(आक्रोश)
भीड़ जिसकी न शक्ल, न शरीर, न नियंत्रण.... इतना जरूर है कि अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है; और जिसे उकसाया, बहकाया, बरगलाया और समझाया जा सकता है। ये भीड़ निर्माण पर आ जाये तो सैकड़ो ताज खड़ा करदे, विध्वंशक रुप धर से पुरा-इमारत कहानी बन जाए और जाति,धर्म और क्षेत्रीय समीकरण में नीचता यदि उत्प्रेरण हो,तो दंगों में बदलते देर कहाँ है? नेता जी के रैली की शान भी है और भीड़ सत्याग्रह की पहचान भी है। कभी बदलाव की बयार है, कभी एकता की धार है। ये वो भीड़ है जो शक्ति प्रदर्शन को टूटती है। भक्ति प्रदर्शन को जुटती है और विरोध में अपनों पर अपना ही नुक्सान चुनती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में भीड़ ही तो सरकार बनाती है और भीड़ ही सरकार गीरा देती है। भीड़ जिसमें पढ़े भी है, अनपढ़ भी और कुछ मतिहीन भी है। जनाब भीड़ के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं पर विमर्श की तलाश में यदि निकले हों तो पूरा इतिहास जानना तो लाजमी है।
भीड़ जिसकी शक्ल नहीं होती उसके प्रयोग से बड़े बड़े षड्यंत्रों को अंजाम दे दिये जाते हैं। कभी मॉब-लिंचिंग, कभी विरोधी स्वर, कभी हिंसक झड़प कभी दो वर्गों की रार, कभी जातिवाद के ज्वाल,तो कभी रोजगार के लिए पिटते गाल दिखाई पड़ते हैं। वास्तव में भीड़ की गाथा में एक तो उत्तेजक अवश्य रहता है जो शनैः-शनैः ही सही मगर अपने मनोरथ के समीकरण को चलाते जाते रहता है। कुछ सिद्ध हो ना हो, मगर स्वहीत तो निश्चित ही सिद्धी को ग्राही होता है। कभी अपने उपस्थिति के धमक के लिए, कभी धमकी के चमक के लिए, कभी सिंहासन को हिलाने के लिए ये भीड़ अवश्य ही उठ खड़ी होती है। कभी लक्ष्य पुनीत होते हैं, कभी भीड़ कठपुतली बन आकाओं के हाथों में बंधकर पथ से भटकते देर नहीं लगता है। कभी सड़कों पर पत्थरबाजी, कभी विद्या के प्रांगण में नारे बाजी,कभी दलित-सवर्ण,कभी धर्म के प्रपंच में भीड़ ने ओज में बहुत विष घोला है। सार्वजनिक सम्पत्ति के नाश में जाने कितनों ने भीड़ का चोगा ओढ़ा है। मगर, किसी ने दर्द से पीड़ित बच्चों,बुढ़ों और आम के बारे में किसी ने कुछ नहीं बोला है। भीड़ की लोकप्रियता की महफिलें लुटने के लिए बौद्धिक लुटेरों की कमी थोड़ी है। मगर जनाब, ये भीड़ है भीड़ की शक्ल नहीं है। फिर दोष किसके मत्थे चढ़ाएं ये प्रश्न मौन ही डोला है।
लोकतंत्र में विरोध तो निश्चय ही आवश्यक है परंतु विरोध का मार्ग या तरिका उचित अहिंसा का प्रदर्शन अब सिर्फ किताबी ज्ञान से कम नहीं। क्योंकि विरोध में दो चार घर ना जले, दो चार लोग ना मरे तो विरोध विरोध नहीं सिर्फ बवाल कहलाकर रह जाता है। इस लिए तो भीड़ को आगे करके अपने लक्ष्यों को निर्धारित कर भीड़ का गणितज्ञ पूरा खेल खेल जाता है। वहीं भारत में किसी को कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं हैं। परंतु, कोई भीड़ में शामिल होकर हिंसा करता है, तो उसके भारतीय दंड संहिता के तहत कार्रवाई करने का प्रावधान है। जिसमें आईपीसी की धारा 147 और 148 में बल्वा करने पर 2 से तीन साल की सजा के साथ जुर्माना लगाया जा सकता है। वहीं किसी इमारत में आगजनी करने पर आईपीसी की धारा 436 के तहत 10 साल की सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। मगर इन सभी कार्रवाई के लिए, भीड़ के शक्ल का शिनाख्त होना भी तो बहुत जरूरी है। किसी भी भीड़ के मुखड़े बनने से पहले लोगों में जन चेतना और आत्म मंथन जरूरी है। अन्यथा, रोजी के दाम पर भीड़ की खरिदफरोख में जाने कितने मासूम कुचले जायेंगे। और कितने भीड़ के दम पर कानून को हाथ में लिए जायेंगे।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़