(दर्शन)
दीर्घायु जीवन की प्रत्याशा के लिए शायद ही कोई ऐसा जीव होगा जो मृत्यु को ग्राही होना चाहता हो। सभी कम से कम सौ वर्षों की आयु के विचार करते हैं। वर्तमान समय मेें भारत वर्ष में सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम की रिपोर्ट कहती है कि,'ग्लोबल एवरेज आयु 72 साल 6 महीने है। जबकी भारतीयों के जीवन जीने की उम्र 69.7 साल हो गई है। यानी, अब हर भारतीय की औसत उम्र 69 साल 7 महीने हो गई है।' प्रश्न उठता है की मनुष्य चाहता तो दीर्घायु लेकिन उसके आयु में ह्रास का कारण क्या है? वर्तमान फुहड़ता लपेटे कलेवरों और अलंकारों से भरे मिथ्या सागर में शास्त्र कहते हैं कि
'नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।'
अर्थात् ,शास्त्रों में गुढ़ रहस्य की भांति ज्ञान में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिए। क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा। सारांश में कहें तो कर्म के जो हम करते हैं उसका प्रभाव हमारे शरीर में होता है। इसी प्रकृति में एक नियम कहती है कि, प्रत्येक क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया निश्चित है। ठीक वैसे जीवन के विभिन्न पड़ाव में लोगों के प्रति द्वेष, बैर, घर्षण, ईष्या, कपट इत्यादि के आग से शारीरिक ह्रास हम स्वमेव करते हैं। संभवतः इसी परिप्रेक्ष्य में ईशोपनिषद दूसरे मंत्र में संदेश करते कहता है कि,
कुर्वन्नेवेह कर्मणि जिजीविषेछतां समः |
एवं तवायि नान्याथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे ||२||
यह मंत्र सार रहस्य को प्रकाशमान करते हुए कहता है कि, यदि किसी को इस पृथ्वी पर शताब्दी विचरण करने की इच्छा है उसे सद्कर्म करते रहना चाहिए। यहीं मार्ग ही सर्वोत्तम है इसके अलावे कोई दूसरा पृथ्वी मार्ग नहीं है जिससे आपके कर्मों का फल आप से जुड़ा रहे। यानी जो कुछ भी आप जीवनपर्यंत इस भवसागर में रोपित करते हैं, उसी का फल आप काटते भी है। यदि अशुद्धियों का लेपन व्यवाहर, कौशल, भावना, कर्म, भोजन, मन, विचार या आदि शैली में हो,तो निश्चय ही यह अशुद्धता आपके कर्म फल के रूप में आपको प्राप्त होते हैं। यदि सद्कर्म हैं तो उत्साह और सुख मिलेंगे नहीं तो प्रतिकूलता के ज्वार में यातनाएं, तनाव जीवन का ह्रास करने तैयार बैठीं है।
प्रासंगिक रूप में समझने का प्रयास करें तो जीवन में सर्वोत्तम कार्य है जीवन में सकारात्मकता और ऊर्जा का संचार करना। सुबह खाने से लेकर, रात्रि निद्रा का कार्य तो प्रत्येक व्यक्ति करता है। लेकिन उसके अलावा बौद्धिक, सृजन, आविष्कार, नवनिर्माण, मंथन के लिए लालायित रहना ही तो मानव या आदमियत की पहचान है। जो जीवन को ऐसे जियें की लोगों को संदेशित करें न कि शंका की ऐसा व्यक्ति कोई था या सिर्फ खानाबदोश की तरह तृष्णाओं में भटकता हुआ पशुवत जीवन व्यतीत करने के बाद मर गया। चयन आपका है अनंत या शून्य परिणाम निश्चित है। जीवन के की उपयोगिता इतना नहीं है की सिर्फ स्वाद, निद्रा और मोह के फेर में ढ़ला दें। इस प्रकृति ने कुछ सोंचकर ही हमें बुद्धिमता से नवाजा है। प्रश्न यह है की उसका सदुपयोग या दुरुपयोग हमारे कर्मों और विचारशीलता पर निर्भर करता है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़