Friday, September 23, 2022

तेरा तुझको अर्पण फिर क्या लागे है मेरा/ What is your offering to me?


                        (मर्मस्पर्शी)

अक्सर ये देखने को मिलता है कि हम अपनी  मनोरथ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।कभी-कभी तो इच्छाशक्ति इतनी की सनक से कम नहीं होती है। लेकिन प्रकृति के सत्ता में जो सर्वोपरि हो और जो वास्तविक हो वैसे मनोरथ अवश्य पूर्ण होते हैं। इसके लिए आपको याचक बनने की आवश्यकता नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए मृगतृष्णा की भांति सांसारिक लोगों को बरगलाने वाले लोगों में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो जंतर-मंजर से लेकर बलि तक की प्रासंगिक पूजन की कल्पना गढ़ देते हैं।  विषयों के मोहपाश में बंधा हुआ मनुष्य भी क्या कर सकता है। वो इसी मोह की परिधि में बंधकर तिरस्कृत कार्यों में लिप्त होकर तम ग्राही हो जाता है।इसी संदर्भ में ईशोपनिषद से उद्घृत बारहवें मंत्र की पंक्तियां कहती हैं कि,
 

"अन्धं तमः प्रविशन्ति ये सम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्या रताः ॥१२॥"


जो प्रकृति को छोड़ कर जो आडम्बर से फलित का सांसारिक तत्वों के मोह,माया और भक्ति में लीन रहते हैं। वे सदैव सघन अंधकार के भागी होते हैं। अज्ञानता से भरे इस मार्ग में केवल अभिमान का अलंकरण होता है। जो सांसारिकता के मर्म को जानकर अनंत सत्ता की धात्री प्रकृति के अनुसरण में रहते हैं वे अंधकार से मुक्त अपने आप में निर्बंधता को समावेश पाते है। इसी परिप्रेक्ष्य में गुढ़ता से कबीर दास दी संदेशित करते हुए कहते हैं कि, मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥" यानी मेरा पास मेरा कुछ भी नहीं जो भी आपका है यानी असीम प्रकृति का है। तो जब मेरा कुछ है ही नहीं फिर तो सबकुछ हे प्रकृति आपको समर्पित है। अब मेरा कुछ भी नहीं है तो मैं निर्बंध और मोह के क्षुधित अवस्था से पृथक हूँ। वास्तव में वर्तमान संस्कृति या कहें सांसारिक माया इतनी हावी है की जन्म लेकर मृत्यू तक सिर्फ मोह बंधा हुआ है। मोह का संसार दुखों से भरा है। संबंधों का मोह, संबंधों सृजन का मोह, संबंधों में संघर्ष का मोह जाने क्या क्या विचार नहीं होते हैं जो मनुष्य के पैरों की बेड़िया बन जाते हैं। वह बंधा हुआ घिलरते हुए इन संबंधों के बोझ में बंधा रहता है। यह बंधवा स्थिति उसे ऐसे कार्यों के लिए प्रेरित करती है जो करुणा, वेदना और दुखों का कारण है। संभवतः इसी पारिस्थितिकी के कारण मनुष्यों चिंतन के बजाय चिंता में लिप्त होता है।यह चिंता ऐसी स्थिति है जो जीवित अवस्था में भी शारीरिक संरचना में दहन का बोध करती है। बहरहाल सांसारिक जीवन के प्रति अति मोह ही, मनुष्यों को विषयों की प्राप्ति के लिए आशातीत बनाती है। जिसके प्राप्ति के लिए वह मंदिर-मस्जिद,गिरिजाघर-गुरुद्वारा के चक्कर काटते रहता है। जबकि वास्तविकता में यह मोह है जो उसका परम शत्रु है। सांसारिक अलंकरणों के लिए केवल मिथक वस्तुओं की मांग मनुष्यों को क्षणिक सुख तो दे सकता है,लेकिन अनंत अंधकार की ओर ढ़केलता है।इसलिए विद्वान जो प्रकृति की सत्ता का रहस्य समझ पाये उन्होंने संग्रहण के बजाय विस्तार और प्रसार को प्रमुख माना है। जिससे भ्रष्ट विचारों की संज्ञा ना हो अपितु केवल स्तरों में उत्थान के भाव उत्पन्न हो।क्योंकि संपूर्णता तो प्रकृति के सत्ता में है फिर मेरा -मेरा का अहंकार क्यों ही करें?

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़