(अभिव्यक्ति)
मनुष्य का जीवन विभिन्न पड़ाव से गुजरता है। कभी वो हर्ष,उत्साह कभी शांत निर्वेद तो कभी करुण या श्रृंगार की अवस्था में रहता है। मन के धरातलीय सतह पर अनुभव का अनुराग उत्पन्न होता है,तो संगीत की सुमधुर तान में नैसर्गिक जीवन के पड़ावों के आनंद ढूढ़ता है। जैसे नदी के कल-कल धार को चीरती नाँव और चप्पू चलाता मल्लाह जब अपने गीत में नदी का सौंदर्य चित्रण करता है; तो सर्रसराती हवा भी अमृत वर्षा की भाँती अलग स्तर के आनंद का संगम करता है। इसी कारण संगीत को परिभाषा के अलंकरण में संगीत रत्नाकर गढ़ते हुए कहते हैं कि, ‘गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते’। अर्थात् संगीत एक अन्विति है, जिसमें गीत, वाद्य तथा नृत्य तीनों का समावेश यानी संगम है। संगीत शब्द में व्यक्तिगत तथा समूहगत दोनों विधियों की अभिव्यंजना स्पष्ट करती है। इसी प्रासंगिकता के कारण व्यक्तिगत गीत, वादन तथा नर्तन के साथ समूहगान, समूहवादन तथा समूहनर्तन का समावेश इसके अन्तर्गत होता है।
भारत में, संगीत की उत्पत्ति, वास्तव में स्वयं ध्वनि का पता ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लगाया जाता है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, पहली ध्वनि नादब्रह्म (ध्वनि के रूप में ब्रह्मा) है, जो पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। यह ब्रह्माण्ड की सबसे शुद्ध ध्वनि है और ऐसा माना जाता है कि यह बिना आघात के होती है। एक अन्य मिथक ध्वनि और नृत्य की उत्पत्ति को शिव और ओंकार के तांडव से जोड़ता है। ऐसा कहा जाता है कि ऋषि नारद ने तब संगीत की कला को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा था। नृत्य की तरह, भारत में संगीत की उत्पत्ति भक्ति गीतों में थी और धार्मिक और कर्मकांडों के उद्देश्यों तक ही सीमित थी और मुख्य रूप से मंदिरों में ही इसका उपयोग किया जाता था। यह तब लोक संगीत और भारत के अन्य संगीत रूपों के सहयोग से विकसित हुआ और धीरे-धीरे अपनी संगीत विशेषताओं को प्राप्त किया है।
भारत में संगीत के इतिहास का पता वैदिक काल से लगाया जा सकता है। नादब्रह्म की अवधारणा वैदिक युगों में प्रचलित थी। सभी संगठित संगीत की उत्पत्ति सामवेद से मानी जाती है जिसमें संगठित संगीत का सबसे पुराना ज्ञात रूप शामिल है। प्राचीनतम रागों की उत्पत्ति सामवेद से हुई है। उत्तर वैदिक काल के दौरान, संगीत समगण नामक रूप में प्रचलित था, जो विशुद्ध रूप से संगीत पैटर्न में छंदों का जप था। उसके बाद संगीत ने अपना पाठ्यक्रम थोड़ा बदल दिया। महाकाव्यों को जातिगान नामक संगीतमय स्वर में सुनाया गया था। दूसरी से सातवीं शताब्दी ईस्वी के बीच, संस्कृत में लिखा गया प्रबंध संगीत नामक संगीत का एक रूप बहुत लोकप्रिय हुआ। इस रूप ने ध्रुवपद नामक एक सरल रूप को जन्म दिया, जिसने हिंदी को माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया गया। संगीत का पहला संदर्भ पाणिनि ने 500 ईसा पूर्व में दिया था और संगीत सिद्धांत का पहला संदर्भ 400 ईसा पूर्व में ऋक्प्रतिसख्य में मिलता है। भरत के नाट्यशास्त्र चौथी शताब्दी ईस्वी में संगीत पर कई अध्याय शामिल हैं, जो संभवतः संगीत पर पहला स्पष्ट लिखित कार्य था। जिसने