Friday, September 23, 2022

सांसारिक अहंकार के खंडहरों से श्रेष्ठ है प्रकृति के मर्म के तलाश में विचरण/ Wandering in search of the heart of nature is better than the ruins of worldly ego


                      (मर्मस्पर्शी)


प्रकृति के अद्भुत सृजित सृष्टि में सांसारिक पृष्ठभूमि पर माया दुखों का कारण है। माया से तात्पर्य है जिन मनुष्यों का ज्ञान हर लिया गया हो और  ऐसे दुष्ट कर्म करने वाले मूढ़, नरों में अधम, और आसुरी स्वभाव वाले जो माया के जाल में फंसकर व्यथित रहते हैं। क्योंकि माया का कार्य है फंसाना, उलझाना और तनाव देना है। माया का अर्थ केवल धन से नहीं होता बल्कि जिस चीज में हमारा मन अटकता है, वही हमारे लिए माया है। सांसारिक जीवन में पांच तरह के विकार होते हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार। और  आत्मा के सात गुण हैं - पवित्रता, शांति, शक्ति, प्रेम, खुशी, ज्ञान और गंभीरता। एक तरफ पांच विकार हैं तो दूसरी तरफ सात गुण हैं। जितना हम इन पांच विकारों को इस्तेमाल कर रहे हैं, उतना ही इस सृष्टि में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के लहर को बढ़ते जा रहे हैं। प्रकृति जो पालनहार है उससे आप जो भी मांगते हैं वो निश्चित ही दोनो हाथ खोलकर प्रदत्त करती है। लेकिन क्या मायाजाल ही जीवन लक्ष्य है? विचाराधीन जवाब है नहीं ईशोपनिषद के सातवे मंत्र का अनुसरण करते हैं जो जीवन को लक्ष्य और प्रकृति की सत्ता के संदर्भ में ज्ञान देते हैं। कि,


यस्मिन्सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभूद विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥७॥

भावार्थ कहते हैं कि, जिस व्यक्ति विशेष को जब  इस सृष्टि के संदर्भ में विशेष ज्ञान हो जाता है। तो प्रत्येक निकाय में वह प्रकृति को देखता है। और जो सृष्टि के प्रत्येक कण में प्रकृति की सत्ता का बोध कर लेता है उस सिद्ध जीव को फिर किसी चीज का मोह या शोक नहीं रहता है। क्यो वह प्रकृति के असीम सत्ता में सभी जीवों का चरों का भूमिका के रहस्य को जान चुका होता है।वह अपने जीवन काल के आदि-अंत के चक्र को स्वीकार्य कर प्रत्येक क्षण को व्यतीत नहीं अपितु लक्ष्यों के प्राप्ति के प्रति मील के पत्थर स्थापित करता है। प्रकृति के चिंतन में लिप्त निर्बाध और स्वच्छंद मन के विजेता मोह और बंधन रहित होकर सांसारिक चुनौतियों के उस पार शांति के स्थिति में निर्मोही बन जाता है।वह वैमनस्यता, ईर्ष्या के स्वरों से बेहद दूर अपने जीवन को उद्देश्यों से भर देता है।वह आविष्कार करता है,नये प्रतिमान गढ़ता है। माया से बंधित लोगों के पैरों में बंधन या जंजीर की अवस्थिति ऐसी होती है जो उन्हे बाहर निकलने नहीं देता है। वह स्वमेव भी इस बंधन से मुक्ति की कल्पना नहीं करता है। ये बंधन ,ये सांसारिक क्रीड़ा और अहंकारों के प्रति आकर्षण नित्य उसे सांसारिक दूख के प्रति प्रेरित करते रहते हैं। और मनुष्य अहंकारों के इसी आकर्षक विचार में अपना-पराया, न्यून-अधिक, छोटा-बड़ा और साक्ष्य-मिथ्या के ढ़ेर में पड़कर मतिभ्रम की अवस्था में रहता है। वह तृष्णा के वशीभूत होकर उस मृग की भांति हो जाता है जिसे कस्तुरी की तलाश होती है।जबकि कस्तुरी उसके शरीर में व्याप्त रहती है।
                 इसी संदर्भ में कबीर दास जी कहते हैं की, 'कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि। ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥'  सार में, ईश्वर यानी अमृत धात्री प्रकृति कहाँ है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे शास्त्रों और विद्वानों के द्वारा बड़े ही जटिल शब्दों में प्रदर्शित किया जाता रहा है जिसे समझना एक साधारण आदमी के लिए बहुत ही मुश्किल प्रतीत होता है। कबीर ने इसे बड़े ही साधारण शब्दों में समझाते हुए कहा की जैसे कस्तूरी हिरण की नाभि में ही होता है, लेकिन वह उसे जंगल में जगह जगह ढूंढता फिरता है, वैसे ही हमारे अंदर ही /आत्मा के अंदर ईश्वर यानी परम शक्ति प्रकृति का वाश है लेकिन उसे समझने के अभाव में हम उसे, मंदिर मस्जिद, तीर्थ, एकांत, तप और ना जाने कहाँ कहाँ तलाशते फिरते  हैं।  जबकि सत्य आचरण, मानव के मूल गुणों को अपनाकर हम प्रकृति के नजदीक जा सकते हैं। सारांश में कहें तो, प्रकृति के नियमों में जो व्यक्ति अपनी सिद्धता प्राप्त कर लेता है। वह निर्मोह और निर्बाध होकर सुख-दूख दोनो में प्रसन्नता के स्वर विस्तारित करता है। क्योंकि प्रकृति असीमित और परम शक्ति है।


लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़