Friday, September 23, 2022

प्रकृति के संरचनात्मक प्रयोगशाला के मर्मज्ञों की जीवन गति/ Nature's Structural Laboratory's Penetrations of Life



                    (मर्मस्पर्शी)


जीवन के लक्ष्यों और शांत सत्ता के विषय में संभवतः वर्तमान आधुनिक मनुष्य कम ही स्मरण करता है। वह आधुनिकता और सांसारिकता के मोह के वशीकरण में जीवन दर्शन से विमुख हो चला है।जहाँ वह नित्य ऐसे कार्य कर रहा है जो तिरस्कृत तो है साथ ही साथ उसके प्रकृति में मानवता के विलोपन का बीजारोपण भी है। नित्य प्रकृति के पारिस्थितिकी पर हनन और प्रकृति के क्रम विनिमय के सिद्धांतों में छेड़छाड़ बड़े समयांतराल के पश्चात गंभीर स्वरूप धारण करने वाले हैं।जीवन में सादगी और प्रकृति के मर्म को समझने के प्रयास में लब्धि व्यक्ति विशेष  प्रकृति के संरचना की संरक्षण के साथ-साथ संवर्धन का चिंतक होता है। इसी संदर्भ में प्रकृति के मर्मज्ञ की अवधारणा, प्रवृति और फलित जीवन के संदर्भ में ईशोपनिषद से उद्घृत तेरहवें मंत्र में कहा गया है कि,

"अन्यदेवाहुः संभवादन्यदाहुरसंभवात।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद विचचिक्षिरे ॥१३॥"


जो प्रकृति के मर्म को भेद लेते हैं वास्तव में वे सच्चिदानंद हो जाते हैं। वे जन्म -मृत्यू और पुनर्जन्म के चक्र को समझते हैं। वे इस अदृश्य शक्ति के उपासक हो कर प्रकृति के हो जाते हैं। अपने कर्मों, धर्म और गुरुओं के प्रति निस्पृह भाव से फल की कामना के बगैर सेवा करते हैं, निश्चय ही अनंत सत्ता में भी पुण्य के प्रभाव से मुक्तिबोध हो जाते हैं। यह प्रकृति का स्वभाव है कि समस्त पहलुओं का, इच्छाओं का, परिवर्तन का और निरंतर आकर्षित करने वाले विचारों का अनुसरण करती है। यदि हम आधुनिकता मांगते हैं तो प्रकृति हमें इतने आधुनिकीकरण से भर देती है जिसकी कल्पना भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। वहीं यदि हरियाली मांगने हैं तो निश्चय ही इतनी हरितमा से भर देगी की सुबह से लेकर शाम तक प्रकृति के गोद में हरियाली ही दिखाई देगी। विचारों का विचरण और मंथन पर नियंत्रण रखना आपका काम है। जैसे पुरातन कहावत है कि "अति बिगाड़े मति" यानी किसी भी चीज की ज्यादा होना मनुष्य को पागल या दीवालिया बना देता है।जैसे अधिक धन से चोरी का भय, और अति दरिद्रता में जीवन जीने का भय दोनो ही स्थिति में मति यानी मस्तिष्क की चाल असंतुलन की स्थिति में दिखाई पड़ता है। ठीक वैसे ही प्रकृति से मांगा गया हर एक वरदान की परिधि जितनी सकारात्मकता का बोध कराती है उतनी ही नकारात्मक बोध भी जोड़ लेती है।जैसे आप ने कहा मानव सभ्यता बढ़ती रहे, तो निश्चय है की लोगों की जनसंख्या में वृद्धि तो होगी। और  "जब आत्मा न मरती है,न जन्म लेती है" तो बढ़ते मनुष्यों के संख्याओं में जो आत्माएं बढ़ रही है वे निश्चित तौर पर प्राकृतिक संसाधनों के आत्माओं का रुपांतरण है। उनके रूपांतरण से पृथ्वी केवल मनुष्यों से भर जायेगी यह एक असंतुलित स्थिति का उद्योतक है। फिर संतुलन के लिए प्रकृति सम्पूर्ण सत्ता में सुधार करते हुए पुनर्स्थापित करने के सिद्धांत को लागु कर देती है।यानी आत्मा तो वहीं रहेंगी लेकिन भौतिक परिवर्तन फिर से हिम युगीन हो जाता है। संभवतः इसलिए प्रकृति के मर्म को जानने वाले योगी पुरुष को निस्पृह भाव का ग्राही और बंधनों से निर्बंध बताया गया है।


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़