(रोजगार-मंथन)
दुनिया भर के पुस्तकालय पेशेवर विज्ञान और तकनीकी पुस्तकालयों के विकास और वर्धनशिलता के लिए दूरगामी विचार रखते हैं। भारत में पुस्तकालय आंदोलन के दौर से लेकर वर्तमान तक हुए अमूलचूल परिवर्तनों की बानगी रही है कि इस भारतीय उपमहाद्वीप के भारतवर्ष में 54,856 सार्वजनिक पुस्तकालय हैं। कई राज्यों में सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम तो बनाए गए हैं। लेकिन प्रासंगिकता का दौर आज भी आदिकाल के दौर तुल्य अवसरों में आशा की किरण ढूंढ रही है। छत्तीसगढ़ राज्य में सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम, 2008 पारित तो हुआ है। मगर प्रासंगिक होने में अभी देर भली की स्थिति में संवर्धित है। एक ओर जहाँ पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान के क्षेत्र को रोजगार के रूप में चयन करने वाले विद्यार्थियों की संख्या कुछ वर्षों में बढ़ी है। लेकिन रोजगार के सीमित संसाधन एवं शासकीय संस्थानों में पुस्तकालय संस्कृति को केवल कमरें और कमरे के बाहर पुस्तकालय के बोर्ड सजाकर ही सीमित कर दिया गया है। उत्कृष्ट विद्यालयों में लाइब्रेरी प्रोफेशनल्स की भर्ती के संबंध में जहाँ प्रतिनियुक्ति जैसे विधाओं से लैस सिस्टम ने पुस्तकालय के नवप्रशिक्षुओं के रोजगार की उम्मीद को विवर्तन ग्राही बना दिया है।
छत्तीसगढ़ के अधिकांश विद्यालय, महाविद्यालयों यानी प्रारंभिक एवं उच्च शिक्षा के पवित्र मंदिरों की रीढ़ कही जाने वाली संस्था यानी पुस्तकालय से किनारा कर लिया गया है। ऐसा नहीं है की प्रयास नहीं किये गए, परंतु चिंतन का यह विषय है कि इन प्रयासों को प्रारंभ के पश्चात ज्यों के त्यों स्थिति में छोड़ दिया गया है। ग्रामीण विकास के नाम पर पंचायत स्तरीय पठन-पाठन केन्द्र स्वरूप आत्मानंद वाचनालयों की स्थापना का प्रादुर्भाव तो हुआ। लेकिन यह शैक्षणिक योजना भी कभी प्रौढ़ शिक्षा प्रेरकों के हाथों या फिर कभी पंचायत के हाथों सुपूर्द होते-होते लगभग आकाशीय पुष्प के भांति प्रदर्शन हो रहे हैं। ऐसा नहीं है की विद्यालयों में प्रलेख नहीं है। ऐसा भी नहीं है की प्रलेखों का अर्जन नहीं होता है। निर्धारित और सुनियोजित सेवकों के बीना ऐसे केवल कमीशन बेस खरिदफरोख्त की परम्परा का नवांकुरण हो गया है। जहाँ सिर्फ पुस्तकों की संख्या और पुस्तकों का स्टाक संकलन कर एक कमरे में बंद कर दिया जाता है। उस कमरे के बाहर पुस्तकालय नामांकित बोर्ड लगा दिया जाता है।
वास्तविकता के धरातल से दूर ग्रंथालय कार्मिकों के भर्ती संबंधित ना कोई प्रावधान और ना ही कोई विशेष इच्छा शक्ति है। वहीं निजी क्षेत्रों में तो केवल अनिवार्यता वाले की संगठनों में ग्रंथालय कार्मिकों का तंत्र विकसित देखा जा सकता है। परंतु, इन क्षेत्रों में भी ग्रंथालय संस्कृति के उत्थान विषयक विशेष ध्यानाकर्षण का अभाव है। वहीं पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान में स्नातक, स्नातकोत्तर और विद्या वाचस्पति के डिग्रियाँ धारण किये बेरोजगार कई बार रोजगार सृजन के लिए ध्यानाकर्षण करने हेतु लामबंद हुए हैं। लेकिन ढ़ंढस रखने के आश्वासन के अलावा कुछ और हासिल नहीं हुआ है। पुस्तकालय संस्कृति से छात्र जीवन से लेकर आम लोगों को कई लाभ होते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रलेख पढ़ने से दिमाग का अभ्यास होता है। जाहिर सी बात है जब दिमाग का अभ्यास होगा तो दिमाग स्वस्थ भी रहेगा। स्वस्थ मस्तिष्क से मानसिक तनाव की अभिवृद्धि भी कम होती है। तनाव को दूर करने के लिए पढ़ना एक असरदार तरीका माना जाता है, क्योंकि जब आप पुस्तक पढ़ने पर ध्यान लगाते है तो दिमाग कहीं और चला जाता है, जिससे तनाव कम होता है। यानी बौद्धिक विकास की प्रक्रिया के लिए पुस्तक पढ़ना और पुस्तक पढ़ने के लिए पुस्तकालय के गठन और संस्कृति का संरक्षण आवश्यक है। ऐसे में कुशल और नेतृत्व क्षमता से लब्धित पुस्तकालय पेशेवरों की उपेक्षा कहीं ना कहीं शिक्षा के मंदिर के रीढ़ को कमजोर करना दर्शाता है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़