संगीत को सप्तक और बाईस चाबियों में विभाजित किया है। संगीत पर अगला महत्वपूर्ण कार्य दाथिलन है जिसमें प्रति सप्तक में बाईस श्रुतियों के अस्तित्व का भी उल्लेख है। प्राचीन मान्यता के अनुसार मनुष्य केवल इन बाईस श्रुतियों का ही निर्माण कर सकता है। इस अवधि के दौरान लिखे गए दो अन्य महत्वपूर्ण कार्य थे, 9वीं शताब्दी ईस्वी में मतंग द्वारा लिखित बृहदेसी, जो राग और संगीता मकरंद को परिभाषित करने का प्रयास करता है; नारद द्वारा 11वीं शताब्दी ईस्वी में लिखित, जिसमें 93 रागों की गणना की गई है और उन्हें पुल्लिंग और स्त्री जाति में वर्गीकृत किया गया है।
मध्यकाल में मुस्लिम प्रभाव के प्रभाव से भारतीय संगीत की प्रकृति में परिवर्तन आया। इस समय, भारतीय संगीत ने धीरे-धीरे हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत के दो अलग-अलग रूपों में शाखाओं में बँटना शुरू कर दिया। संगीत की इन दोनों परंपराओं में 14वीं शताब्दी ईस्वी के आसपास ही विचलन शुरू हो गया था। फारसी प्रभाव ने भारतीय संगीत की उत्तरी शैली में काफी बदलाव लाया। पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में, भक्तिपूर्ण ध्रुवपद गायन के ध्रुपद या शास्त्रीय रूप में परिवर्तित हो गया। ख्याल अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में गायन के एक नए रूप के रूप में विकसित हुआ। कर्नाटक शास्त्रीय या कृति मुख्य रूप से साहित्य या गीत उन्मुख पर आधारित है, जबकि हिंदुस्तानी संगीत संगीत संरचना पर जोर देता है। हिंदुस्तानी संगीत ने शुद्ध स्वर सप्तक या प्राकृतिक स्वरों के सप्तक के पैमाने को अपनाया जबकि कर्नाटक संगीत ने पारंपरिक सप्तक की शैली को बरकरार रखा। हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत दोनों महान आत्मसात करने वाली शक्ति व्यक्त करते हैं, लोक धुनों और क्षेत्रीय विशेषताओं को अवशोषित करने के साथ-साथ इनमें से कई धुनों को रागों की स्थिति तक बढ़ाते हैं। इस प्रकार संगीत की इन दोनों प्रणालियों ने परस्पर एक दूसरे को प्रभावित किया है।
वर्तमान परिदृश्य में संगीत का व्यावसायिकरण का होना, एक ओर जहां संगीत को साधना से कहीं ज्यादा बाजारूपन की कठपुतली बनाकर खड़ी कर दी गई है। वहीं दूसरी ओर गुरु-शिष्य की परम्परा का लगभग विलोपन की अवस्था गीतों में अशिष्टता की डोपिंग लिए संकर संगीत को जन्म दे रहे हैं। संगीत के प्रति श्रद्धा से अधिक अर्थ की कल्पना है। जिसके कारण संगीत का स्तर बिगड़ रहा है। वर्तमान परिदृश्य में शास्त्रीय संगीत के किसी कार्यक्रम में लोगों की भीड़ ऊँघते हुए जरूर देखते मिल जायेगा। क्योंकि ना लोगों में अब वो समझ बची है और ना ही संगीत के प्रगाढ़ता के प्रति लगाव, वे तो ऐसे कार्यक्रमों में इसलिए बंदी बनने को मजबूर होते हैं। क्योकि या तो आयोजकों से व्यवहारिक या व्यावसायिक संबंध होते हैं। बहरहाल, इस बीच पश्चिमी संगीत का डोपिंग भी गीत के सृजन में होने वाले भाषात्मक प्रहार का नतीजा है की अंत्यानुप्रास के मेल के लिए किसी भी शब्द को जैसे पाए वैसे तोड़ मरोड़ कर जनता को परोश दिया जा रहा है। और जनता भी इन अश्लीलता शब्दों की परिधि में मर्कटनृत्य करने को आमादा है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़