(मर्मस्पर्शी)
जीवन के रोजाना के एक दिन के परिदृश्य पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करते हैं। हम देखते हैं की हमारे चारो ओर जैसे हम विचार करते हैं। वैसी स्थिति निर्मित होती चली जाती है। जैसे हम किसी व्यक्ति विशेष पर कटाक्ष करते हुए प्रतिक्रिया देते हैं तो निश्चित है की वह भी प्रतिक्रियात्मक पहल करेगा ही, क्योंकि यह प्रकृति है। और प्रकृति जो सम्पूर्ण निकाय की एक प्रभुत्व सत्ता रखती है। वह आपके दृष्टिकोण के अनुरूप वातावरण को सृजक और अति समदर्शी बना देती है जैसा आपका दृष्टिकोण है। संभवतः इसी प्रासंगिकता के समझने वाले संत महाकवि तुलसीदास जी ने कहा है, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरत देखी तिन तैसी।' तात्पर्य है कि जिस व्यक्ति का दृष्टिकोण जैसा है प्रकृति यानी ईश्वर का स्वरूप उसे वैसा दिखाई देगा। उदाहरणार्थ हम नदी के पास देखते हैं कि कोई बच्चा रेत में छोटे-छोटे घरौंदे बना रहा है। वो अलग ही आनंद की अवस्था में है। वहीं पर एक कवि हृदय मनुष्य कल्पनाओं के सागर में गढ़कर बौद्धिक उत्कृष्टता को प्राप्त करता है। आनंद दोनो ही प्रक्रिया में ठीक वैसे ही माया से ग्रसित व्यक्ति उसी नदी में स्नान करती स्त्री के हाड़-मास के संरचना से वशीभूत होकर, अपने आप को और अधिक कामवासना में पाता है। तीनों स्थिति में दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है कि आप किस दिशा में जा रहे हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है की प्रकृति किसी भी प्रकार का अवरोध करे अपितु वो सहयोगी भूमिका में रहती है। अब विचारणीय विषय यह है की आपकी विचार शैली प्रकृति के अमर स्वर में खूद को निर्झर करना है। या मोह, वासना के सांसारिक लोलुपता में फसकर अपने अंदर निवासित प्रकृति का हनन करना है। जीवन के लक्ष्यों पर आधारित ईशोपनिषद की जीवन लक्ष्य पर आधारित तृतीय महासूत्र के अनुसार,
असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसा वृताः।
ता स्ते प्रेत्याभिगछन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥३॥
अर्थात्, प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु, जीव- जंतु, प्रकृति का हिस्सा है। लेकिन मनुष्यता अपने प्राकृतिक गुण या अनंत आत्मा(परम प्रकृति) से पृथक होकर सांसारिकता के भँवर में फसकर स्वयं के प्रकृति या अनंत आत्मा के साथ भितर घात करते हैं। वह भूल जाता है की जीवन उद्देशात्मक है ना कि उपभोगात्मक। वह जन्म-मरण के चक्र में पूनर्रावृत्ति को ग्राही होता है। क्योंकि ये प्रकृति है जो असंभव को भी संभव कर देती है। यानी जो आप विचार प्रकृति के समक्ष लेकर जाते हैं उसे वह दोगुना कर देती है। जैसे आत्म चिंतन से आप जीवन के वास्तविक लक्ष्यों के प्रति जिज्ञासा यदि मन में हैं तो निश्चय ही इसके प्रति प्रकृति आपको दोगुनी ज्ञान शक्ति से नवाजे देगी। ठीक वैसे ही वैमनस्य, ईष्या, लोभ, माया, काम इत्यादि से लिए तिरस्कृत जीवन की मांग यदि किया जाये तो यह भी प्रकृति वैसे ही देगी। जो लोग सांसारिक मोह से अपने वास्तव आत्म के चिंतन में विफल होते हैं। उन्हे वैसे ही आत्म हनन फलस्वरूप मोक्ष यानी परम प्रकृति के गोद में निर्बंध विराम की प्राप्ति असंभव है। वह जन्म लेता है, पशुवत जीवन के पश्चात् मृत्यु को प्राप्त करता है। इसी चक्र में वह दुख, वेदना, षड्यंत्र, वैमनस्य और कुटिल स्वभाव और अनुभव को जीता है। वह परम अनंत प्रकृति के चिंतन से रहित होता है। अपने अंदर प्रकृति की शांति के बजाय कल्पनाओं के कोलाहल में वेदनाओं से घिरा रहता है। जबकि वास्तव में उसे परम जननी प्रकृति के चिंतन में जीवन न्योछावर कर, प्रकृति में पूर्ण रूपेण समाहित कर सांसारिक दुखों से मुक्ति का बोध करना चाहिए।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़