(अभिव्यक्ति)
छत्तीसगढ़ की राजनीति में आरक्षण एक बड़ा मुद्दा बन गया था। जहां एक ओर आरक्षण की रस्साकशी के साथ आरोप-प्रत्यारोप के दौर बढ़ चला था। वहीं दूसरी ओर भर्ती एवं पदोन्नति जैसे आवश्यक कार्यों में बिना आरक्षण रोस्टर के पूर्णतः प्रतिबंध लग गया था। बात करें भारत में आरक्षण की व्यवस्था आजादी से पहले भी मौजूद थी। स्वतंत्रता के बाद आरक्षण की व्यवस्था संविधान सभा द्वारा तैयार की गई थी जिसकी अध्यक्षता डॉ बीआर अंबेडकर ने की थी । प्रारंभ में, इसे 10 वर्षों की अवधि के लिए पेश किया गया था।10 साल की अवधि के बाद, भारत के विधायकों ने समाज के कुछ वर्गों के कई वर्षों के सामाजिक और सांस्कृतिक भेदभाव को दूर करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था को जारी रखने की आवश्यकता महसूस की।
भारतीय संविधान में स्वतंत्रता के तुरंत बाद, पिछड़े समूहों से संबंधित लोगों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को पहचानने और उन प्रावधानों को लागू करने के लिए आरक्षण लागू किए गए, जिनके द्वारा संसाधनों और अवसरों तक उनकी बेहतर पहुंच होगी। भारत में पिछड़े वर्गों के खिलाफ अतीत और ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने के लिए यह सुनिश्चित करने के लिए कि राज्य और केंद्र के तहत सेवाओं में सभी जातियों के लोगों से समान प्रतिनिधित्व देखा जा सकता है। सभी को उनकी जाति के बावजूद एक समान मंच प्रदान करना। पिछड़े वर्गों को बढ़ावा देना और आगे बढ़ाना मिले। जिसके आधार पर वर्तमान में 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा निर्धारित की गई है, लेकिन राज्यों में विभिन्न आरक्षण की समीमाएं भी प्रासंगिक हैं।
भारतीय कानून में आरक्षण प्रणाली सकारात्मक कार्रवाई का एक रूप है जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों (पीएसयू), संघ और राज्य सिविल सेवाओं, संघ और राज्य सरकार के विभागों में सेवाओं और सभी सार्वजनिक और निजी में कुछ प्रतिशत सीटें या कोटा आरक्षित हैं। शैक्षिक संस्थान, धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को छोड़कर। अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) या सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों, जिनका पहले इन सेवाओं और संस्थानों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व था, को अब आरक्षण सुविधा प्रदान की जाती है। भारत की संसद में प्रतिनिधित्व के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण नीति भी लागू की गई है। आरक्षण का मुद्दा समाज के आरक्षित और गैर-आरक्षित वर्गों के बीच असहमति का कारण बना हुआ है। जबकि अनारक्षित खंड प्रावधान का विरोध करते रहते हैं, आरक्षित क्षेत्रों के भीतर के सबसे जरूरतमंद वर्गों को शायद ही इस बात की जानकारी होती है कि प्रावधान से कैसे लाभ उठाया जाए या ऐसे प्रावधान हैं या नहीं।
भारत में आरक्षण प्रणाली भारत में सकारात्मक कार्रवाई की एक प्रणाली है जो शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक क्षेत्रों में ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों को प्रतिनिधित्व प्रदान करती है। भारतीय संविधान में प्रदान किए गए प्रावधानों के आधार पर, यह भारत सरकार को "सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े नागरिकों" के लिए आरक्षित कोटा या सीटें निर्धारित करने की अनुमति देता है, जो परीक्षा, नौकरी के उद्घाटन आदि में आवश्यक योग्यता को कम करता है। आरक्षण मुख्य रूप से सभी तीन समूहों को दिया जाता है: अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग, जिन्हें क्रमशः अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग भी कहा जाता है। पहले आरक्षण केवल एससी और एसटी को दिया जाता था लेकिन बाद में मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के बाद 1992 में ओबीसी के लिए बढ़ा दिया गया था।