों के आधार पर मौजूद हो सकता है जिनका जातीयता से कोई लेना-देना नहीं है , जैसे कि वजन , विकलांगता, यौन अभिविन्यास , या धार्मिक संबद्धता।
अब आप कहेंगे की प्रथम दृश्या में किसी के लिए सुरक्षात्मक रूप में ऐसी कल्पना बनानें में क्या नुक्सान है। और सामाजिक तंत्र में इसकी उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करने वालों की कमी नहीं है। बहरहाल, पूर्वाग्रह से ग्रसित मनुष्य कहीं ना कहीं सामाजिक पारिस्थितिकी में खलल उत्पन्न करता है। न्यून स्वरूप में समझने के लिए पारिवारिक कलह के लिए शक भी एक प्रकार की पूर्वाग्रह है।
पूर्वाग्रह, जो सामाजिक तंत्र में हिंसा के लिए भी कारक होते हैं। जैसे विशेष वर्ग के लिए पूर्वाग्रह की अवधारणा से लोगों में पूरे समुदाय के लिए एक समान विचार होना सुनिश्चित होता है। जबकी विविधता तो प्रत्येक मनोमष्तिष्क में होती है। कुछ पूर्वाग्रह ऐसे भी होते हैं। जो व्यक्ति को रूढ़ीवाद का गुलाम बनने पर मजबूर कर देते हैं। जैसे 'चोर का बेटा चोर' शब्दावली में पिता और पुत्र दोनों को एक ही नजरिये से तौला जाता है। संभव है की वह पुत्र आगे चलकर, अन्यत्र सेवा में लगे और सामाजिक तंत्र के सौन्दर्यीकरण में सहायक हो। जबकि इसी पूर्वाग्रह के बार-बार पूनर्रावृत्ति से तंग आकर वह पुत्र भी उसी ओर बढ़ चलता है। ठीक वैसे ही समूह विशेष के लिए पूर्वाग्रह की अवधारणा सामाजिक तंत्र में संघर्ष और वैमनष्यता के भावों का अंकुरण कर देता है। जिससे टकराव के भविष्य में विशालकाय वृक्ष का निर्माण होना ही परीणिति है।
लेखक
पुखराज प्राज