(मर्मस्पर्शी)
मानवता को परिभाषित करते हुए अंतर्राष्ट्रीय ब्रिटानिका कहती है की यह वह उन्नत अवस्था है जो मनुष्यों के स्वभाव में दूसरे मनुष्यों या जानवरों के लिए दयालुता का भाव है। हम आदिम से सभ्यता की ओर बढ़ते हुए शनैः-शनैः प्रकृति के हिस्से ये पृथक प्रकृति को अपने उपभोग का हिस्सा मान लिया है।जो हमारे मूर्खतापूर्ण विचारधारा का प्रदर्शन करता है। हम प्रकृति के अन्य संसाधनों का दोहन करने लगे, जैसे हम कोई उपभोक्ता हैं और प्रकृति अपणा संचालिका जिसे मांग करते रहे और वो पूर्ण करती जा रही है। हम मानवता तो परिभाषा के घेरे में तो रख दिये लेकिन वास्तव में मानवता का पाठ भूल गए। मानवता की परिभाषा कहती है कि दूसरे के प्रति दयालुता, फिर हमने मृदा की कोख को काटकर पेट्रोलियम और कोयला क्यों निकाला? दुनिया में बेतहाशा निर्ममता से जानवरों की हत्याएं केवल जूतों और चमड़े के थैले की लिए हो रही है। भोजन की स्वादिष्टता में पशु-पक्षियों के लाश को ग्रास करके हम कहते हैँ कि हम मानवतावादि संस्कृति के धरोहर रख रहें हैँ। संभवतः इसीलिए गौतम बुद्ध ने इस सांसारिकता को संबोधित करते हुए कहा है कि "दुःख है, मनुष्य दुखी है। मनुष्य के दुःख का, उसके दुखी होने का कारण है क्योंकि दुःख अकारण तो होता नहीं। दुःख का निरोध है दुःख के कारणों को हटाया जा सकता है। दुःख के मिटाने के साधन है, वे ही आनन्द को पाने के साधन है।दुःख निरोध की अवस्था है। एक ऐसी दशा है जब दुःख नहीं रह जाता, दुःख से मुक्त होने की पूरी संभावना है।" जीवन में ज्ञान और कर्म की प्रासंगिकता पर आधारित ईशोपनिषद का ग्यारहवें मंत्र का मर्म कहता है कि,
विद्यां चाविद्यां च यस्तद वेदोभयम सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥११॥
भावार्थ है कि जो व्यक्ति ज्ञान और कर्म दोनो को साथ-साथ जानता है। वह कर्म से मृत्यू को पार करके ज्ञान सेे अमरत्व को प्राप्त करता है। इस दुनियां को ऐसे समझने का प्रयास करते हैं जैसे की यह कोई अभिनय मंच हो। जहाँ विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है।शरीर जो प्रकृति के पंच महाभूतों से मिश्रित और सृजनित है। यह उस नाट्य मंचन की वेशभूषा शरीर है और व्यक्तित्व आत्मा है। आत्मा जिसे प्राकृतिक पर्याय में परमाणु और अध्यात्म में आत्मा की संज्ञा दी जा सकती है। जहाँ ज्ञान की परिकल्पना नाट्यशास्त्र की समझ और कर्म मंचन के परिप्रेक्ष्य में अभिनय है। जैसे की हम देखते हैँ की नाट्य शाला में कई अभिनेता आते है।कुछ अच्छे कुछ सामान्य और कुछ औसतन, लेकिन इनमें एक ऐसा अभिनेता होता है। अपने कला के प्रदर्शन से पूरी महफिल लूट लेता है। और अपने अभिनय से संदेश भी दे जाता है। जो संदेश होता है, वह अनंत समय के लिए जीवंतता को ग्राही होता है।यह संदेश चाहे अभिनेता के जीवन काल के पश्चात् समाप्ति की अवस्थिति क्यों ना हो,लेकिन दर्शकों के जेहन में उस उत्कृष्ट अभिनेता का संदेश अमरत्व ग्राही हो जाता है। जो दर्शक के अनुभवों से होकर किंवदंतियों में तब्दील हो जाता है।वह नाट्य का नायक रहे ना रहे लेकिन उसका संदेश अमर हो जाता है।
सीधे शब्दों में कहें तो इस अनंत प्रकृति में हमारा जीवन किसी अभिनय मंच से कम वहीं है।जहां शारीरिक प्रवास्थाओं में जीवन के चार प्रहर हैं। प्रारंभिक अवस्था यानी बाल्यकाल में ज्ञानार्जन सर्वोपरि है। दूसरी अवस्था यानी युवा जो जोश, समझ, व्यक्तित्व निर्माण को प्रेरित करता है। तृतीय अवस्था गृहस्थ जो जीवन में माधुर्ता और जीवन को अगली पीढ़ी में स्थानांतरण है। अंतिम अवस्था में इस प्रकृति के पंचमहाभूतों से निर्मित इस शरीर का त्याग करना है। जो अपने दायित्वों को समझ कर ज्ञान अनुरूप लोक समाज में ज्ञानी की उपाधि तक पहुँच पाते हैं। वे लोग स्मृतियों में अमरत्व को प्राप्त कर लेते हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़