(मर्मस्पर्शी)
मनुष्य का सांसारिक जीवन विभिन्न परिस्थितियों से होकर गुजरता है।जैसे जन्म के पूर्व केवल वह न्यून तरल के समदृश्य सिर्फ कण होता है। प्रकृति के नियमानुसार वह जन्मता है शीशु, बाल्य, तरुण, युवा फिर जागृत नागरिक की भांति जीवन व्यतीत करते हुएँ । पून: शुन्य की ओर लौटने लगता है।क्योंकि जिसका सृजन हुआ हो,तो संहार भी निर्धारित होती है।ठीक वैसे ही जीवन के पड़ावों को पर करके मनुष्य प्रकृति की सत्ता में अपनी मूलावस्था को धारण करता है। लेकिन यह भी है की सांसारिक जीवन के उतर-चढ़ाव में एक सामान्य व्यक्ति जो सबकुछ मेरा है की धारणा से ग्रसित होता है।जो स्वयं को प्रकृति का होने के बजाय अपने आप को प्रकृति से संबंधित होने के मिथ्यावाची विचार में फसें रहने से प्रकृति भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करती है। प्रकृति ही प्रवास्थाओं की जननी है तो यदि काम की मांग या आकर्षण रखते हैं,तो निश्चय ही प्रकृति इतना काम आप में भर देगी की देश-दुनिया के किसी भी कोने में रहो,वात्स्यायन होना स्वाभाविक है। जैसे सांसारिक मोह में अपना सुख तलाशने वाले मनुष्य के लिए प्रकृति की लीला देखिए,जिसे संस्कृत के एक श्लोक से समझने का प्रयास करते है :
कुग्रामवासः कुजनस्य सेवाकु भोजनं क्रोधमुखी च भार्या ।
मूर्खश्च पुत्रो विधवा च कन्या विनाऽग्निना पञ्च दहन्ति कायम् ॥
यह श्लोक पूर्णरुपेण सांसारिक मोह, बंधन से लब्धित है जो भावार्थ में कहती है कि, असभ्य गाँव में रहना, असभ्य लोगों की सेवा करना, खराब और असंतुलित भोजन करना, ईष्या और क्रोध से परिपूर्ण स्त्री से विवाह करना, संतान में व्याप्त मुर्खता और पति के घर से तजि या बेवा हुई बेटी, बगैर अग्नि के भी शरीर को जलाते हैं। यह सौ फीसदी सांसारिकता का बोध करती है। जहाँ स्वयं के हित सुख के कामना से ग्रसित व्यक्ति विशेष को सांसारिक कष्टों के अवरोध शिल्प शनैः-शनैः मृत्यू की ओर खींचते हैं। जबकी वास्तव में मनुष्य की मनीषी शक्ति को संदेशित करती ईशोपनिषद का पाँचवा महासूत्र कहता है कि,
'तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्य बाह्यतः ॥५॥'
अर्थात् हम सांसारिक गति में रहें, तब भी प्रकृति अगतिक होते हुए भी हमारे साथ गतिमान होती है। प्रकृति सदैव निकट या सूदूर होने के भाव में हमारा दृष्टिकोण निर्भर करता है। क्योंकि प्रकृति अत्यन्त है सामीप्य है। ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण में प्रकृति विद्यमान है। प्रकृति ही प्रारंभ और प्रकृति ही अनंत है। लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका यह है की हम सांसारिक भोग में लिप्त रहेंगे या प्रकृति के निकट होकर मर्मस्पर्शी ज्ञान के अमृत का पान करेंगे। चयन और उत्कृष्टता हमारी है शेष तो प्रकृति का वरदान अनंत है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़