(अभिव्यक्ति)
ज्ञातव्य है की इस पृथ्वी पर जीवन के प्राथम्य दौर में जीवों के सृजन, उत्थान और प्राकृतिक संसाधनों के बीच अनुकुलता के समीकरणों के बीच जीवन का प्रसार हुआ। लाखों वर्षों की लम्बी यात्रा के पश्चात् मनुष्य प्रजाति आदिम से सभ्यता की यात्रा में उसने अपने समान संतति का सृजन, उन्हे अपने जीवन के अनुभव और ज्ञान का प्रसारण करना सीख लिया था। यह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती गई। वहीं ज्ञान से नव विकास के अनुकुल अवसरों की तलाश ने मनुष्य में अनुसंधान की प्रक्रिया का सृजन किया। जिसके चलते आज भी नित नवीन आविष्कार के आविर्भाव हो रहे हैं। सभ्यता के प्राचीन दौर में सामाजिक ढांचा और उसकी पृष्ठभूमि कबीलाई परम्परा और संगठनों के नाम पर एक ऐसी व्यवस्था का जन्म हुआ जिसे जातिसूचक व्यवस्था का जन्म हुआ। जैसे सिंधु नदी के किनारे रहने वालों की सभ्यता को सिंधु सभ्यता और रनिवासियों को सिंधु से अपभ्रंश शाब्दिक प्रयोग में हिंद और हिन्दू कहा जाने लगा। ठीक वैसे ही छोटे-छोटे समूहों के पहचान, प्रतीक चिन्ह, टोटम, परम्परा के संदर्भ में एक समानता के स्थिति में जाति का सृजन हुआ। वहीं वैज्ञानिक पृष्ठभूमि में जीवों के जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में नींव या बुनियादी और निचली श्रेणी होती है। जीववैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसे जीवों के समूह को एक जाति बुलाया जाता है। जो एक दुसरे के साथ सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता रखते हो और जिनकी सन्तान स्वयं आगे सन्तान जनने की क्षमता रखती हो।
यानी जाति के समीकरण में अपने आप को जकड़ कर मनुष्य अपने आप को श्रेष्ठ और अन्य की जाति को कमतर की तुलना करने लगता है। सीधे अर्थों में कहें तो जातिवाद, अपने परम्परागत् रीतिरिवाजों, मान्यताओं और अपनी जाति के हित को सर्वोच्च मानना जातिवाद कहा जा सकता है। निःसंदेह ही जाति प्रथा एक सामाजिक कुरीति से कम भी नहीं है। ये विडंबना है कि आजादी के सात दशक से भी अधिक समय व्यतित हो जाने के बाद भी हम जाति प्रथा के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। हालांकि एक लोकतांत्रिक देश के नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है। लेकिन लोगों में व्यापक रूप से जातिवाद के समीकरण देखने को मिलते हैं। चाहे राजनीति गलियारे में प्रत्याशी खड़ा करने की बात हो या किसी विशेष वर्ग/जाति के द्वारा राजनीतिक उलटफेर की बात हो दोनो ही अवसर पर बाहुल्य जाति के लोगों और प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति विशेष से मत संबंधि आशीर्वाद लिए जाते हैं। यही समीकरण तक और गंभीर लगने लगता है जब भारतीय लोकतंत्र तंत्र के विभिन्न राज्यों में उपस्थित लोगों को जाति विशेष का संख्यात्मक रूप में जातिवाद के प्रबल समर्थकों के द्वारा जातिगत आकंड़ों को संकलित किया जाता है। इन आकड़ों के मद्देनजर कई और समीकरण बाहर आते है जैसे राजनीति पकड़, कुल जनसंख्या में अपनी बाहुल्यता साबित करना और जातिवाद के स्वरों को मजबूत करना है। इससे भारतीय सामाजिक ढांचें पर अलहदा चित्र अंकित होने लगता है, जो जातिवाद के जड़ों को मजबूत तो कर देता है। लेकिन इसके साथ सामाजिक संतुलन की स्थिति को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। ऐसे ही अंध जातिवाद के भक्तों के द्वारा लोक समाज में अपने बाहुल्यता का महिमामंडन किया जाना इसके स्वाभाविक लक्षणों में से एक हैं।
ऐसा नहीं है कि ये लक्षण केवल यही तक सीमित रहते हैं। ये लक्षण अन्य समूहों,जाति और लोगों को एक होने के लिए प्रावस्थाओं की जननी बन जाती है। जिससे अन्य समुदाय, जाति, पंथ, धर्म और विचारधाराओं का आकड़ों का संकलन करने का गैर-आवश्यक स्थिति निर्मित होती है। इन सभी स्थितियों का प्रादुर्भाव राजनीति से लेकर सोशलमीडिया के प्रयोगशाला में विभिन्न नव मानवतावादी विचार को कुचलने के समरूप आविष्कारों का जन्म होने के लिए सृजक स्थिति के दरवाजे़ पर ला खड़ा किया जाता है। परिणामस्वरूप जातिवाद के प्रबल होते समीकरण में कहीं ना कहीं मानवतावादी विचारों की लहर जातिवाद के कोलाहल में गुम हो जाती है। फिर समाज में जाति के आधार पर परतों का निर्माण कहीं ना कहीं दो समुदाय में संघर्ष की स्थिति की संकल्पना को जन्म दे देती है। भारतवर्ष में शुद्ध भारतीय जो जाति, धर्म, पंथ, वर्ग, वर्ण और विचार से पृथक निरपेक्षता के सिद्धांत पर आधारित भारतीयों की संख्या की कम है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़