(अभिव्यक्ति)
शिक्षा, मनुष्य को पशु से सभ्यता की ओर ले जाती है। वर्तमान परिदृश्य में शिक्षा को पुरातन शिक्षण पद्धति से पृथक व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। जहाँ एक ओर अच्छी शिक्षा और बेहतर रोजगार के साथ सुनहरे भविष्य की कल्पना के कसीदे गढ़ते मार्केटिंग के होडिंग्स तो आप ने राह चलते अवश्य देखे होंगे। प्रत्येक शिक्षण संस्थान एक दूसरे से तुलनात्मक दृष्टिगत विवरणों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। जहाँ बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और सुविधाओं से लैस क्लास रूम में वातानुकूलित पढ़ाई की गारंटी तो अवश्य बाटते हैं। लेकिन क्या हम वाकई में उच्च शिक्षा के स्वरों में प्राण फूकने के काबिल बन पाये हैं। उच्च शिक्षा, वह स्तर है जो विश्वविद्यालयों,व्यावसायिक विश्वविद्यालयों, सामुदायिक कॉलेजों, उदार कला महाविद्यालयों, प्रौद्योगिकी संस्थानों द्वारा प्रदान किया जाता है। भारत में उच्च शिक्षा की गारंटी जाति, पंथ और लिंग के बावजूद सभी के लिए है। शिक्षा का अधिकार मानव अधिकार है।
वर्तमान में व्यावसायिक शिक्षा और पेशेवर प्रशिक्षण के पाठ्यक्रमों की मांग बीते कुछ दशकों में बढ़ी है। एनपीई-2020 भी इन्ही धारणाओं से ओत-प्रोत है। उच्च शिक्षा को लेकर जो वर्तमान में प्रश्न हैं, उसमें एक यह कि क्या वैश्विक पटल पर बदलते घटनाक्रम के बीच उच्चत्तर शिक्षा और ज्ञान के विभिन्न संस्थान स्थिति के अनुसार परिवर्तित हो रहे हैं? और दूसरा यह कि क्या शिक्षा का तकनीकी होने का बड़ा लाभ राष्ट्र उठा पा रहा है? शोध, अनुसंधान के विषय में ऐसे ही प्रश्न प्रासंगिक होते हैं। जैसे- आज की वैज्ञानिक प्रतिस्पर्धा वाली दुनिया में भारत के अनुसंधान एवं विकास की क्या स्थिति है? चीन व जापान जैसे राष्ट्रों के तुलना में भारत शोध कार्यों के मामले में पीछे क्यों है?
मार्च 2022 तक भारतवर्ष में विश्वविद्यालयों में कुल मिलाकर 1026 विश्वविद्यालय हैं। भारत के 28 राज्यों में से प्रत्येक के साथ-साथ आठ केंद्र शासित प्रदेशों में से पांच में किसी न किसी तरह के विश्वविद्यालय हैं: चंडीगढ़, दिल्ली, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख और पुडुचेरी। इन सभी संस्थानों में विभिन्न संकायों में यूजी, पीजी और डॉक्टरेट की शिक्षा प्रदान की जाती है। कुछ संस्थान ऐसे हैं जो मानक स्तर तो प्राप्त करती है, लेकिन अच्छे विद्यार्थियों की कमी के चलते सुविधाएं बाट जोहते रह जाती है। वहीं कुछ संस्थान केवल प्रतिस्पर्धा के चलते एक दूसरे से केवल भर्ती की संख्यात्मक आकड़ों में तेजी दिखाने के लिए विद्यार्थियों की उपस्थिति में शिथिलता को ड्यूटी देकर, उच्च शिक्षा के प्रसारण के निर्धारित चैनल को क्षतिग्रस्त करने में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं। जैसे अब बच्चा कक्षा आयेगा ही नहीं तो सीखेगा क्या और रट्टामार पद्धति से पीजी तो निकाल लेगा लेकिन शोध और अनुसंधान के क्षेत्र में पहुँचर प्लेगरिज्म और कॉपीपेस्ट परम्परा के अधिन रहकर जैसे-तैसे अपना शोध पूर्ण कर लेता है। लेकिन स्तर अब यहां से गिरना प्रारंभ होता है क्योंकि ये ही युवा फौज कल की भावी प्रोफेशनल कहलाएगें जो शोधकर्ताओं के लिस्ट में जुड़ तो गए लेकिन, भावी पीढ़ी को अंधे बनने की ट्रेनिंग में पारंगत प्रोफेशनलिज्म का पालन करेंगे। बहरहाल, ऐसा भी नहीं है की सभी प्रोफेशनल ऐसे है। कुछ विकट परिस्थितियों में भी रहकर सोने से खरा बनकर उभरते हैं। हम बात कर रहे थे शोध के संदर्भ में वर्तमान में सभी शोधार्थियों को कम से कम दो शोध पत्र प्रकाशित कराना भी अनिवार्य कर दिया गया है। ये शोध पत्र यूजीसी केयर, स्कोपस या एससीआई जर्नल्स में प्रकाशित होना चाहिए। लेकिन क्या पूरी तनलीनता से शोधार्थी अपने शोध पत्र को वास्तविकता के धरातल से लिख पाते हैं या नहीं ये बड़ा प्रश्नचिन्ह है।
एक अमेरिकी सरकारी एजेंसी के वर्ष 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, एक लाख पैतीस हजार से अधिक वैज्ञानिक शोध पत्र भारत वर्ष के युवा शोधार्थियों ने प्रकाशिक किया है। जिसमे विज्ञान और इंजीनियरिंग लेखों का दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा प्रकाशक बन गया है, जिसमें चीन शीर्ष पर है। यूएस नेशनल साइंस फाउंडेशन द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में प्रकाशित वैज्ञानिक पत्रों की संख्या 2008 में 1,755,850 से बढ़कर 2018 में 2,555,959 हो गई। पीयर-रिव्यूड साइंस एंड इंजीनियरिंग (एस एंड ई) जर्नल लेखों और सम्मेलन पत्रों द्वारा मापा गया वैश्विक शोध उत्पादन पिछले 10 वर्षों में सालाना लगभग चार प्रतिशत बढ़ा है। वर्तमान दौर में शोध के लिए महौल तो विस्तृत है। लेकिन इंतज़ार सिर्फ ऐसे पारंगत शोधार्थी का है जो निष्पक्षता और पूरी इमानदारी से शोध कार्यों को पूर्ण करें।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़