Friday, September 23, 2022

प्रकृति के अध्ययनशाला में चैतन्य के चर्मोत्कर्ष की स्थिति/ The state of climax of Chaitanya in the study of nature



                             (मर्म-मंथन)

 इस सृष्टि में जीवन के प्रवास्थाओं के पहले जो सत्ता शासित रही वह प्रकृति है। हमने जितना प्रकृति के रहस्य को समझने का प्रयास किया उसके अनुसार हमनें ब्रह्माण्ड के जन्म को सर्व प्रचलित बिग-बैंग सिद्धांत की मान्यता दी है। जो कहती है, 13.8 बिलियन वर्ष पूर्व बिग-बैंग विस्फोट के पश्चात् विभिन्न आकाशगंगाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ। वर्तमान परिदृश्य में पहले आकाशगंगाओं का क्षेत्रफल कम था और इनमें तीव्रता से तारों का निर्माण- विनिर्माण की प्रक्रिया चल रही है। आकाशगंगाओं के इस प्रकार के विलय से उनके प्रसार संबंधी अवधारणा की पुष्टि की जा रही है। हमारी आकाशगंगा में मिलने वाली दूसरी बौनी आकाशगंगा में हाइड्रोजन और हीलियम के अलावा अन्य तत्वों से निर्मित कम द्रव्यमान कुछ तारों के होने की संभावना व्यक्त की गई है। विलय की यह घटना विनाशकारी न होकर निर्माणकारी थी। इससे हमारी आकाशगंगा को एक नवीन आकार मिला। लेकिन एक रहस्यमय प्रश्न है वास्तव में इन परिस्थितियों के जन्म के पीछे कारक कौन हो सकता है। जवाब है अपरिमेय-अपरिभाषित-अनंत प्रकृति, जिसने स्वयं में सबकुछ समाहित रखा है।जिसने स्वयं से भितर पुनर्रावृत्ति-पुनर्परिवर्तन को चेतना दिया है।यानी मैं भी,आप भी, समस्त परिवेश, परिवेश के बाहर निकाय संपूर्ण सत्ता प्रकृति है। तो हम मनुष्यों में प्रकृति ने चेतना,बुद्धिजीव,वाक्पटुता और जिज्ञासा के स्वर क्यों सृजित किये? हमारे जीवन की उद्देश्यों के मर्म को उजागर करती ईशोपनिषद के छठवें मंत्र की ओर आपका ध्यानाकर्षण करना चाहूंगा जिसके अनुसार, 

'यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मनेवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥६॥'

अर्थात् जो बुद्धिजीवी सम्पूर्ण चर- अचर, जैविक-अजैविक,जीवित -मृत, कार्बनिक-अकार्बनिक और अपशिष्ट में प्रकृति की विद्यमान स्थिति के मर्म को समझ जाता है। वह व्यक्ति भूलवश भी निंदनीय कार्य नहीं करता है। वह प्रत्येक कण में प्रत्येक क्षम में आदि शक्ति प्रकृति के उपस्थिति एवं स्वयं में भी प्रकृति के अंश को आभाषी जानकर प्रकृति के परम सम्मान की अनिष्ट क्षति से डरता है।वह स्वयं को प्रकृति से पृथक नहीं,अपितु उसी पारिस्थितिकी व्यवस्था की एक कड़ी के भांति जानता है।इस मर्म की वास्तविकता को वह सहर्ष स्वीकार्य करता है और आनंदित भाव से प्रकृति की व्यवस्था का चैतन्य बोध करता है। वह इस व्यवस्था के साथ-साथ प्रकृति के विविधता और निर्भरता को जीवन की कड़ी और असीमित इच्छापूर्ती के सिद्धांत को आत्मविश्वास के साथ प्रयोज्य करता है।वह स्वयं के बजाय समस्त निकाय के कल्याण की बात को प्रधान समझता है।वह चिंता से रहित चिंतन के मार्ग का पथिक बन जाता है।काम क्रोध मद और लोभ के माया से परे होकर, अमरत्व और प्रकृति के परिवर्तन में अपनी भूमिका सुनिश्चित करता है।वह इस गुढ़ रहस्य को समझ चुका होता है कि इस प्राकृतिक सत्ता में छोटे से छोटे कण की महती भूमिका है। यह विशाल शक्तिशाली प्रकृति के चमत्कारिक स्वभाव का असर है कि जीवनामृत जल ठोस द्रव और गैस तीनों अवस्था में परिवर्तित हो सकती है। ऋतु के परिवर्तन से लेकर मरुथल पर वायु का समीकरण निश्चित ही प्रकृति से अनंत आकर्षक के नियम पर आधारित है। इस प्रकार के विचार का चैतन्य हो जाना ही मनुष्य के अनंत सफर की शुरुआत है। वह परिवर्तन और प्रकृति में निहित अपनी भूमिका का सार समझकर अनंत ज्ञान की खोज और प्रसार में निर्बाध होकर प्रकृति का साधक हो जाता है। तब वह तृष्णा शून्यता और जिज्ञासा की चर्मोत्कर्ष स्थिति में परम अमरत्व को धारण करता है।


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़