(मर्मस्पर्शी)
प्रकृति संपूर्ण शृष्टि में समाहित है। कहने का तात्पर्य है कि आप में, मुझमें और हम सभी में प्रकृति का वास है। मैं किसी विरोधाभास या पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हूँ। अपितु वास्तविक सच्चाई के पदचिह्नों के पीछे चलने की स्वमेव स्वीकृति देता हूँ। इस पूरे पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभ के पूर्व भी जो चर-अचर निकाय, धूल कण और विशाल संभावनाएं जो जीवन को निश्चित करती है, वे रहीं होंगी। सारांश में उन्हे हम प्रकृति ही कहेंगे। यानी प्रकृति अजर-अमर है। जो जीवन-मृत्यु और पूनर्जन्म के कुण्डली से मुक्त निर्बाध है। वो कोई क्षुब्धता ग्रसित नहीं बल्कि अनंत दानता की सत्ता की सम्राज्ञी है। जहाँ मनुष्य हो, जीव हों ,जैविक-अजैविक हो या अपशिष्ट समस्त के संरक्षण,संवर्धन और पूनर्गठन की व्यवस्था प्रकृति करती है। संभवतः इस वैचारिक दृष्टिकोण में ईशोपनिषद के पहले मंत्र में कहा गया है कि,
'ईशावास्यमिद्ँ सर्वे यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्। १।'
तात्पर्य है कि ये पूरी सत्ता ईश्वरीय है। जहाँ प्रत्येक कण में ईश्वर हैं। ईश्वर के द्वारा ही समस्त चर-अचर की सत्ता व्याप्त है। इसका उपयोग, उपभोग कर सकते हो। लेकिन किसी अन्य के हिस्से में या किसी अन्य के परिश्रम से सृजित धन पर अन्याय पूर्ण होकर अर्जन की कामना मत करो।
हम जैसे प्रारंभ में वार्ता कर रहे थे कि सम्पूर्ण यह नाश्नर सत्ता के पूर्व और अंत के बाद भी प्रकृति का वास निर्विरोध रहेगी। जो वर्तमान प्रकृति के सत्ता में जो भी परिदृश्य हैं। ये क्षणिक है, इनका उपभोग केवल और केवल प्रकृति के तटस्थ रहकर करना उचित है। सांसारिक मोल-भाव के समीकरण में श्रम का मुल्य निर्धारण की प्रक्रिया ने हमें अर्थ के प्रति क्षुब्धता ग्रसित बना दिया है। जो मनुष्य को कोल्हू के बैल बनने पर मजबूर करता है या फिर धन्ना सेठ के भ्रष्ट संस्कार वाली संस्कृति का अनुयायी बना देता है। और फिर निरंतर या तो मेहनत करते जा रहे हैं या फिर अबाधित छल, कपट की भावना से भ्रष्ट मार्ग पर चलकर धनार्जन कर रहे हैं। सुख दोनों ही स्थिति में नहीं है। क्योंकि एक ओर जहाँ निरंतरता से परिश्रम थका तो रही है लेकिन पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए पर्याप्त नहीं है। वहीं अधिक अर्जन की परम्परा से ग्रसित व्यक्ति को संतोष नहीं है। वास्तव में प्रकृति, परमेश्वर है। प्रकृति ही सार है। तो प्रकृति के अधिन ही रहना है। तो फिर ये व्यर्थ के अर्थ के पीछे मृगतृष्णा लेकर दौड़ने का क्या पर्याय है। यह वर्तमान समय में बड़ा और गंभीर प्रश्न है। जहाँ लोग भौतिक उपस्करों, कलेवरों और स्वैग के लिए तेवर का संग्रहण करने को आमादा है। वास्तव में क्या यही है मानवों की उद्देश्य है। जब प्रकृति सूरज की रौशनी बाटने में, बरिश के विवर्तन में और ऋतु परिवर्तन में कोई भेद भाव नहीं करती है। तो हम और आप रंग, जाति, धर्म, वर्ण, स्वर के अलंकारों में भिन्नता क्यों तलाश रहे हैं। ऐसे ध्रुवीय विचार से हमें आखिर क्या मिल जायेगा। जबकि हमारे पास अनंत संभावनाओं की जननी प्रकृति है। जिससे जैसे मांग करो, वो पूर्ण करने के लिए आपके विचार का कई हजार गुना संभावनाओं के चौखटों को खोल देगी। अब यह हम पर निर्भर करता है की हम कौन से रास्ते का चयन करते हैं। अंतिम में सार यहीं है की सम्पूर्ण निकाय में प्रकृति है, मैं प्रकृति का हूँ और मुझमें प्रकृति है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़