Friday, September 23, 2022

सांसारिक जड़त्व को प्रबल करता है अहंकार/ Ego strengthens worldly inertia

                               (मर्म-मंथन)


अहंकार की प्राथमिक सीढ़ी वर्तमान परिदृश्य में धन है, क्योंकि क्रय-विक्रय की प्रणाली में धन को प्रधान और कर्म को गौण माना जाने लगा है। जहाँ श्रम के क्रय-विक्रय के आधार पर सांसारिक जीवन में बड़े बदलाव देखने को मिलते हैं। जैसे पाठ्य सामाग्रियों के बोझ उठाता मनुष्य इसलिए पठन में लिप्त नहीं है क्योकि उसे जीवन का लक्ष्य खोजना है।अपितु वह अपने गृह से विद्यालय इस लिए प्रणोदित है ताकि भविष्य में वह उनके पूर्वजों से द्वारा गढ़े अहंकारों के बेमतलबी अहंकार की वेदी को और चौतरफा संवर्धित कर सके। प्रश्न उठता है की क्या मनुष्य के मन और सृजन शक्ति का मोल किया जा सकता है? वर्तमान दौर में सामाजिक, पारिवारिक और व्यवहारिक जीवन में धन और धनाढ्यता के मायने पृथक होते है। लेकिन अधिक धन की खोह में विराम करता मनुष्य आंतरिक रूप से सबसे बड़ा दुःखी और सांसारिक जड़त्व में प्रत्यास्थता के हद में टूटता प्राणी होता है। जीवन के लक्ष्यों के समझने वाले योगी और प्रकृति मर्मज्ञों से जीवन को प्रदर्शित करता ईशोपनिषद के चौदहवें मंत्र में कहा गया है कि,

संभूतिं च विनाशं च यस्तद वेदोभयम सह।
विनाशेन मृत्युम तीर्त्वा सम्भुत्या मृतमश्नुते ॥१४॥ 

अर्थात् जिन्हे प्रकृति के अविनाशी सत्ता का बोध हो जाता है।जो जीवन के ऋतु चक्रों को भली-भाँति समझते हैं। उन्हे अमृतमय प्रकृति का अमृत सहज प्राप्तव्य होता है। ऐसे कुशल प्रकृति के अनुयायी जो मृत्यु औक जीवन के सारांश का मंथन कर स्वयं की भूमिका खोज निकाला हो। ऐसे लोगों में योग और ध्यान से जागृत चेतना निष्काम वृति से विमल मन और कर्म की ओर गंतव्य होते हैं। ऐसे योगी, ऐसे मर्मज्ञों का जीवन फिर सांसारिकता के भंवर में कभी भी नहीं फसता है। यदि आप अहंकार को तनिक भी मौका देते हैं तो यदा कदा वो सारा खेल बिगाड़ देता है। यही अहंकार कभी बंधन,कभी मोह, कभी रिश्तों, कभी वैभव, कभी सर्वोपरि वस्तु बन भांति-भांति मायावी अवतारों के कलेवर गढ़ कर मन में वेदना और चिंता की लकीरें खींचनें को आमादा हो जाती है। अहंकार ही मोह है जो आगे चलकर दुःखों का कारण बनती है। यहीं दुःख इस प्रकृति के आकर्षित करने वाले संसार में सबसे बड़ा मोह है। जितना ज्यादा अहंकार मनुष्य चेतना से उतना ही अधिक भ्रष्ट हो जाता है। वह कस्तूरी की प्राप्ति में क्षुधित मृग की भांति भटकाव की स्थिति में केवल दुख भोगता है। वास्तविक स्वरूप में देखें तो प्रकृति प्रेरणा है, जो मनुष्य या किसी भी जीव के विचारों के इर्द गिर्द वैसी स्थिति की स्थिरता को सुनिश्चित करती है।जैसे भूखा व्याघ्र अपने शिकार की कामना करता है।चेतन अचेतन मन में वह मनन करता है की आज भूख से ग्रसित हूँ।निश्चय ही बड़े हिरण का शिकार करूँगा यह विचार करते हुए उस व्याघ्र तो अपना शिकार मिल जाता है। ध्यान देने योग्य विषय यह है कि व्याघ्र ने आकर्षण या कहें प्रकृति से जितने आकार के शिकार की कल्पना की वह सुनिश्चित हो गया। ठीक वैसे ही काम की इच्छा रखने वालों के लिए प्रकृति काम सम्मोहन की वह चर्मोत्कर्ष पर ले जायेगी जहाँ काम पूर्ति के उपरान्त भी उत्तेजना का विलोपन शारीरिक से परे होगा। वहीं दूसरी ओर यदि शांति की मांग की जाये तो, कोलाहल के विद्रोह में भी मनुष्य के मनन और एकात्मकता का बोध ऐसा की उसकी प्रकृति पूर्ण उदासीन बना देती है। निश्चय ही प्रकृति के मर्म को समझने वाले व्यक्ति मन और कर्म निरंतरता से नव सृजन, नव ज्ञान के खोज में जीवन को समर्पित करते हैं। क्यों वे जीवन के ऋतु से भली परिचित हो जाते हैँ। उसके पश्चात् जीवन का उद्देश्य नवांकुरण और मर्मस्पर्शी हो जाता है। यह स्थिति दुःख या हर्ष की स्थिति से पृथक मनुष्य को उदासीनता लब्धित योगी बना देता है।


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़