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ की राजनीति में वर्ष 2022 के अंतिम माह में छत्तीसगढ़ विधानसभा ने राज्य में आरक्षण को 76% तक बढ़ाने के लिए एक विधेयक पारित किया। विपक्षी भाजपा ने भी विधेयक का समर्थन किया। झारखंड और कर्नाटक की तरह, राज्य सरकार ने सिफारिश की कि कानूनी जांच से बचने के लिए केंद्र सरकार को इसे संविधान की नौवीं अनुसूची में डालना चाहिए। नए विधेयक में, राज्य की कांग्रेस सरकार ने एसटी के लिए 32 फीसदी, एससी के लिए 13 फीसदी, ओबीसी के लिए 27फीसदी और ईडब्ल्यूएस वर्ग के लिए 4 फीसदी आरक्षण का प्रस्ताव किया गया था। जोकि राज्यपाल के हस्ताक्षर के बिना अटक गया।
वहीं एसी, एसटी और ओबीसी के लिए पदोन्नति और नियुक्तियों में 58 फीसदी तक आरक्षण देने की अपनी नीति को रद्द करने के राज्य उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली छत्तीसगढ़ सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अंतरिम राहत दी। छत्तीसगढ़ सरकार की 76 फीसदी आरक्षण बिल विषयक, राज्य सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया है और अब इस मामले की सुनवाई जुलाई में करेगा। 1 मई 2023 की राहत के साथ, छत्तीसगढ़ अंतरिम व्यवस्था के रूप में 58 फीसदी आरक्षण के साथ चल रही भर्ती के साथ आगे बढ़ सकता है। राज्य के वकीलों ने तर्क दिया कि आरक्षण नीति को अलग करते हुए उच्च न्यायालय के 2022 के फैसले ने चल रही प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया और नियुक्तियों को बाधित किया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्य को वर्तमान प्रवेश और भर्ती प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की अनुमति दी। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच छत्तीसगढ़ लोक सेवा (अनुसुचित जातियां, जनजातियां और अन्य पिछड़ा वर्गोन) को रद्द करने के छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा दायर अंतरिम राहत की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। एक अधिनियम के माध्यम से, छत्तीसगढ़ सरकार ने 2012 में सार्वजनिक सेवाओं में अनुसूचित जनजातियों को 32 प्रतिशत , अनुसूचित जातियों को 12 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्गों को 14 प्रतिशत तक आरक्षण प्रदान किया। बढ़े हुए कोटा के बाद, राज्य में कुल आरक्षण 58 फीसदी हो गया।
हालाँकि, कई याचिकाओं के बाद, अधिनियम को छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने 19 सितंबर, 2022 को इस आधार पर रद्द कर दिया था कि यह नीति इंद्रा साहनी के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50 फीसदी की अधिकतम सीमा के साथ असंगत थी। राज्य की दलीलें सुनने के बाद, शीर्ष अदालत ने राज्य को 58 फीसदी आरक्षण के आधार पर भर्ती और पदोन्नति प्रक्रियाओं को फिर से शुरू करने की अनुमति देकर अंतरिम राहत दी। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया है कि इस तरह का आरक्षण लंबित विशेष अनुमति याचिका के परिणाम के अधीन होगा। अब इस मामले की सुनवाई जुलाई में होनी है।
आरक्षण पर चल रहे घमासान के बीच सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले जहां युवा वर्गों को प्रतियोगिता परीक्षा, रोज़गार भर्ती एवं विभिन्न सेवाओं में सेवारत् कार्मिकों को पदोन्नति के राह में आए बादल छटते नज़र आ रहे हैं। वहीं यह फैसला बेरोजगारी की मार झेल रहे अध्ययनशील प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयार कर रहे युवाओं के लिए सुकून देने वाली राहत के रूप में देखा जा सकता है। जाहिर है कि चुनावी वर्ष के साथ-साथ विभिन्न विभागों की अटकी हुई भर्तियों के जल्द से जल्द पूरा किया जायेगा।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़