(मर्मस्पर्शी)
अलंकार ग्राही मानसिकता से भरे लोगों में सांसारिक भौतिक वस्तुओं के प्रति लोलुप्ता निश्चय ही उसे किसी भिक्षुक से ज्यादा की हैसियत प्रदान नहीं करता है। एक मनुष्यों जन्म लेता है। माता-पिता अपने भावी कल के संरक्षण के लिए बच्चों का संरक्षण वर्तमान में करते है। उनको लगता है कि आज जो हम इनवेस्टमेंट कर रहे हैं।उसके अच्छे रिटर्न्स में बुढ़ापे की जिंदगी सरल हो जायेगी। वे बच्चों को इसी बात की प्रेरणा देते हैं कि, तुम बड़े होकर,अच्छा पढ़ लिख कर बेहतर भविष्य बनाओगे। फिर नौ से पाँच बजे की दिनचर्या में वहीं युवा जकड़ कर पशुवत पग-पग पीछे चलने वाली मानसिकता का ब्रांड एम्बेसडर बन जाता है। वास्तव में जीवन क्या सिर्फ, खाना-पीना, कोल्हू के बैल की तरह कमाना, अहंकार गढ़ना और हाड़ मास की कल्पना में वशीभूत होकर काम क्रीडाओं में लिप्त होना है? यदि जीवन का यही उद्देश्य है तो पशु और मनुष्य में फर्क ही क्या है? ये काम तो वो भी करते हैं। प्रकृति ने असीम शक्ति,चिंतन, चैतन्यता और बौद्धिक क्षमताओं से नवाजा है वे केवल कपोलकल्पनाओं को गढ़ने के लिए है।जीवन में चिंता नहीं चिंतन का पर्याय होना आवश्यक है। जीवन में चेतना और परिश्रम की शक्ति पर केन्द्रित ईशोपनिषद के १०वॉ मंत्र कहता है कि,
"अन्यदेवाहुर्विद्यया न्यदेवाहुर्विद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१०॥"
ये पूरी सृष्टी का सृजन,उत्थान और पतन निश्चित है। क्षण भंगुर सृष्टि से विरक्त होकर,वास्तविक अमरत्व या प्रमुख शक्ति में लीन होकर इस सत्ता के चराचर संपदा से मुक्त होकर अनंत प्रकृति का ध्यान करना चाहिए। हम वर्तमान में हैं,भविष्य में भी परिवर्तन के साथ हैं।लेकिन निश्चित है की इस भंगूरता प्रधान संरचना में कर्तव्य कर्म प्रधान होता है। पहल की भावना, निःशेष होने की अवस्थिति ही धीर मनुष्य के कर्तव्य की वाणी है। सारांश में कहें तो कर्म प्रधान है। यह मायने नहीं रखता की आप कौन? क्या? कैसे ? कहाँ से हैं? अपितु आपके कर्म का लेखा-जोखा ही इस प्राकृतिक पारिस्थितिकी में समाहित होता है। जो भी धीर मनुष्य हुए उनके भी जीवन की प्राथम्यता हमारे समान ही हुई है। जो कुछ भी सीखे यहीं पर सीखे और यहीं पर सीखते-सीखते चैतन्य हो गए। वास्तव में प्रकृति कभी भी यह नहीं चाहती की कर्म से और जिज्ञासु मन से चिंतन से सुसज्जित व्यक्ति कभी पिछड़े,बल्कि उसके स्तर उत्थान में सहायक सिद्ध होती है। इसी संदर्भ में गीता के उपदेश में आदि पुरुष कहते हैँ, 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।' अर्थात् कर्म की प्रधानता पर केन्द्रित सर्वशक्तिमान कृष्ण भी यही तर्क दोहराते हैं कि, प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य-कर्म करना है। परिश्रमी जन का यह अधिकार, लेकिन कर्मों के आधार पर फल की चिंता करना कभी भी न्यायोचित नहीं है। अतः तुम कर्म के फल के संदर्भ में चिंता क विस्मृत कर जीवनपर्यंत कर्म योगी की तरह बनों। कभी भी अकर्मण्यता का विचार या आसक्ति का जागरण मन में नहीं होना चाहिए। यह सृष्टि की देन है की प्रत्येक व्यक्ति में बौद्धिक-शारीरिक और वैचारिक शक्ति निहित होती है। लेकिन बड़ा प्रश्न है? कि हम किस उन शक्तियों का प्रयोग कितना करते हैं। जैसे मनुष्यों के मस्तिष्क का सौ फीसदी कार्य करता है, जिसमें 90 फीसदी 'ग्लियल कोशिकाएं' होती है। शेष दस फिसदी बची न्यूरॉन्स कोशिकाओं को शक्ति प्रदान करतीं हैं। सभी मनुष्यों में समान संरचना होती है लेकिन उसके कर्म और निरंतर अभ्यास से बुद्धमता की उपलब्धि भिन्न-भिन्न होता है। यानी परिश्रम से परिवर्तन और उत्थान निश्चित है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़