Friday, September 23, 2022

अनंत प्रकृति में निहित आकर्षण का सिद्धांत एवं चिंतन की अवधारणा/ The principle of attraction inherent in infinite nature and the concept of contemplation



                             (मर्मस्पर्शी)

हमारा शरीर कई तन्त्रों से मिलकर बना है। तंत्र, कई प्रकार अंगों से मिलकर बनते हैं। और अंग, भिन्न-भिन्न प्रकार के ऊतकों से बने होते हैं। जहाँ ऊतक, कोशिकाओं से बने होते हैं। यानी मानव शारीरिक संरचना में कई प्रकार के तत्वों का समावेश होता है। जैसे मानव शरीर में सर्वाधिक  प्रचुर तत्व ऑक्सीजन है। ऑक्सीजन मानव शरीर का वजन से 65 फिसदी से अधिक होता  है। मानव शरीर में कार्बन दूसरा सबसे प्रचुर तत्व है। ये दोनो प्राकृतिक तत्व हैं। मानव शरीर पंच महाभूतों से निर्मित है। जिसमें सात चक्र क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार होते हैं। हम अगर इस ऊर्जा का ठीक प्रबंधन और नियंत्रण  कर लें तो असाधारण सफलता भी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। इन चक्रों के जागरण के लिए सर्वप्रथम मूलाधार चक्र को खोलने के लिये व्यक्ति को अपने रीढ की हड्डी के मूल छोर पर जहा चक्र स्थित होता है । वहा पर ध्यान करते हुए आपको एक कमल के फुल की कल्पना करनी होगी पर बार – बार आपको यह प्रयास करना होगा जिसके चलते आपको एक अलग तरह की ऊर्जा महसुस होने लगेगी और आपका मूलाधार चक्र धीरे-धीरे जागृत होने लगेगा। हम ध्यान और दर्शन से क्या अनंत सत्ता हासिल कर सकते हैं।यह एक रहस्य है जिसका मार्गदर्शन ईशावास्य उपनिषद् के आठवे महा सूत्र में उल्लेखित है। जिसके अनुसार,

'स पर्यगाच्छक्रमकायव्रणम स्नाविर शुद्धमपापविद्धम।
कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूर्याथातत्थ्यतो र्थान व्यदधाच्छाश्वतीभ्यहः समाभ्यः॥८॥'

भावार्थ में उल्लेखित है कि प्रकृति सर्वव्याप्त है। जिसने सृष्टि की सृजना की,जो शारीरिक बंधनों से मुक्त है,जो जड़ एवं विराम से मुक्त है। पवित्र और पाप से रहित, प्रकृति सूक्ष्मदर्शी, ज्ञानी, सर्वोपरि, वर्तमान है। अनंत काल से सृजनात्मकता में लिन स्वयंभू यानी अजन्मी प्रकृति का प्रत्येक निकाय में अवस्थिति और प्रत्येक जीव के संभावनाओं, आवश्यकताओं को न्यायोचित पूरा करने के लिए अग्रसर रहती है। प्रकृति अपार आकर्षण को सिद्धांत पर कार्य करती है।जहाँ याचक को केवल अपनी इच्छाएं जाहिर करना है। इच्छा जाहिर के पश्चात् प्रकृति पर अटूट और अप्राप्य स्थिति तक निरंतर चिंतन का भाव उस अपरिमेय-अपरिभाषित-अनिश्चित विचार को भी निश्चितता के सिद्धांत में परिवर्तित कर देगी। बड़ा सवाल यह है की हम प्रकृति के शक्ति और प्रकृति के निर्बाध इच्छा पूर्ति के सिद्धांत को कैसे समझे। जब सृजन की संभावना ही नहीं थी। यकायक विस्फोट ने निर्वात में या निरंक स्थान पर स्थानमूलक या स्थान संग्रहकों की भांति विशाल स्थल,ग्रह, उपग्रह और ऐसी प्रवास्थाओं का सृजन हुआ जो परिवर्तन ग्राही हों।यही परिवर्तन ग्राही सृजन जीवन के उत्पत्ति का प्राथम्य कारण है। जहाँ प्रकृति ही सर्वोच्च है और प्रकृति ही प्रधान है। ऐसा भी नहीं है की हम बुद्धिजीवियों की संरचना कहीं पृथक व्यवस्था से हुआ हो।
              हमारा शरीर पांच तत्वों यानी  मिट्टी, पानी, अग्नि, वायु और शून्य से मिलकर बना है। इन्हें पंच महाभूत या पंच तत्व भी कहा जाता है। ये सभी तत्व शरीर के सात प्रमुख चक्रों में बंटे हैं। सात चक्र और पांच तत्वों का संतुलन ही हमारे तन व मन को स्वस्थ रखता है। यानी प्रकृति के संसाधनों की व्यवस्था के संतुलित गठजोड़ का नतिजा है कि हमारा शरीर ऊर्जावान है। यानी हम भी प्रकृति के निकाय का हिस्सा है। कभी आप अनुभव करेंगे की आप जब भी इन पंचमहाभूतों के संपर्क में आते हैं तो अलग ही अहसास होता है। जैसे शारीरिक थकान की स्थिति में पानी के प्राकृतिक स्त्रोत जैसे नदी,झील, समुद्र के आसपास रहने से थकान का अनुभव कम होता है।क्योकि वह हमारे शारीरिक संरचना में व्याप्त अवयव के अपरूपता सदृश्य हैं। जिसके कारण अलग ही शांति का अनुभव होता है। ठीक ऐसे ही यदि प्रकृति से कोई प्रश्न,विचार या आवश्यकता रखते है। जिसका चिंतन आप करते है, तो निश्चय ही प्रकृति के विभिन्न घटकों से होती हुई आपके प्रश्न,विचार या आवश्यकता प्रकृति तक पहुँचकर पुनः आपके इर्द-गिर्द ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती हैं जो उस याचना के साकार होने का बोध है। शेष प्रकृति तो अनंत आकर्षण के सिद्धांत में वितरित है अब प्रश्न यह है की आपमें प्रकृति के इस मर्म पर विश्वास कितना है?



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़