Friday, September 23, 2022

ज्ञानपूर्वक-कर्म की परिधि में प्रतिकूल परिस्थितियों में विजयश्री के सूत्र/ In the periphery of knowledge-action, the formulas of Vijayshree in adverse circumstances



                         (मर्मस्पर्शी)



कर्म के मर्म का मंथन करने का प्रयास करते हैं। कर्म की उपेक्षा उसके फल की इच्छा है।क्योंकि फल की इच्छा यानी परिणाम की चाह, कर्म के पूर्व इस बात पर फसाती है कि हमने ये कर्म किया तो क्या यह फल मिलेगा? जहाँ मनुष्य अकल्पनियता से समीक्षक बनता है लगभग तब तक उसके मन में लोभ घर कर जाता है। इन्ही विचारों के परिधि में एक प्रश्न उठता है की कर्म कैसे होने चाहिए? वास्तव में जीवन में त्याग और परहित से बढ़ कर अन्य कोई सुख नहीं हैं। यथा सम्भव हो सकते तो प्रत्येक मनुष्य को इसे  आचरण में लाने का प्रयास करना चाहिए । कभी किसी अंधे को सड़क पार कराकर , किसी प्यासे को पानी पिला कर देखिए।लोगों से मधुर व्यवहार करके देखिए इसमें आपका कोई पैसा खर्च नहीं होगा पर अतुलनीय सुख की प्राप्ति होगी। विश्वास करना सीखिए। इसी तर्क पर ज्ञान की प्रासंगिकता पर विचार खिंच या जींच उत्पन्न करती है कि उसकी पृष्ठभूमि कैसी होनी चाहिए।इन्ही समस्त प्रश्नों को समझाते हुए ईशोपनिषद के नवम सूत्र में उल्लेखित है कि,

"अन्धं तमः प्रविशन्ति ये विद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्याया रताः ॥९॥"

भावार्थ है कि, जो कर्म और ज्ञान की उपेक्षा करते हैं गहरे अंधकारमय जीवन में लिप्त रहते हैं। निरंतर वे अज्ञानता की पृष्ठभूमि पर प्रवेशित होते रहते हैं। वहीं कुछ ऐसे भी लोग हैं जिनके पास ज्ञान तो है लेकिन कर्म से भागते रहते हैँ।ये भी अंधकार में स्वय को रखते हैं और व्यर्थ के अभिमान में जीते हैं। वास्तव में प्रत्येक मनुष्य का जीवन लक्ष्य ज्ञान पूर्वक कर्म करने की होनी चाहिए। इससे जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति में असाध्य लक्ष्य भी साध्य हो जाते हैं। वर्तमान दौर की प्रासंगिकता की लोग आदिम-सभ्यता के दौड़ प्रतियोगिता के पश्चात अब मार्ग से च्युत हो गया है। जहाँ ज्ञान को सिर्फ़ अंक के स्तरों पर नापते हुए,रोजगार उपलब्ध कराने वाले संसाधन के रूप में अध्ययन किया जा कहा है।जहाँ जिज्ञासा की जगह सिर्फ रट्टू तोता बनाने के वैकल्पिक विधि का प्रयोग हो रहा है। इस असीम प्रकृति के रहस्यों की ओर तनिक भी ध्यानाकर्षण तो छोड़िए विचार मंथन भी नहीं किया जा रहा है। वर्तमान युवा पीढ़ी स्वाद,अलंकार और अहंकार को मस्तक को लगाकर सर्वोच्च सुख की कल्पना में जीवन व्यतीत कर रहा है। कर्म के प्रति लोलुपता तब-तक ही स्वीकार्य है। जब तक की लाभान्वित होने की परम्परा का निर्वाहन हो रहा है।जहाँ लगा की आर्थिक पटल पर केवल शून्यता है।तो ऐसे गायब होते हैं जैसे गधे के सिर  से सींग गायब हो जाते हैं। ऐसा भी नहीं है की कर्म करने के लिए हिमालय या किसी विशाल एकांत की तलाश हो। बल्कि कर्म जो हम दैनिक जीवन में करते हैं, उसकी प्रासंगिकता पर अवश्य विचार करें।मंथन करें क्या ये कर्म उचित है या ये कर्म अनुचित्ता के परिधि में हैं। जैसे किसी व्यक्ति विशेष को 80फीट गढ़े खोदने का कार्य दिया गया।यदि वह अज्ञान से ग्रसित है तो १ फीट की गहराई के साथ लम्बी नाली खोद कर रख देगा।यदि वह ज्ञानी है लेकिन परिश्रमी नहीं है तो वो प्रयास तो करेगा लेकिन कुछ समय उपरांत सब छोड़कर शांत बैठ जायेगा।जबकि, ज्ञान से सुसज्जित और परिश्रम से परिपूर्ण व्यक्ति 80 फिट नीचे गड्ढा़ खोद कर जलामृत देते कुएं का अविष्कार कर देता है। सारांश में कहें तो जीवन में क्या करना है और कैसे करना है ? इसके लिए ज्ञान और परिश्रम दोनो गुणों की आवश्यकता है। अन्यथा पानी के विपरित बहाव वाले जीवन के चुनौतियों में मनुष्य घबराकर टूट जाता है। जबकि ज्ञान और कर्म का मर्म विपरित परिस्थितियों में भी आपको विजय-श्री दिलाने में सबल है।

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़