(अभिव्यक्ति)
सांसारिक जीवन में ईष्या और दोषारोपण का अवक्षेप अवश्य प्रासंगिक होता है।प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह सफल हो या असफल या मध्यस्थ तीनों ही अवस्थिति में कुछ मुर्खों की विद्वता का प्रदर्शन निंदनीय कार्यों के बढ़ते प्रभावों को देखकर लगाया जा सकता है। संभवतः इसी पर ध्यानाकर्षण करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि,
'निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।'
भावार्थ कहते हैं कि , जो आपकी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता जाता है। ये ऐसे उत्प्रेरकों का कार्य करते हैं जिनकी उपस्थिति में आपको ही लाभ होगा।सांसारिक जीवन की अच्छी बात यह है की यह आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करती है।जैसे आप चाहते है वैसी अनुकूल स्थिति का निर्माण आप स्वयं करते चले जाते हैं। प्रस्तावित लक्ष्यों के अगम्य पटल पर अदम्य साहस भरती प्रकृति आपको वो सारे संसाधन से लब्धि कर देती है ।जो आपके जीवन के सफलता के लिए सहायक हैं।अब निश्चय और परीक्षा में कनक बनने की बारी आपकी है।इसी परीक्षा के घड़ी में ये निंदकों की भूमिका को उत्प्रेरकों की भूमिका में रूपांतरण करना आपका दायित्व है।जैसे किसी जीव के मृत्यु के पश्चात् उसके इर्दगिर्द मास नोचने वाले जीवों को आमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती हैं।ठीक उसी समान जीवन के लम्बे सड़क पर ऐसे रक्तपिशाचु मिलते रहते हैं। ये प्रकृति के असीमित संभावना का असर है कि जो जैसा सोचता है वैसे बन जाता है। उदाहरणार्थ किसी प्राकृतिक विशुद्ध वातावरण वाले क्षेत्र में जाने से आपकी कल्पनाओं,भावनाओं के लहर का तेज दोगुना हो जाता है।मन से व्यथित व्यक्ति शांति के तलाश में पहाड़ में असीमित शांति पाता है।युवाओं का झुंड उत्साह की तलाश में पहाड़ पर जाकर मर्कट क्रिड़ा में लिप्त हो जाता है। ध्यान के लिए गया मनुष्य मनीषी बनकर लौटता है।कारण है, प्रकृति माँ है और माँ सदैव अपने संतान के मांग के प्रति दोगुनी स्नेह से प्रेम पोषित करती है। कुछ मतिहीन मनुज इसी सांसारिक भूमि को सर्वस्वरूप जानकर कलेवर और अंहकार के भँवर में फसकर शोक ग्राही होते जाते हैं। जिस व्यक्ति विशेष की आवश्यकता से अल्प की चाह है वास्तव में वह सुखी है और आवश्यकताओं पर नियंत्रण रखने वाला व्यक्ति योगी बन जाता है।
सांसारिक जीवन जहां सुख-दुख की पुनर्रावृत्ति ज्वार-भांटे के समान होती है। इसी कालग्रही मंच पर अभिनयों के मंचन का सुदर दर्शन यह है की मोह से एक स्तर ऊँचा उठा जा सकता है। जहां लोक लाज,लोक उक्ति और लोग मिथ्या के सागर से पार निकला जा सकता है।यह सिद्ध स्थिति का पर्याय है जीवन में शांति और निश्चित विश्वास का होना।जहाँ लोगों के स्वरों को शून्य कर दो, क्योकि यह वही भवसागर है जहाँ ईश्वर को भी लोक अवक्षेप का सामना करना पड़ा था। यह वहीं भव सागर है जहाँ लोग भगवान से भी खुश नहीं,दर्शन का प्रयोजन भी मनोरथ सिद्धि की उद्देशिका को प्रदर्शित करता है।ऐसे में हम और आप क्या है? यदि आप अपनी गणना इस शारीरिक संरचना की करते हैं तो निश्चय ही जीवन न्यून है लेकिन यदि प्रकृति के निकाय के रूप में करते हैं तो आप अनंत है। यह शारीरिक संरचना तो निश्चय ही एक क्षणोपरांत ढ़ल ही जायेगा। ऐसे नाश्वरता के खंडहरों से क्या वैमनस्यता का पालन करें।इससे तो अच्छा वैमनस्यता आलस्य, भेद, असफलता, मोह, करूणा, अहंकार से करे जो आपको निर्बाध प्रकृति में समाहित होकर प्राकृतिक सत्ता का बनने से रोक रहा है, क्योकि प्रकृति ही केवल शाश्वत है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़